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लोकतंत्र और आंदोलनः क्या कहते थे आंबेडकर और लोहिया

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अरुण कुमार त्रिपाठी

वरिष्ठ पत्रकार

जब कानून का विरोध करने वाली पार्टी सरकार में आ जाए तो वह उसे बदल सकती है. लेकिन कई बार वे कानून और बदलाव जनता को स्वीकार नहीं होते और वे अगले चुनाव तक इंतजार किए बिना सड़कों पर आ जाती हैं. वह कहती है कि पांच साल इंतजार नहीं किया जा सकता. कानून अभी बदला जाना चाहिए या वापस लिया जाना चाहिए.

लोकतंत्र और आंदोलनः क्या कहते थे आंबेडकर और लोहियापहली बात तो यह थी कि हम अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीको का ही पालन करें. हमें क्रांति के हिंसक उपायों को छोड़ देना चाहिए. (Photo- news18 English creative)

लोकतंत्र एक संवैधानिक व्यवस्था है. इसमें चुनाव होते हैं. सरकारें बनती हैं और वे संसद और विधानसभाओं से कानून बनाती हैं. माना जाता है उन्हें जनता का आदेश प्राप्त है वैसा करने के लिए. कानून बनाने वाली सरकारें कहती भी हैं कि उन्हें बहुमत मिला है इसीलिए कि वे कानून बनाएं और समाज और व्यवस्था में बदलाव करें. उन्होंने संवैधानिक व्यवस्था के तहत वैसा किया है. इसलिए उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता. अगर किसी संगठन या पार्टी को वे कानून ठीक नहीं लगते तो उन्हें इंतजार करना चाहिए अगले चुनाव तक.

जब कानून का विरोध करने वाली पार्टी सरकार में आ जाए तो वह उसे बदल सकती है. लेकिन कई बार वे कानून और बदलाव जनता को स्वीकार नहीं होते और वे अगले चुनाव तक इंतजार किए बिना सड़कों पर आ जाती हैं. वह कहती है कि पांच साल इंतजार नहीं किया जा सकता. कानून अभी बदला जाना चाहिए या वापस लिया जाना चाहिए. दिल्ली के चारों ओर तकरीबन अस्सी दिन से और पंजाब में छह महीने से चलने वाले किसान आंदोलन का यही कहना है. ऐसे में सवाल उठता है कि संविधान के निर्माता कहे जाने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर जो संविधानवाद के प्रवर्तक थे का इस विषय पर क्या कहना था? हमें यह भी जानना चाहिए कि अहिंसा में यकीन करने वाले डॉ. राम मनोहर लोहिया जो कि स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ आजाद भारत में आंदोलन और सिविल नाफरमानी के पर्याय थे वे क्या कहते थे?

25 नवंबर 1949 को यानी संविधान को अंगीकार किए जाने के एक दिन पहले डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा में अपने आखिर भाषण में क्या कहा यह गौर करने लायक है. उन्हें इस बात की फिक्र थी कि अगर भारत ने फिर अपना लोकतंत्र खो दिया तो क्या होगा? वे मानते थे कि भारत में लोकतंत्र पहली बार 1949 के बाद नहीं आया है. वह पहले भी था और बौद्ध भिक्षु संघ एक प्रकार के संसदीय संगठन ही थे. वे संसदीय नियमों का पालन करते थे. लेकिन लंबे समय से वह व्यवहार भारत भूल गया है. इसलिए यह खतरा कायम है कि उसका ढांचा तो लोकतांत्रिक रहे लेकिन उसकी अंतर्वस्तु लोकतांत्रिक न रह जाए. इसीलिए उन्होंने हम भारत के लोगों को हिदायत दी थी कि वे तीन बातों का पालन करें लोकतंत्र को कायम रखने के लिए.

पहली बात तो यह थी कि हम अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीको का ही पालन करें. हमें क्रांति के हिंसक उपायों को छोड़ देना चाहिए. कहने का तात्पर्य यह है कि आजाद भारत को सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह के उन तरीकों को छोड़ देना चाहिए जिसका उपयोग उसने विदेशी सत्ता से आजादी पाने के लिए किया. जब तक संवैधानिक तरीके मौजूद हैं तब तक इनका ही उपयोग नहीं करना चाहिए. उनका उपयोग तभी करना चाहिए जब संवैधानिक तरीके खत्म हो जाएं. क्योंकि गैर-संवैधानिक तरीके अराजकता के व्याकरण हैं. इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, अच्छा ही है.

उनकी दूसरी बात यह थी कि हमें महान से महान व्यक्ति के चरणों में अपनी आजादी का समर्पण नहीं करना चाहिए. न ही उस पर इतना भरोसा करना चाहिए कि वह संस्थाओं को बिगाड़ दे. क्योंकि कृतज्ञ होना ठीक है लेकिन उसकी एक सीमा है. वे स्वतंत्रता के मशहूर सिद्धाकार जान स्टूअर्ट मिल को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि किसी व्यक्ति को अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञता नहीं जतानी चाहिए, किसी स्त्री को अपनी शुचिता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं होना चाहिए और किसी भी देश को अपनी आजादी की कीमत पर कृतज्ञता नहीं ज्ञापित करनी चाहिए. वे कहते हैं कि धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति की मार्ग है लेकिन राजनीति में भक्ति पतन और आखिरकार तानाशाही का शर्तिया मार्ग है.

उनका तीसरा सुझाव या चेतावनी यह थी कि सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र काफी नहीं है. देश में सामाजिक लोकतंत्र आवश्यक है. जिसके तहत समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का एक सामंजस्य होना चाहिए. इसे सिर्फ किताबों में दर्ज शब्द नहीं रहने देना है बल्कि जीवन का सिद्धांत बनाना है. इसका सामाजिक जीवन में समावेश होना आवश्यक है. डॉ. आंबेडकर का उन लोगों को मतभेद था जो `हम भारत के लोग’ की जगह पर `भारत राष्ट्र’ शब्द पर जोर दे रहे थे. उस समय उनका अवलोकन था कि हम एक राष्ट्र नहीं हैं बल्कि बनने की प्रक्रिया में हैं. वह कैसे बनें इसके तरीके सोचने चाहिए. जाति सबसे बड़ी राष्ट्रविरोधी भावना है उसे खत्म होना चाहिए. इसी संदर्भ में उन्होंने कहा था कि अगर कोई पार्टी या व्यक्ति राजनीति से ऊपर अपने पंथ या धार्मिक विश्वास को रखता है तो वह खतरनाक काम कर रहा है. इससे लोकतंत्र को खतरा है.

अब सवाल उठता है कि आजाद भारत में सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए महज संवैधानिक उपायों का सुझाव देने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर ने क्यों संविधान जलाने की बात की थी. उनका वह वक्तव्य 2 सितंबर 1953 को राज्य सभा में दिया गया था. उनका कहना था, ` मैंने संविधान अपने हाथों से बनाया है लेकिन मैं उसे जलाने वाला पहला व्यक्ति हूंगा. वह(अगर) लोगों को उपयुक्त नहीं लगता. चाहे जो हो अगर लोग इसे चलाना चाहते हैं तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों समुदाय हैं देश में और अल्पसंख्यकों की यह कह कर उपेक्षा नहीं की जा सकती कि अगर हम आपको मान्यता देंगे तो यह लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने वाला होगा. बल्कि अल्पसंख्यकों को आहत करने से(लोकतंत्र को) सबसे बड़ा नुकसान होगा.’उनसे जब यह पूछा गया कि उन्होंने संविधान जलाने जैसी अतिवादी बात क्यों कि तो उन्होंने 19 मार्च 1955 को कहा कि हमने एक मंदिर बनाया है. हम चाहते हैं कि ईश्वर उसमें आएं और निवास करें लेकिन अगर उसमें शैतान आकर रहने लगे तो उसे नष्ट करने के अलावा क्या किया जा सकता है. हम नहीं चाहते थे कि उसमें असुरों का वास हो. हम तो चाहते हैं कि उसमें देवता वास करें. इसीलिए मैंने वैसा वक्तव्य दिया है.

अब सवाल यह उठता है कि जिन डॉ. आंबेडकर से मिलकर एक राजनीतिक दल बनाने और आंदोलन चलाने का प्रयास डॉ. राम मनोहर लोहिया 1955 से कर रहे थे और 1956 में उन दोनों के मिलन से पहले ही छह दिसंबर को डॉ. आंबेडकर के निधन से उस संभावना का पटाक्षेप हो गया, अगर वे मिलते तो क्या होता? डॉ. लोहिया उनका बहुत सम्मान करते थे और कहते थे महात्मा गांधी के बाद वे देश के सबसे बड़े महापुरुष थे. उनको लगता था कि अगर वे दोनों मिल गए तो इस देश से जाति प्रथा पूरी तरह से समाप्त की जा सकती है. वे दोनों समतावादी समाज के लिए भी कटिद्ध थे और आर्थिक क्षेत्र में भी समता और लोकतंत्र लाने के लिए विभिन्न उपायों पर सहमत थे. लेकिन डॉ. लोहिया लोकतंत्र में सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह को पूरी तरह उचित मानते थे. डॉ. लोहिया का कहना था, ` लोकतंत्र में सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा को अनुचित मानने को मतलब होगा भक्त प्रहलाद, चार्वाक, सुकरात, थोरो और गांधी जैसे महान सत्याग्रहियों की परंपरा को नकारना. सिविल नाफरमानी को न मानना सशस्त्र विद्रोह को आमंत्रित करना है.’ डॉ. लोहिया का यह भी मानना था कि देशी शासन को अगर जागरूक और चौकस बनाना है तो प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह अपने अधिकारों को समझे. जहां कहीं भी उस पर चोट होती हो, हमले होते हों उसके विरुद्ध आवाज उठाए. क्योंकि वे मानते थे कि सत्ता सदैव जड़ता की ओर बढ़ती है और निरंतर निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचारों को पनपाती है.

अब यहां यह प्रश्न उठता है कि गुलाम भारत में 25 दिसंबर 1927 को महाड़ सत्याग्रह के दौरान मनुस्मृति जलाने वाले और आजाद भारत में सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह की मनाही करने वाले डॉ. आंबेडकर और लोहिया अगर मिलते तो अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने और सामाजिक, राजनीतिक लक्ष्य को पाने के लिए कौन सा रास्ता अपनाते? आजाद भारत में आंदोलन न करने और अगले चुनाव तक इंतजार करने का तर्क उस समय भी उठा था जब जेपी का आंदोलन चला था और तब भी जब नंदीग्राम और सिंगुर में कारखाना लगाने के विरुद्ध किसानों का आंदोलन चल रहा था. तब कई वामपंथी बौद्धिकों ने कहा था कि जब कोई सरकार बनी है तो उसे फैसला लेने देना चाहिए उसका आंदोलन करके विरोध नहीं करना चाहिए.

यह स्थिति सिर्फ ऐतिहासिक कल्पना के तौर पर देखी जा सकती है कि डॉ. आंबेडकर जैसे संविधानवादी और डॉ. लोहिया जैसे आंदोलनकारी अगर मिलते तो वे किस तरह की राजनीति करते और किन उपायों का सहारा लेते. संभवतः वह अराजकता का व्याकरण तो नहीं सृजित करते. शायद उन दोनों के विचारों के मध्य में कहीं भारतीय लोकतंत्र की रक्षा भी है और सामाजिक आर्थिक सवालों का समाधान भी. डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया दोनों किसी महानतम व्यक्ति के चरणों में अपनी आजादी समर्पित करने के विरुद्ध हैं और वे अल्पसंख्यकों चाहे वह किसान, मजदूर किसी भी रूप में हो के अधिकारों की उपेक्षा करने के विरुद्ध थे. लेकिन वे अलोकतांत्रिक तरीकों से भी सहमत नहीं थे. अलोकतांत्रिक तरीके यानी हिंसा का सहारा या हिंसा का समर्थन. इस मामले में गांधी का सत्याग्रह तो बहुत सारी कसौटियों की बात करता है और उसे मानने और समझने के लिए आज बहुत कम लोग तैयार हैं. फिर भी उसकी चर्चा होनी चाहिए और हमें देखना चाहिए कि कोई भी आंदोलन हिंसा की ओर न जाए. साथ ही सरकारें भी हम भारत के लोगों का सम्मान करें क्योंकि राष्ट्र उसी से निर्मित होता है. सरकारों और पार्टियों को राजनीति से ऊपर पंथ या धार्मिक आस्था को भी नहीं रखना चाहिए. यही उपाय है हमारे लोकतंत्र को कायम रखने और उसे फिर से खो जाने से बचाने के लिए.

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आंबेडकर और लोहिया के साथ की संभावना !

(गोपेश्वर सिंह)

दलितों के लिए मानवोचित सम्मान तथा राजनीतिक अधिकार हासिल करना आम्बेडकर की पहली प्राथमिकता थी. वे यह भी जानते थे कि बिना आर्थिक रूप से स्वतंत्र हुए न तो दलितों की मुक्ति की कल्पना की सकती है और न आधुनिक भारत की नीव रखी जा सकती है. ये सभी चीजें तभी प्राप्त की जा सकती हैं जब दलितों के पास राजनीतिक सत्ता हो. इसके लिए वे राजनीतिक दल की आवश्यकता महसूस करते थे. वे मानते थे कि दलितों की सारी समस्याएं इसलिए हैं; क्योकि उनके पास राजनीतिक सत्ता नहीं है.

पहले गोलमेज सम्मलेन (1930) में उन्होंने कहा था: ‘’… डिप्रेस्ड क्लासेज की समस्या तबतक हल नहीं हो सकती जबतक कि राजनीतिक सत्ता इस तबके के लोगों के हाथों में नहीं आ जाएगी.’’( 93) इस बात को ध्यान में रखते हुए 1936 में उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी – इंडीपेंडेंट लेबर पार्टी ( आईएलपी) की स्थापना की. इस पार्टी में अस्पृश्य और मजदूर थे. उन्होंने कहा कि भारतीय मजदूर ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों का एक साथ शिकार हैं. इस दल का उद्देश्य ब्राह्मण शाही और पूंजी शाही दोनों से एक साथ लड़ना था. मजदूरों के बीच तब मार्क्सवादी लोग सक्रिय थे.लेकिन उन्होंने मार्क्सवादियों से अपनी पार्टी को अलग रखा. प्रस्तुत पुस्तक के लेखक का कहना है कि एक तरफ़ तो आम्बेडकर मजदूरों के प्रतिनिधित्व का दावा कर रहे थे और दूसरी तरफ़ वे वर्ग के विश्लेषण का महत्त्व स्वीकार करने को तैयार नहीं थे और इस बात पर अड़े हुए थे कि हमारे समाज की बुनियादी इकाई जाति ही है.(96)

भारत के सन्दर्भ में आम्बेडकर मार्क्सवाद की वर्ग सम्बन्धी अवधारणा से सहमत नहीं थे. इसलिए कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे के साथ एक बार मंच साझा करने के बावजूद मार्क्सवादी पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रमों से आईएलपी की दूरी बनी रही. आम्बेडकर की इस राजनीतिक पार्टी को बहुत कम सफलता मिली. इस कई कारण थे. पार्टी के पास संसाधनों की कमी तो थी ही, जनाधार की भी कमी थी. उसके मुकाबले कांग्रेस पार्टी का व्यापक प्रचार और काम भी था. आम्बेडकर की स्वीकृति महाराष्ट्र की अन्य दलित जातियों में भी कम थीं. अन्य दलित जातियों की नज़र वे सिर्फ़ महारों के नेता थे. इसी के साथ इस पुस्तक से यह भी पता चलता है कि एक नेता में पार्टी को चलाने के लिए जिस लचीलेपन की ज़रूरत होती है, उसकी किंचित कमी भी उनमें थी.अपने जीवन के अंतिम वर्षों में आम्बेडकर एक ऐसे राजनीतिक दल की ज़रूरत महसूस करने लगे थे जो ग़रीबी और जाति को एक इकाई मानकर चल सके.

अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया’ की कल्पना को वे एक शक्ल दे चुके थे. वे कम्युनिस्ट पार्टी का विकल्प तैयार करने में लगे थे.उनकी बेचैनी और सोच को इंन शब्दों में देखा जा सकता है: ‘’इसके पहले कि मैं मर जाऊँ, मुझे अपने लोगों को एक निश्चित राजनीतिक दिशा देनी चाहिए. वे हमेशा ग़रीब, उत्पीडित और वंचित रहे हैं.इसी कारण आज उनमें एक नयी चेतना और नया आक्रोश जन्म ले रहा है.’’(107) आम्बेडकर नहीं चाहते थे कि उनके लोग कम्युनिज्म और कम्युनिस्टों की ओर आकर्षित हों. इसलिए इन्होने राममनोहर लोहिया, पी के अत्रे और एस. एम. जोशी जैसे सोशलिस्ट नेताओं से बात की और साथ काम करने की दिशा में सोच- विचार किया.समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया अमीरी- गरीबी और जाति के सवाल को बड़े पैमाने पर उठा रहे थे. वे भी  आम्बेडकर और उनके संगठन शेड्यूल कास्ट फेडरेशन से सहयोग- संवाद की इच्छा रखते थे. लेकिन इसके पहले कि उन दोनों की योजना मूर्त रूप ले पाती,आम्बेडकर का निधन हो गया.

आम्बेडकर- लोहिया के प्रसंग की चर्चा इस पुस्तक में तो है ही, लोहिया के पत्र से भी इस प्रसंग का पता चलता है. 1 जुलाई 1957 को मधुलिमये को लिखे एक पत्र में लोहिया आम्बेडकर की मृत्यु पर गहरा दुःख व्यक्त करते हैं और उनका महत्त्व ऊँचे शब्दों में स्वीकार करते हैं:” … मेरे लिए डॉ आम्बेडकर भारतीय राजनीति के बहुत बड़े आदमी थे और गाँधी को छोड़कर, उतने महान जितना कोई सबसे महान सवर्ण हिन्दू हो सकता है. इस तथ्य से मुझे हमेशा ही सांत्वना और विश्वास मिला कि हिन्दू धर्म की जाति- व्यवस्था को एक दिन ख़त्म किया जा सकता है.” पत्र में इसके आगे लोहिया ने जगजीवन राम और आम्बेडकर की तुलना की है और आम्बेडकर को ‘विद्वान, दृढ़ चरित्र वाला, साहसी और स्वतंत्र विचारों’ का व्यक्ति बताया है. ऐसा व्यक्ति जिसे ‘बाहर की दुनिया के सामने स्वाभिमानी भारत के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता था.’ इसके साथ लोहिया ने यह भी लिखा है: “… किंतु वे कटु और ऐकान्तिक(एक्सक्लूसिव) प्रवृत्ति के थे. उन्होंने ग़ैर हरिजनों का नेता बनने से इनकार किया. मैं पिछले 5000 साल की पीड़ा और हरिजनों पर उसके प्रभाव की कल्पना कर सकता हूँ.”

लोहिया को उम्मीद थी कि एक दिन आएगा जब ‘ आम्बेडकर जैसा महान भारतीय’ इस स्थिति से ऊपर उठेगा और सम्पूर्ण राष्ट्र का नेतृत्व करेगा, ‘किंतु मृत्यु जल्दी आ गई.’ इसके आगे लोहिया अपने पत्र में यह भी लिखते हैं: ‘लेकिन डॉ आम्बेडकर के मॉडल में भी सुधार की ज़रूरत है.’ पत्र के अंत में आम्बेडकर के अनुसूचित जाति के अनुयायियों को ध्यान में रखते हुए वे लिखते हैं: “ .. मैं चाहता हूँ कि भारत की अनुसूचित जातियों को पिछले 40 वर्षों की भारतीय राजनीति  तर्कपूर्ण मूल्यांकन के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए.मैं चाहता हूँ कि ये जातियाँ डॉ आम्बेडकर को अपनी श्रद्धा और अनुकरण का प्रतीक बनाए रखें, उनकी स्वतंत्रता के साथ किंतु कटुता के बिना, उस डॉ आम्बेडकर को जो केवल हरिजनों का ही नहीं सारे भारत का नेता बन सकता था”( रा. म. लो. रचनावली-3, पृष्ठ-२२4-25) अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आम्बेडकर की मृत्यु से भारतीय राजनीति की एक बड़ी संभावना ख़त्म हो गयी .

यह अनुमान का विषय है कि आम्बेडकर को पांच- दस साल का समय और मिला होता तो क्या होता. लेकिन यह तय है कि आम्बेडकर और लोहिया के साथ आने से भारतीय राजनीति में नयी संभावनाओं का रास्ता खुलता.जाति- भेद के साथ वर्ग- भेद की समाप्ति के अभियान का आधार मजबूत होता. लोहिया बहुत ही स्वप्नदर्शी और साहसी नेता थे. स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने दुस्साहसी योद्धा के रूप में भाग लिया था. वे जनप्रिय, ईमानदार और सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले नेता थे. राजनीति के साथ आर्थिक, सामाजिक और सामाजिक मुद्दों पर उनकी दृष्टि बहुत साफ़ एवं रचनात्मक थी.

आम्बेडकर- लोहिया के वैचारिक मेल से भारतीय राजनीति का नया अध्याय शूरू होता, सवर्णों और दलितों के बीच की कटुता कम होती. इस तरह नेहरू और कांग्रेस का सार्थक और मजबूत विकल्प तैयार होता और सांप्रदायिक और दक्षिण पंथी ताकतों को उभरने का मौका नहीं मिलता.आम्बेडकर और लोहिया दोनों ने विदेशों में ऊँची शिक्षा पायी थी. दोनों डॉक्टर थे और कहलाते भी थे. एक सूट- टाई पहनता था, दूसरा धोती- कुर्ता. कोट- पैंट वाले आम्बेडकर और धोती- कुर्ता वाले लोहिया की एक साथ हाथ मिलाते हुए काश कोई तस्वीर होती और आज हम देख पाते !

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