स्वदेश कुमार सिन्हा
अभी हाल में महाराष्ट्र चुनाव में जो पैसे और सत्ता का खुलेआम खेल खेला गया, वह अपने आप में अभूतपूर्व था। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता मुम्बई के एक होटल में करोड़ों रुपयों के साथ पकड़े गए। ऐसा बताया जा रहा है कि ये पैसा मतदाताओं को बाँटने के लिए था। वास्तव में आज कॉरपोरेट अपने पसन्द के राजनीतिक दलों चुनाव में ख़र्च करने और मतदाताओं को बाँटने के लिए बेतहाशा धन ख़र्च कर रहा है, जिससे कि भविष्य में उनके चुनाव जीतने पर वे उसका पूरा-पूरा फायदा ले सकें। चुनावी बाॅण्ड के जरिए राजनीतिक दलों को धन देने की प्रक्रिया को इसी लिए संवैधानिक भी बनाया गया है। ये कॉरपोरेट न केवल राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को बल्कि क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों को भी चुनाव में भारी धनराशि दे रहे हैं।
भारत में चुनाव आयोग के निर्देशों के अनुसार एक उम्मीदवार अपने लोकसभा क्षेत्र में 95 लाख (बड़े राज्यों में) और 75 लाख (छोटे राज्यों में) ख़र्चा कर सकता है। इसी तरह विधानसभा क्षेत्रों के लिए यह सीमा 40 लाख (बड़े राज्यों के लिए) और 28 लाख (छोटे राज्यों के लिए) तय की हुई है। यह बात जग-ज़ाहिर है कि हर चुनाव में इन सीमाओं को तोड़ा जाता है और पूँजीवादी प्रणाली में अन्य नियमों/क़ानूनों की तरह शासकों के लिए यह नियम भी केवल काग़ज़ के टुकड़े के अलावा कुछ नहीं है। साथ ही यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि राजनीतिक पार्टियों के चुनावों के दौरान किए गए ख़र्चों की कोई सीमा नहीं है।
‘सेंटर फॉर मीडिया स्ट्डीज़’ की हाल ही की रिपोर्ट के अनुसार इस साल के लोकसभा चुनाव में इन पार्टियों का कुल ख़र्चा 1 लाख करोड़ रुपए हुआ (यह तो दर्ज़ आँकड़ा है, असल ख़र्चा लाज़िमी ही इससे कहीं अधिक होगा)। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में केवल भाजपा का दर्ज़ करवाया गया ख़र्चा 19,264 करोड़ रुपए और कांग्रेस का ख़र्च 820 करोड़ रुपए था।
रिपोर्ट के अनुसार 35 फ़ीसदी ख़र्चा चुनाव प्रचार में और 25 प्रतिशत अवैध रूप में मतदाताओं में बाँटने (पैसे, शराब आदि बाँटकर) में ख़र्च किए गए। इसी तरह संयुक्त राज्य अमेरिका में हुए राष्ट्रपति और सीनेट चुनावों में कुल ख़र्चा 16 अरब अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान लगाया गया है (इसका सटीक आँकड़ा अभी तक सामने नहीं आया)।
इन चुनावों में पूँजीपतियों के विभिन्न गुट अलग-अलग पूँजीवादी राजनीतिक पार्टियों को चंदा देते हैं। यही वह मुख्य स्रोत है, जहाँ से ये शासक वर्गीय पार्टियाँ अपने विज्ञापन, जनता में प्रचार के ज़रिए झूठे वादे करने, जातियों/तबक़ों/नसलों/राष्ट्रीयताओं के नाम पर लोगों को बाँटने पर खुलेआम पैसा या शराब बाँटने के लिए चंदा हासिल करती हैं। पूँजीपतियों से हासिल ऐसे ही चंदों की बदौलत साल 2014 से भारत सरकार पर भाजपा का क़ब्ज़ा है।
भारत के इज़ारेदार पूँजीपतियों के बड़े हिस्से की मेहरबानी इस समय भाजपा पर है। सीधी बात है कि इस तरह सत्ता हथियाने वाली राजनीतिक पार्टियाँ आख़िर सत्ता में आकर अपने मालिकों के साथ धोखा कैसे कर सकती हैं? सत्ता में आने के बाद ये बहुत तेज़ी से पूँजीपतियों (ख़ासकर अपने गुट के) के पक्ष की नीतियाँ लागू करते हुए उनकी सेवा में लगी रहती हैं।
चुनावों पर इन पार्टियों द्वारा उड़ाए जाने वाले अंधाधुंध पैसे के संदर्भ में भाजपा की ‘एक देश एक चुनाव’ की नीति पर भी थोड़ी बात करनी ज़रूरी है। मोदी सरकार अपनी केंद्रीयकरण की नीति को पूरा करने के लिए ‘एक देश एक चुनाव’ संबंधी क़ानून लाने की तैयारी में है।
इस प्रस्तावित क़ानून के पीछे चुनावों में होने वाले सरकारी ख़र्चे की बरबादी घटाने का कुतर्क दिया जा रहा है। असल में यह ख़र्चा राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए जाने वाले ख़र्चों से बहुत ही कम है और इस क़ानून का मक़सद राज्यों की विधानसभाओं को नगर पालिकाओं की हैसीयत तक गिराना है।
यानी ‘एक देश एक चुनाव’ का असल मक़सद है इज़ारेदार पूँजीपतियों के हित में भारत को एक बाज़ार के रूप में इकट्ठा रखना और इसके लिए भारत में मौजूद राष्ट्रीयताओं के अधिकारों पर डाका डालना। इसके लिए कम ख़र्चे के कुतर्क गढ़े जा रहे हैं। एक ओर चुनावों में ज़्यादा ख़र्चे पर घड़ियाली आँसू बहाए जाते हैं और दूसरी ओर अपने चुनाव ख़र्चों का विवरण और स्रोतों पर पर्दा डालने के लिए भाजपा जैसी पार्टियाँ तत्पर रहती हैं और चुनावी बॉण्ड जैसी योजनाएँ लेकर आती हैं।
जहाँ एक ओर ये राजनीतिक पार्टियाँ करोड़ों-अरबों रुपए चुनावों में उड़ा देती हैं, वहीं दूसरी ओर लाखों लोग इलाज़ और अन्य बुनियादी सुविधाओं के अभाव में मरने और तड़पने के लिए मजबूर हैं। होना तो यह चाहिए कि यह पैसा लोगों को बुनियादी सुविधाएँ देने के लिए ख़र्च किया जाए। उनके लिए सरकारी अस्पताल, स्कूल, कॉलेज खोले जाएँ, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत किया जाए, ताकि उनकी जीवन स्तर थोड़ा बेहतर हो सकें, लेकिन आज सभी राजनीतिक पार्टियों ने जनता की बुनियादी समस्याओं को हल करने से अपना हाथ खींच लिया है तथा वे उन कॉरपोरेट घरानों के हितों के लिए ही काम कर रहे हैं, जिससे उन्हें भारी पैमाने पर धनराशि मिल रही है।
देश के बहुत से आदिवासी इलाक़ों विशेष रूप से; ओडिशा, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में देसी-विदेशी कॉरपोरेट वहाँ के संसाधनों की खुली लूट कर रहे हैं। वहाँ पर सदियों से रह रहे आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन से महरूम करके खदेड़ा जा रहा है, लेकिन देश भर में इस तरह के दमन पर सभी राजनीतिक दल चुप्पी साधे हुए हैं, क्योंकि कॉरपोरेट के एजेंडे के अनुसार काम करना उनकी मजबूरी बन जाती है।
इसका कारण यह है कि इन सभी दलों को कॉरपोरेट घरानों से पर्याप्त धनराशि चंदे के रूप में मिलती है। जब तक चुनाव में कॉरपोरेट के चंदे और उनके हस्तक्षेप को रोका नहीं जाएगा, तब तक न चुनाव की शुचिता बनी रह सकती है और न ही लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा।