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हताशा:अब चुनाव आयोग के सहारे मोदी जी!

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महेंद्र मिश्र

आखिर जिस बात की आशंका थी चुनाव के आखिरी दौर में वह बिल्कुल सामने होती दिख रही है। पीएम मोदी और अमित शाह के बारे में आमतौर पर यह कहा जाता रहा है कि ये आसानी से कुर्सी छोड़ने वाले नहीं हैं। यह बात अब बिल्कुल आईने की तरह साफ हो चुकी है। चुनावों में बीजेपी की हालत का अंदाजा पीएम मोदी के भाषणों और उसमें उनके द्वारा दिए जाने वाले ऊल-जुलूल बयानों से लगाया जा सकता है।

युद्ध के मोर्चे की अगुआई करने वाला कमांडर किस तरह से बहकी-बहकी बातें कर रहा है उसको पूरी जनता देख रही है। यह कुछ और नहीं बल्कि उनकी हताशा की निशानी है। कहीं वह विपक्ष को टोंटी चोर बता रहे हैं तो कहीं भैंस चोर। देश के भविष्य को निर्धारित करने वाले इतने महत्वपूर्ण चुनाव में पीएम जैसी शख्सियत अगर चुनाव प्रचार को पार्षदी के स्तर पर लाकर खड़ा कर दे तो समझा जा सकता है कि हताशा किस स्तर तक पहुंच गयी है।

यह पीएम मोदी का दिवालियापन है या फिर अपनी ज़ुबान और दिमाग पर नियंत्रण न रख पाने की मजबूरी इसके बारे में कुछ भी कह पाना मुश्किल है। लेकिन इससे एक बात तो तय है कि विरोधी तो विरोधी खुद पीएम मोदी के समर्थकों को भी यह भाषा रास नहीं आ रही है। दरअसल जनता के स्तर पर मोदी को खारिज किया जा चुका है।

यह बात उनके पक्ष में मीडिया में अभियान चलाने वाले प्रशांत किशोर तक मान रहे हैं। हालांकि वह मोदी के प्रभाव के कम होने की बात कह रहे हैं लेकिन जमीनी स्तर पर यह उनके खारिज होने तक जाता है। बिहार की यात्रा से लौटे इन पंक्तियों का लेखक डंके की चोट पर यह बात कह सकता है कि जनता के एक बड़े हिस्से में केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ बड़ा रोष है।

और उसकी आंच जनता के बीच चुनाव प्रचार में जा रहे इनके प्रत्याशी जगह-जगह महसूस कर रहे होंगे। इसकी एक झलक तो खुद इन पंक्तियों के लेखक ने अपनी आंखों से देखी जब पाटलिपुत्र क्षेत्र के अकबरपुर में न केवल जाति और धर्म की सीमाओं को तोड़कर जनता एकजुट दिखी बल्कि उसके कुछ लोगों ने बताया कि इलाके में पिछली बार बीजेपी से चुनाव जीते राम कृपाल यादव गाड़ियों के लश्कर के साथ आये लेकिन किसी ने उनको पूछा तक नहीं।

कोडरमा में बीजेपी की प्रत्याशी अन्नपूर्णा को कई जगहों पर जनता ने कुर्सी दिया और उस पर बैठाकर उनको जलील करते हुए कहा कि आप तो इस स्वागत के भी काबिल नहीं हैं। लेकिन चूंकि मेहमान हैं इसलिए बैठने के लिए कुर्सी दे दी गयी।

और कई जगहों पर तो कुर्सी देने के बाद उनके सामने से उसे खींच लिया गया और अपमानित कर चलता कर दिया गया। जमीनी स्तर पर रोजी-रोटी-रोजगार और महंगाई का सवाल प्रमुख मुद्दा बन गया है। जनता है कि वह पेट की आग बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। लिहाजा उसको लगता है कि अब मोदी के हटने के बाद ही उसे कोई राहत मिलेगी।

उसे किसी वैकल्पिक प्लेटफार्म और नेता की तलाश भी नहीं है। उसे लगता है कि मोदी सरकार का हटना ही उसके लिए एक बड़ी राहत साबित होगी। उसका तो यहां तक मानना है कि विकल्प चाहे जो हो वह इससे बेहतर ही होगा। अगर जनता इस निष्कर्ष पर पहुंच जाए तो वैकल्पिक पार्टी, वैकल्पिक चेहरे और वैकल्पिक सरकार की बात बेमानी हो जाती है।

शायद नरेंद्र मोदी इस बात को समझ गए हैं। और समझे भी क्यों न? जो जनता उनकी सभाओं में पलक पांवड़े बिछाए रहती थी। और उनके पहुंचते ही मोदी-मोदी के नारों से आसमान गुंजायमान हो जाता था। वह सब कुछ अब कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है। मास लीडर के तौर पर मोदी इस बात को अच्छे से जान रहे हैं। किराए की भीड़ से न तो वह उत्साह पैदा हो रहा है। और न ही कोई पक्ष में माहौल बनता दिख रहा है। मुख्य धारा का मीडिया पहले से ही अपनी साख खो चुका है।

लिहाजा उसके प्रचार का तो कोई मतलब ही नहीं है। सोशल मीडिया तक पर मोदी सरकार को डिफेंड करने वालों की संख्या बेहद कम हो गयी है। ऐसे में लड़ाई के हर मोर्चे पर उनको शिकस्त मिलती दिख रही है। ऐसे में उनके पास चुनाव आयोग और ईवीएम का ब्रम्हास्त्र है और इस चुनाव में वह इसी को आजमाने की कोशिश करेंगे यह बात अब दिन के उजाले की तरह साफ हो चुकी है।

पहले दो चरणों और उसके बाद के दो चरणों में हुए कम मतदान ने बीजेपी की चुनावी नाव के डूबने का संकेत दे दिया था। अनायास नहीं पहले दो चरणों के बाद अगले चरण के लिए चुनाव आयोग से 16 दिन का गैप रखवाया गया था। जबकि आम तौर पर एक चरण से दूसरे चरण के बीच एक हफ्ते का ही अंतराल है। दरअसल ऐसा इसलिए किया गया था जिससे पहले दो चरणों के मतदान की स्थिति देखने के बाद अगली रणनीति पर विचार किया जा सके।

अपने सामाजिक आधार की मतदान के प्रति उदासीनता और आरएसएस कैडर तक का पूरी प्रक्रिया से बिलगाव ने यह बता दिया था कि सामान्य वोटिंग के रास्ते से मोदी अब अपनी सरकार नहीं बना सकते हैं। उसके बाद ही मोदी तंत्र ने दूसरे विकल्प पर काम करना शुरू कर दिया था। और वह था चुनाव आयोग के जरिये वोटों की हेरा-फेरी। 

पहले चरण के 12 दिनों बाद चुनाव आयोग द्वारा जारी मतदान के आखिरी एक घंटे के वोटिंग परसेंटेज ने मोदी के इस काम को आसान कर दिया। इस तरह से चार चरणों की वोटिंग में चुनाव आयोग ने आखिरी घंटों के मतदान के हिस्से में 5 फीसदी से लेकर 12 फीसदी तक की बढ़त दिखा दी, जो कुल 1 करोड़ 7 लाख वोट बताए जा रहे हैं।

लेकिन चुनाव आयोग ने इसका बूथवार कोई आंकड़ा नहीं दिया और न ही अलग से कोई विवरण। जब लोगों ने पूछा कि यह आंकड़ा कहां से आया तो उसके पास इसका कोई जवाब नहीं था। हालांकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने याचिका भी दायर हो चुकी है। और उसकी एक सुनवाई भी हो चुकी है।

अगली सुनवाई 24 मई को यानि कल होनी है। लेकिन सुनवाई से पहले ही चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में यह कह दिया है कि बूथवार फार्म नंबर 17सी के जो आंकड़े होते हैं जिन पर मतदान खत्म हो जाने के बाद पार्टी के एजेंट और रिटर्निंग अफसर के संयुक्त हस्ताक्षर होते हैं वैधानिक तौर पर वह उसे सार्वजनिक नहीं कर सकता है। उसका कहना है कि यह पार्टी के पोलिंग एजेंट के पास और स्ट्रांग रूम में मौजूद होता है।

हालांकि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त वाईएस कुरैशी की मानें तो केंद्रीय चुनाव आयोग के पास भी ये आंकड़े 24 घंटे के भीतर आ जाते हैं। अब कोई पूछ सकता है कि चुनाव आयोग इन आंकड़ों को क्यों नहीं अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित कर रहा है। तो इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि आयोग ने जो परसेंटेज में आंकड़े बढ़ाए हैं अगर उनको संख्या में दिया तो उसकी हर बूथ पर पड़ने वाले वोटों से मिलान हो जाएगी और उसमें कृत्रिम तरीके से बढ़ाए गए वोटों की संख्या सामने आ जाएगी। और इस तरह चुनाव आयोग की करतूतों का पर्दाफाश हो जाएगा। जो किसी भी रूप में उसके हक में नहीं होगा।

एक बात जो लोगों को समझनी चाहिए कि बीजेपी के लिए अब इस चुनाव में अंतिम आसरा चुनाव आयोग है। और अपने तरीके से उसने इस पर अपना काम भी करना शुरू कर दिया है। चुनाव के आखिरी घंटों में बढ़ायी गयी 1 करोड़ 7 लाख वोटों की संख्या उसी का हिस्सा है। विपक्ष अगर मोदी सरकार के दबाव और उसकी सह पर होने वाले चुनाव आयोग की हेरा-फेरी को नहीं रोक पाता है तो उसके लिए चुनावी जीत की संभावनाएं बेहद क्षीण हो जाएंगी। 

इस मामले में सिविल सोसाइटी के सदस्य बेहद सतर्क हैं और उन्होंने इसके खिलाफ आने वाले दिनों में अभियान भी चलाने का ऐलान कर दिया है। उन्होंने विपक्ष की सरकार न बनने की स्थिति में सत्याग्रह तक की योजना बना ली है। और जगह-जगह इस पर बैठकें भी शुरू हो गयी हैं। लेकिन विपक्षी दलों और नेताओं को इस मामले में जो पहल करनी चाहिए वह अभी उस रूप में नहीं दिख रही है।

हालांकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक जगह जरूर वोटों से छेड़छाड़ होने पर जिम्मेदार नौकरशाहों को सत्ता में आने पर कड़ी से कड़ी सजा का ऐलान किया है। लेकिन बात इससे बनने वाली नहीं है। इसी तरह से डीएमके भी इस मामले में सतर्क है और उसने बूथवार पड़े वोटों का आंकड़ा भी जुटा लिया है और अपनी पार्टी की वेबसाइट पर प्रकाशित करने जा रहा है।

लेकिन इसके लिए जो संयुक्त प्रयास होना चाहिए वह अभी नहीं दिख रहा है। इस मामले में न केवल पूरे इंडिया गठबंधन को संयुक्त रूप से उतरने की जरूरत है। बल्कि चुनावी सभाओं के हर मौके पर विपक्षी नेताओं को इसे एक मुद्दे के तौर पर पेश करना चाहिए।

इस कड़ी में सबसे पहले तमाम विपक्षी नेताओं को साथ लेकर दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस की जानी चाहिए। और उसमें बूथों पर पड़े वोटों और केंद्रीय चुनाव आयोग के पास मौजूद आंकड़ों के बीच बिल्कुल साम्य हो इसकी गारंटी करवानी चाहिए। अभी तक के चुनाव आयोग के रवैये को देखते हुए अब उस पर भरोसा कर पाना मुश्किल है।

ऐसे में विपक्षी पार्टियों को इस मामले में सीधे सुप्रीम कोर्ट से गुजारिश कर न केवल पूरे मामले को पारदर्शी बनवाना चाहिए बल्कि पूरी मतगणना की प्रक्रिया कैसे सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में संचालित हो इसको भी सुनिश्चित करवाना चाहिए। और अगर किसी तरह से किसी हेराफेरी और छेड़छाड़ की आशंका दिखती है तो सबको सड़क पर उतर कर आंदोलन के लिए तैयार रहना चाहिए।

लोकतंत्र और जनता के मत को हड़पने की जो कोशिश की जा रही है विपक्ष की तरफ से उसका करारा जवाब दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही मोदी सरकार की इस साजिश में शामिल तमाम लोगों को भी यह चेतावनी दी जानी चाहिए कि विपक्ष की सरकार बनने पर उनको किसी भी हालत में बख्शा नहीं जाएगा। क्योंकि यह एक अपराध है। यह लोकतंत्र को न केवल खत्म करने की साजिश है बल्कि जनता के जनादेश का खुला अपहरण है। ऐसे में इस साजिश में शामिल सभी लोग आपराधिक कृत्य के दोषी माने जाएंगे और फिर उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाकर हर तरीके से दंडित करने का प्रयास किया जाएगा।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

जनचौक से साभार

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