अग्नि आलोक

अधर्म का नाश हो जाति का विनाश हो (खंड-1) – (अध्याय-26-28- 30)

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संजय कनौजिया की कलम

        एक काल खंड ऐसा भी था जिसकी विषम प्रस्थितियों ने आम जनमानस की मानसिकता इतनी गहरी जकड़ रखी थी, कि दकियानूसी-पाखंड-अन्धविश्वास से सनी प्रथाओं पर उनका ये कहना, कि सती-प्रथा कभी खत्म ना होगी, बाल विवाह जैसी प्रथा अनंत तक चलती रहेंगीं, विधवा विवाह को मान्यता कभी नहीं मिल सकती, खास-वर्ग को छोड़कर शिक्षा अन्य वर्गों में विभाजित हो नहीं सकती, कभी स्त्रियां भी शिक्षित होंगीं ये एक कोरी कल्पना मात्र है, लेकिन राजा राममोहन राय, अहिल्याबाई, विवेकानंद, ज्योतिराव फूले, सावित्री फूले, पेरियार सहित अन्य और भी महान सुधारकों ने अपने सघन अभियान और जनजागरण कर व अपने अथक प्रयासों से आम जनमानस को जागृत किया और इसी जागरण की बदौलत, आज़ाद हिन्दुस्तान के संविधान में क़ानून बना जिससे स्वस्थ्य समाज के बनने में बल मिला, परन्तु एक नवीन-स्वस्थ्य और उज्जवल समाज  की स्थापना तब ही पूरी होगी जब “जाति का विनाश होगा” और जब जाति का विनाश होगा तब “अधर्म का भी नाश होगा”..!

                     डॉ० लोहिया पहले गैर शूद्र चिंतक थे जिन्होंने अंबेडकर को समझा, सुना, पढ़ा, और उनका नेतृत्व को स्वीकारने का मन बनाया था..लोहिया जाति के विरोध संघर्ष में डॉ० अंबेडकर की परियोजना को आगे ही नहीं बढ़ाया बल्कि अधिक सकल व व्यावहारिक स्वरुप दिया..समाजवादी होते हुए भी लोहिया ने अंबेडकर के तर्क को और आगे ले जाते हुए, समाजवादियों की भ्रांतियों और उनके तर्क में दोषों की पहचान कराई.. यदि अंबेडकर और लोहिया एक साथ चल निकले होते तो देश के काया-कल्प की तस्वीर कुछ और ही होती !

                   ऐसा नहीं की केवल लोहिया ही अंबेडकर से आकर्षित हुए, कांग्रेस से अलग हुए समाजवाद के आर्थिक मामलों पर कांग्रेस और कम्युनिष्टों ने भारी विरोध लोहिया की नीतियों का किया था, तब कांग्रेस और कम्युनिष्ट दोनों विचारधाराओं ने “क्लास” (श्रेणी) पर जोर दिया था, कि दो ही क्लास देश में स्थापित की जा सकतीं है, “अमीरी और गरीबी” जिसपर वर्तमान में दक्षिणपंथी (फासीवादियों) की सत्ता ने अपना रुख बनाया हुआ है..जिसका विरोध डॉ० लोहिया ने किया था..उनका मानना था कि बात केवल क्लास की ही नहीं की जा सकती..जब तक समाज में “Cast” (जाति) है, तब तक आप कास्ट को नहीं भुला सकते..क्लास में एक गरीब तो अमीर बन सकता है, लेकिन कास्ट इंसान का जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती, वो उसके साथ मरने के बाद भी लगी रहती है, और जब तक कास्ट को नहीं तोडा जाएगा तब तलक क्लास की बात बेमानी रहेगी, कास्ट टूट सकती है यदि समाज में “रोटी और बेटी के रिश्ते” को एक कर दिया जाए..बस इन्ही शब्दों की गूँज की अनुगूंज जब अंबेडकर के जहन में आईं तो अंबेडकर भी लोहिया की ओर आकर्षित होते हुए मिलने को बेताब हुए थे..दोनों नेताओं के मध्य पत्राचार तो शुरू हो ही गया था, जिसका जिक्र में इसी खंड-1 के अध्याय 13 और 14 में कर चुका हूँ..डॉ० अंबेडकर-डॉ० लोहिया दोनों ही मानते थे कि “जाति” प्रगति, नैतिकता, प्रजातान्त्रिक, सिद्धांतों और परिवर्तन का नकार है..बात कड़वी और कठोर लिखना चाहूंगा, कि बाद में समाजवादी और अम्बेडकरवादी आंदोलनों ने, इन दोनों महान विचारकों के सिद्धांतों को एक सिक्के के दो रूप में नहीं लिया और यही कारण रहा कि शूद्रों को दो महानायक तो मिले उसके बावजूद शूद्रों का आंदोलन मात्र शूद्रों के तबके के हित साधन का उपकरण बनकर रह गया..आज जो हम बात करते है कि दलित-अति दलित, पिछड़े-अति पिछड़े की, यदि लोग अंबेडकर और लोहिया को साथ लेकर चलते तो ये जातियां आपस में यूँ ना बंटती..इन दोनों नेताओं के बाद, तो मानो चाहे वो राजनैतिक रूप से ही सही लेकिन कार्येकर्ताओं के बीच शून्य खड़ा हो गया..चूँकि देश में अम्बेडकरवादी-समाजवादी विचारक सिपाहियों की कमी नहीं, बस जरुरत है इन सिपाहियों को एक सूत्र में पिरोकर ‘सुधारवाद की दिशा” में ले जाने की, अतः इसी आशा पर एक “गैर राजनैतिक प्रयोग” की जरुरत है..जातियों के कुचक्र में सबसे बड़ी विडम्बना है, कि शूद्रों में अधिक जातिगत समन्वय ना के बराबर है, हक़-अधिकार हेतू सबके अपने-अपने जातिय संगठन स्थापित हो रखें है बल्कि जातिय वैमनस्य आपस में कूट-कूटकर भरा हुआ है, इसीलिए चतुर-चालाक वर्ग इनकी इसी कमजोरी का लाभ उठाता है, चाहे वो सवर्णो का संगठन हों या फिर शूद्रों के ही..केवल सत्ता हासिल कर जाति तोड़ने कि लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती, ना ही जय भीम-जय समाजवाद-जय लोहिया, कहने भर से..और ना ही सवर्ण वर्ग को ही कोसते रहने से..यदि हमे अपने महानायकों के दर्शन को गति देनी है तो हमे एक साथ बैठकर आपस में भाईचारा, मैत्री, सौहार्द, सद्भावना, प्रेम, अपनत्व के पैगाम को कायम करना होगा, हमे दलितों में ही व्याप्त घोर जातिवाद को खत्म करना होगा, हमे पिछड़ों में फैले घोर जातिवाद को खत्म करना होगा, हमें दलित और पिछड़ों के मध्य बनी जातिवादी दिवार को गिराना होगा, हमे उन सवर्ण जातियों को भी साथ लेकर चलना होगा जो जाति के आधार पर ब्राह्मणवाद का शिकार होती आईं हैं..!

                “सवर्ण जाति भी ब्रह्मणवाद की जातिय शिकार” ? जी हाँ, यह भी एक सत्य है..जिससे आज भी दलित और पिछड़ों का एक बहुत बड़ा वर्ग अनभिज्ञ है..इसका स्त्रोत सहित उदाहरण, प्रकडं विद्वान, गांधी अनुयायी, संविधान विशेषज्ञ, और लोहिया अनुरागी, राजनेता एवं विचारक श्री कनक तिवारी जी, द्वारा लिखित पुस्तक “विवेकानंद-धर्म में मनुष्य या मनुष्य में धर्म” इस पुस्तक को समाजवादी समागम द्वारा, समाजवादी नेता, चिंतक व पूर्व मंत्री मध्य प्रदेश सरकार, “श्री रमाशंकर सिंह जी”, ने प्रकाशित करवाया है..पुस्तक के एक पैरा में दर्शाया गया है कि विवेकानंद के छोटे भाई डॉ० भूपेंद्रनाथ दत्त ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया कि स्वयं विवेकानंद जातिप्रथा के अभिशाप के सामाजिक शिकार थे..कायस्थ परिवार में जन्म लेने के कारण उन्हें ब्राह्मण पुरोहित शूद्र कहते उनकी कठोर निंदा भी करते थे…

  (खंड-1)-(अध्याय-28)

मासूम भोले-भाले दलितों से ताली बजवाकर और फिर हाँथ झाड़कर चलता बनता है..लेकिन क्या इस तरह के उद्धघोषों से या अपनी भाषण शैली के अंदाज़ के ताली बजवाने से दलित उद्धार हो पायेगा..? सर्वप्रथम सबसे ज्यादा जरुरी यह आत्मसात करने की है, कि दलित वर्ग अपनी-अपनी कमियों को समझते हुए, पहले उसमे सुधार लाए..दलित जातियां अपनी-अपनी जातियों को लेकर ही अपने झंडे बुलंद ना करें..बल्कि दलित वर्गों की सभी जातियों को जैसे जाटव, बाल्मीकि, धोबी, खटीक, सासी, पासी, दुषाद आदि-आदि जातियों के लोग, पिछड़ी जातियों के सभी जाति वर्गों एवं अल्पसंख्यक वर्गों के, जो जब तीनो मिलते है तो देश की कुल आबादी का “85 प्रतिशत” होने की पहचान कराते है..एक साथ एक झंडे के तले और एक नेतृत्व के तले..चाहे नेतृत्वकर्त्ता दलित वर्ग का हो या पिछड़े वर्ग का उसके नेतृत्व को लेकर सामाजिक स्तर पर “राष्ट्रव्यापी समाज सुधार अभियान” चलाने की जरुरत है..यानी 85 प्रतिशत को एक “समाज सुधारक” की जरुरत है..ताकि एक ऐसा वातावरण तैयार किया जा सके “जहाँ देश की 85 प्रतिशत जनता राजनीति की दिशा तय करे और नेता उसका अनुसरण करने को विवश हो जाए”..वर्तमान राजनीति के तमाम विपक्षी दल सत्ताधीशों से अपनी लड़ाई महंगाई-बेरोजगारी, गिरती अर्थव्यवस्था, अपराध, भ्रष्ट्राचार, सी.ए.ए तथा एन.आर.सी, राफेल घोटाला, जातिगत जनगणना, निजीकरण, किसान-मजदूर, नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, जी.एस.टी, कालाबाज़ारी, ई.डी. और सी.बी.आईं का दुरूपयोग, आदि इत्यादि की लड़ते रहें..वह राजनैतिक मुद्दें हैं, और विपक्ष अपने कर्त्तव्य का पालन करता रहे..लेकिन साथ-साथ एक सामाजिक अभियान भी चलाना अब वक्त की मांग है..जिसे एक समाज सुधारक के नेतृत्व में ही चलाया जा सकता है..जहाँ पूरे देश के जिलों के गाँव-कस्बो शहरों में दलित-पिछड़ों व अल्पसंख्यकों की बस्तियों में, 20-25-50 विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग एक साथ बैठकर गंभीर स्वस्थ्य चर्चा-चिंतन, मनन करें एक दूसरे को स्वयं अपने ही घर से कोई रोटी तो कोई दाल-सब्जी या खिचड़ी बनवाकर लाये और मिलजुलकर एकजुट होकर..सामूहिक होकर खाते-खाते आपस में अपने-अपने कबीलों और कबीलों के स्थानांतरण, गांव, इतिहास, अपने-अपने पूर्वजों का देश के प्रति योगदान (आर्थिक सहयोग) भी, या प्रशासनिक-सामाजिक उत्पीड़न, गौत्र, संस्कृति, रीति-रिवाज, खानपान आदि मामलों पर खूब चर्चा करें..क्यों और कैसे लोग मैला उठाने के काम में लगे, कोई कैसे जानवरों के चमड़े उतारकर जूते-चप्पल बनाने लगे, कोई कैसे कपडे धोने और कोई रंगने लगा, कौन जिम्मेवार था कब से ?..ये परंपरा कब शुरू हुई, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक लाभों से संख्या के आधार पर कैसे वंचित रहे, संख्या के आधार पर ही जाति का छोटा-बड़ा होने का मानक कैसे बना, और ‘रोटी और बेटी के रिश्ते” का क्या महत्व है ये क्यों जरुरी है, क्यों धर्मांतरण की ओर लोग आकर्षित या विवश होते हैं..इन सभी विषयों पर गंभीर चर्चा हो कुछ सांस्कृतिक उत्सवों को बड़े ही उत्साह सहित मनाएं..डॉ० अंबेडकर की चर्चा हो, डॉ० लोहिया की चर्चा हो देश के सभी क्रांतिकारियों की चर्चा हो, समाजवाद का सिद्धांत शोषितों के लिए क्या कहता है, क्यों गांधी मार्ग ही श्रेस्ठ मार्ग है..इन सभी विषयों पर सब चर्चा कर अपने जातिय वैमनष्य को भूलना शुरू करें और धर्म के पाखण्ड से दूर रहें..ऐसी सामाजिक चेतना जगाएं..जब यह अभियान जैसे जैसे आगे बढ़ेगा तब और भी बहुत से प्रगतिशील सुझाब, इस दिशा कि और बढ़ने को आने शुरू होंगे, लेकिन यह भी तय है की जाति की जड़ें इतनी गहरा गईं है कि उसका टूटना असंभव प्रतीत होता है..परन्तु साथ बैठकर वैमनष्य भुलाकर इस ओर कदम बढ़ाया जाए तो “जाति जोड़ी” अवश्य जा सकती है और जब जाति जुड़ना जुड़ना शुरू होगी, तब बेटी के रिश्ते के सम्बन्ध भी आसानी से बनने लगेंगे, तब जाति आधारित ऊंच-नीच की दीवार गिरेगी, भाईचारा-प्रेम-सौहार्द- सद्धभावना, अपनत्व बढ़ेगा, नफरत का खात्मा होगा, अधर्म का नाश होगा और तब डॉ० अंबेडकर और डॉ० लोहिया के जो छूटे अधूरे एजेण्डे है, वह पूर्ण होने लगेंगे..यदि एक समाज सुधारक के नेतृत्व में सभी वर्ग संगठित होकर समाज के “सुधार का संकल्प” लें तो यह संभव होगा..!
अब वह वक्त आ गया है कि इस अभियान को जोरदार-असरदार-धारदार तथा प्रभावशाली ढंग से वैज्ञानिक, बुद्दिजीवी, साहित्यकारों कलाकारों, कवि, शायर, नाटक, नुक्कड़नाटक, कठपुतली, गीत-संगीत, फिल्म, खिलाडी, पत्रकार आदि आदि सभी क्षेत्रों के लोगों को गंभीर होकर आगे आकर राष्ट्रहित व जनहित हेतू इस गंभीर समस्या पर एकजुट होकर जनता के मध्य आने की शुरुआत करें, और इसे साकार करते हुए..राष्ट्रव्यापी सामाजिक अभियान बनाने की, हर नागरिक को जागरूक करने हेतू गंभीर जागरण चलाने की ओर अग्रसर हों, तभी हम अपने आदर्शों के दिखाए मार्ग पर चलते प्रतीत होंगे..इसके लिए जरुरत है एक “समाज सुधारक” की..साथ ही यह समझना भी जरुरी है कि हमारा देश भारत एक अनोखा देश है, इसके स्वस्थ्य लोकतंत्र प्रणाली की दुनियां भर में खूब चर्चा भी होती आई है..देश के समाज समुदायों में, विविध और विभिन्न प्रकार के लोग रहते हैं..वे विभिन्न धर्म-जाति-रंग-लिंग-भाषा, और विश्वासों को मानने वाले हैं, और उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वे समाज से सामंजस्य बिठायें और बिना किसी भेदभाव के साथ रहें..आदर्श स्थिति तो तब मानी जायेगी जब समाज के सभी वर्गों में, बराबरी-आजादी और भाईचारा हो..हालाँकि आज सभी जानते हैं कि देश में सामाजिक बुराई के कारक क्या हैं, “लेकिन कौन सामाजिक सुधारक हो सकता है” ?..यह सवालिया निशान है..सही मायने में एक समाज सुधारक वही व्यक्ति माना जा सकता है, जो मानवता और इंसानियत के प्रति किसी भी प्रकार से चिंतित हो, जो अच्छाई के लिए माहौल में बदलाव लाना चाहता हो..वह व्यक्ति जिसके पास प्रबुद्ध वैचारिक प्रक्रिया हो..वह व्यक्ति जो किसी कमजोर वर्ग के लोगों की पीड़ा को सहन नहीं कर सकता हो और अपने आदर्शों द्वारा दिखाए मार्ग अनुसार देश और देशवासियों की सेवा को ही अपना कर्त्तव्य मानता हो….

(खंड-1)-(अध्याय-30

“सामाजिक आंदोलन” और “सामाजिक अभियान” यूँ तो एक दूसरे के प्रयाय है..लेकिन जिस तरह से में देखता हूँ, मुझे लगता है कि “आंदोलन”, इतिहास में महान महत्व की कुछ घटनाओं से सम्बंधित ही होता है..यह किसी भी सांस्कृतिक, सामाजिक या राजनीतिक परिवर्तन, चाहे वह संरचनात्मक हो या दार्शनिक, एक समान विचारधारा वाले लोगों का सामूहिक संघर्ष होता है..आंदोलन अक्सर विचारों में कट्टरपंथी और मौलिक परिवर्तन की मांग करता है, जिसमे काफी समय लगता है, और सबसे अधिक संभावना होती है कि यह अधिकतर क्रूर अधिकारियों के खिलाफ होता है..ऐसे आंदोलन हमे छोटे-छोटे रूप में अक्सर देखने और सुनने को मिलते भी हैं..वर्तमान में दलित वर्ग से जुडी एक अति-महत्वपूर्ण जाति “बाल्मीकि समाज” लगातार पिछले कई वर्षों से सामाजिक संगठनों या अपनी-अपनी यूनियनों के माध्यम से “ठेकेदारी व्यवस्था” के खिलाफ दिल्ली में आंदोलनरत हैं, लेकिन उनकी सुनवाई कहीं भी नहीं हो रही, सिवाए झूठे आश्वासनों के..अन्य और भी आंदोलनों के बारे में प्रकाश डालूं..में यह बताना चाहूंगा, कि आंदोलनों के परिणाम बलिदान से भरे हुए होते हैं..परन्तु ”अभियान” कुछ लोगों द्वारा निश्चित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कार्येवाई का एक संगठित पाठ्यक्रम होता है..इसमें लोग समान विचारधारा वाले हो सकते हैं या वे किसी ऐसे समहू से सम्बंधित हो सकते हैं, जिसमे बहुमत द्वारा उस अभियान का हिस्सा बनने का फैसला किया हो..अभियान समय आने पर कम से कम एक घंटे का परन्तु लम्बी अवधि तक नित्य चलने वाला होता है और ज्यादातर व्यवहार में हिंसक और बलिदानी नहीं होता..एक अभियान को एक आंदोलन कहा जा सकता है, यदि वह समाज में उस तरह का महत्व रखता है..लेकिन एक आंदोलन, एक बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आयोजित कई अभियानों का परिणाम होता है..!
अभियान के दो क्षेत्र जाने गए हैं एक “गैर सरकारी” जिसका जिक्र में उक्त लिखित वाक्यों में कर चुका हूँ और दूसरा “सरकारी”..जिसे वर्तमान में भारत सरकार “स्वच्छ भारत अभियान” से जोड़कर चला रही है..एक अभियान और है, “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” इसी तरह के और भी अभियान हैं..जिसे अपने-अपने कार्येकालों में कई रूपों में पिछली सरकारें भी चलाती आती रहीं थीं..अभियान का एक चेहरा सरकारों ने और तैयार कर रखा है जिसके अंतरगर्त वह अवैध निर्माण, अवैध कब्ज़ों और भी अन्य बहुत से गैर-कानूनी कार्यों को सरकारी कार्येवाई ना बताकर, केवल एक अभियान कह कर चलाते आते है..अक्सर देखने में आया है कि आंदोलन, असफल ही होते दिखे हैं और अभियान एक अवधि के बाद सफलता प्राप्त करते रहें हैं..सती-प्रथा, बाल-विवाह, शिक्षा का अधिकार, विधवा-विवाह आदि इत्यादि किसी आंदोलन के हिस्से नहीं थे, बल्कि एक अभियान के परिणाम थे..जिन पर समय-समय पर कानून बने..मेरा अपना मानना है कि आंदोलन वही सफल हुए या होते है, जिनमे राजनीतिक हस्तक्षेप रहा हो और राजनीतिक हस्ताक्षरों की भागेदारी रही हो..हम स्वतंत्रता आंदोलन को इससे जोड़कर देख सकते है..वर्ष 1857 से शुरू हुआ स्वतंत्रता संग्राम प्रथम व द्वित्य विश्व युद्ध के बाद से इसलिए प्रभावशाली हो गया था कि उस आंदोलन की सोच, राजनीतिक स्वरुप ले चुकी थी..देश की आज़ादी के बाद, परिवर्तन को लेकर भ्रष्ट्राचार और अन्य उस वक्त के ज्वलंत मुद्दों सहित, वर्ष 1974 में एक राष्ट्रव्यापी छात्र आंदोलन “लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी” के नेतृत्व में इसलिए सफल हुआ कि उसमे विपक्ष की तमाम राजनीतिक दलों की भागेदारी थी..इस आंदोलन के असर ने इंद्रा गांधी का तख्ता ही नहीं पल्टा, बल्कि कांग्रेस को पहली बार सत्ता से विमुख किया..वर्ष 1987-88 में बोफोर्स को लेकर देश भर में, विपक्ष विरोध के राजनीतिक प्रचंड-प्रदर्शन हुए लेकिन उसे आंदोलन की संज्ञा देना मेरी नज़र में उचित नहीं..वर्ष 1990 में मंडल के विरोध मे कट्टरपंथी ब्राह्मणवादियों ने युवाओं को उकसाकर, बिना किसी नेतृत्व के, देश भर में उपद्रव मचवाया, जिसमे देश की कुल आबादी का 85 प्रतिशत लोगों, दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यकों की कोई भागेदारी नहीं थी, बल्कि वैचारिक सवर्णो ने भी उस उपद्रव से दूरी बनाये रखी और वह उपद्रव कुछ दिनों बाद शांत हो गया..भले ही कुछ लोग उसे आंदोलन समझते हों, लेकिन वह केवल एक उपद्रव ही था..इसके फ़ौरन बाद वर्ष 1990-91 में, देश में एक नए आंदोलन का जन्म हुआ और वह “राम जन्म भूमि आंदोलन” कहलाया, आरएसएस सहित तमाम हिन्दूवादी संगठनो की मदद से भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था, और इस आंदोलन में भी राजनीतिक हस्तक्षेप था..अतः यह आंदोलन ने भी देश की राजनीतिक दशा बदलने में अहम भूमिका निभाई..इसके बाद वर्ष 2011 में दिल्ली के जंतर-मंतर से “जन-लोकपाल” जैसे मुद्दे की मांग को लेकर “समाज सेवी, अन्ना हज़ारे” के नेतृत्व में आंदोलन हुआ..चूँकि इस आंदोलन में भी किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप या हस्ताक्षरों की गुंजाईश नहीं थी..अतः यह लम्बा चला और तमाम प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मदद से खूब प्रचारित भी हुआ परन्तु राष्ट्रव्यापी आंदोलन ना बन सका और बाद में वर्ष 2013 में इस आंदोलनों के मैनेजरों ने आपस में सांठ-गाँठ कर एक राजनीतिक दल बना लिया और निर्भया काण्ड के बलात्कारों को फांसी दो जैसी मांग को लेकर प्रचंड प्रदर्शन कर तथा और अन्य भ्रष्ट्राचार से जुड़े सच्चे-झूठे मुद्दों को हवा देकर दिल्ली राज्य की सत्ता हथिया ली..बाद में “वैचारिक सोच के समाजवादी” लोगों को पार्टी से बाहर कर दिया..कुल मिलाकर इस आंदोलन का और नेतृत्व का बहुत बुरा हश्र हुआ क्योकि इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था..बाद में वर्ष 2014 के बाद मजदूर-किसान-युवा-छात्र आदि अत्यधिक वर्ग के लोग, प्रदर्शन और प्रचंड प्रदर्शन आदि एक या दो दिनों तक करते और फिर ज्ञापन और सरकार को चेतावनी देकर वापस चले जाते रहे..लेकिन वर्ष 2020-21, में किसानो का आंदोलन, लगातार एक वर्ष से भी कुछ दिन अधिक चला, जिसमे किसानो ने गर्मी-सर्दी-बरसात तथा कोरोना जैसी भयंकर बीमारी तक की परवाह नहीं करी और अडिग रहे परन्तु किसी भी राजनीतिक हस्तक्षेप और हस्ताक्षर के बिना यह आंदोलन भी….

धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है)


	
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