अग्नि आलोक

अधर्म का नाश हो जाति का विनाश हो (खंड-1)-(अध्याय-27-29)

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“संजय कनौजिया की कलम”✍️

भारत लौटने पर विवेकानंद के सम्मान में आयोजित अभिनन्दन समारोह की अध्यक्षता करते राजा पियारीमोहन मुखोपाध्याय ने यह शक जाहिर किया था कि एक कायस्थ होने के नाते विवेकानंद को संन्यासी मानने की मंजूरी कैसे दी जा सकती है..अभिनन्दन समिति के सदस्य प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री, राष्ट्रवादी और कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट के जज सर गुरुदास बनर्जी से अध्यक्षता करने का अनुरोध करने गए थे..गुरुदास बनर्जी ने दो टूक इंकार किया..अलबत्ता आयोजकों को चेतावनी के स्वर में कहा कि इसी आधार पर यदि आज कोई हिन्दू राजा देश में होता तो जाति के नियम को तोड़ने के कारण विवेकानंद को फांसी पर लटका देता.. विवेकानद की मृत्यु के बाद हुई सभा में उस वक्त जज ने फिर से अध्यक्षता करने से इंकार कर दिया था..”यह भी इतिहास का सच है”..इस अपमान का ब्यौरा विवेकानंद ने भी कई बार उल्लेखित किया है कि एक नीची जाति का व्यक्ति ब्राह्मणोचित साधू बनने की जुर्रत कैसे कर सकता है..!
उक्त उदहारण से यह सिद्ध होता है कि दलित हो पिछड़ा हो या फिर सवर्णो में कोई अन्य वर्ग का, यदि वह ब्राह्मणवादियों द्वारा तैयार किये गए नियम, व्यवस्थाओं की प्रक्रियाओं के विपरीत जाने का उल्लंघन करते हुए सिद्ध हुआ, तो उसको ब्राह्मण-कोप झेलना ही पड़ेगा..पूर्व प्रधानमंत्री “श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी” तो क्षत्रिय थे, वह ब्राह्मण कोप के भाजन कैसे बने ?..क्योकिं उन्होंने नीची जातियों के पिछड़े समुदाय के लोगो के लिए “मंडल-आयोग” की सिफारशों को मंजूरी दे दी थी..इसबात को लेकर ब्राह्मणवादियों ने हाहाकार मचाकर पूरे देश को, आग में झोंक दिया था..कितने ही नौजवानों ने जलकर आत्मदाह तक कर ली थी, यह तो सर्वविदित है..खूनी वी. पी सिंह, खप्परधारी वी.पी सिंह, युवाओं का हत्यारा वी. पी सिंह आदि ना जाने कितने तीखे-तीखे अल्फ़ाज़ों से देश के प्रधानमंत्री को बदनाम किया जा रहा था..इतिहास इस प्रकरण को कैसे भूल जाएगा ?..दूसरे बड़े नेता, पिछड़ी जाति में जन्में, बेजुबानो की आवाज़, दलित-पिछड़ों अल्पसंख्यकों की आन-बान-शान, सामाजिक न्याय व समता के रक्षक, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री, देश की सबसे बड़ी संस्था भारतीय रेल जो, भाजपा की अटल सरकार के दौरान इस स्थिति में पहुँच गई थी, कि वह निजी हांथों में बिकने को तैयार हो चली थी..जिसे “श्री लालू प्रसाद यादव जी” ने रेल मंत्री बनते ही उसे बचाया ही नहीं, बल्कि 90 हज़ार करोड़ रुपए के मुनाफ़े पर ला खड़ा करने वाले इस व्यक्तित्व पर जुल्मो-सितम की इतनी हद कर दी गई है..कि एक तरफ लोग ब्राह्मणवाद के क्रूर चेहरें को देखते है तो दूसरी तरफ लालू यादव की हिम्मत को देखते हैं..लालू जी की इसी हिम्मत ने क्रांतिकारियों द्वारा किये जाने वाले उद्धघोष को चरितार्थ कर डाला कि “जोर है कितना दमन में तेरे, देख लिया है देखेंगे-जगह है कितनी जेल में तेरे, देख लिया है देखेंगे”..लेकिन लालू जी, इन फासीवादियों के आगे झुके नहीं, टूटे नहीं..उसी तरह आज भी अडिग हैं, जैसे राम मंदिर आंदोलन राम-रथ यात्रा को लगाम देकर, आडवाणी को जेल में डालते वक्त रहे..एक वक्त था जब केवल लालू जी ही इनके राजनीतिक प्रतिशोध के षड्यंत्र के शिकार हुआ करते थे..अब तो लालू जी सहित सम्पूर्ण विपक्ष इनके “ई. डी और सी. बी. आई” के षड्यंत्र का शिकार हो रखा है..यह अधर्म नहीं तो क्या है..?
यह भारत देश का दुर्भाग्य है कि देश की कुल आबादी का मात्र 4 प्रतिशत लोगो का समुदाय, 135 करोड़ लोगो को अपने मनमाने ढंग से संचालित करता है..क्या ऐसे सामाजिक न्याय होना संभव है..? क्या ऐसे हो पाएगी समता मूलक समाज की स्थापना..? इसका कारण है यह है कि देश का त्रस्त समाज, डॉ० अंबेडकर और डॉ० लोहिया के सिद्धांत पर चलने की बात तो करता है परन्तु त्रस्त समाज अनुसरण वही करता है..जो दिशा ब्राह्मणवादियों द्वारा, धर्म के पाखण्ड के आधार पर जाति के ऊंच-नीच के आधार पर लोगो के मस्तिक्ष में गहरी बिठा दी गई हैं..त्रस्त समाज ब्राह्मणवादियों के कुचक्र से बाहर निकलना तो चाहता है, लेकिन विवश है..उनकी विवशता को समझा भी जा सकता..डॉ० अंबेडकर के बाद, जो दलित नेता मिले उन्होंने बाबा साहब की भांति ईमानदारी से, कोई भी काम नहीं किया..डॉ० अंबेडकर के कुछ अधूरे काम, जिन्हे दलित नेताओं को सर्वप्रथम पूरा करना चाहिए था वह आज भी अधूरे ही हैं..इसका कारण यह है कि राजनीतिक रूप से नेता, चाहे वह सवर्ण वर्ग का रहा हो या शूद्रों का ही, वह जो कह देता था भोली जनता उसका अनुशरण करती रही और बाद में पछताने के आलावा कुछ ना बचा..डॉ० अंबेडकर का वह सूत्र जिसमे शूद्रों का ब्राह्मणवाद से मुक्ति पाने का सन्देश छुपा है, “शिक्षित बनो-संगठित हो-संघर्ष करो”..हमारा भोला-भाला दलित समाज संघर्ष के लायक तो बन गया..लेकिन संगठित छोटे-छोटे या एक-दो किसी बड़े संगठन से जबकि उनकी अपनी संख्या के अनुपात अनुसार समझें, तो वह प्रतिशत भी ना के बराबर ही रहता आया है..शिक्षा को वह केवल नौकरी पाने तक ही ज्यादा सीमित रख सका..जबकि शिक्षित बनो का एक अर्थ कुछ यूँ भी निकाला जा सकता है कि अक्षर ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त, डॉ० अंबेडकर द्वारा लिखित ढाई सौ से भी अधिक पुस्तकों में से कम से कम, कोई पांच पुस्तकों का अध्ययन कर शिक्षित तो बनो..और फिर संविधान को भी पढ़ो..तब समझ आता कि डॉ० अंबेडकर दलित-पिछड़े समाज के लिए क्या क्या छोड़ गए और उनकी समस्या का निवारण कुछ हद तक दलित वर्ग स्वयं संघर्ष कर किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं..जो पढ़ गया वह दलित वर्गों का नेता बन गया.. जिसने पढ़ने में देर लगाईं उसने अपनी-अपनी जाति के सामाजिक संगठन बना लिए और जातियों में संगठित होने के बजाए असंगठित हो कर “जय भीम” और “जब तक सूरज-चाँद रहेगा बाबा तेरा नाम रहेगा” जैसे नारो का सड़को पर या किसी सभागार में उद्धघोष करता दिखता है या जोर-जोर से चिल्ला चिल्लाकर भाषण करता है….

(खंड-1)-(अध्याय-29)

जो अपने बाद एक ऐसा धरातल छोड़ना चाहता हो, जो पहले से बेहतर हो..वास्तव में एक समाज सुधारक, एक आम इंसान होता है..जो असाधारण तरीके से मानवता की सेवा करता है..भारत सौभाग्यशाली है कि उसके इतिहास में कई असाधारण इंसान हुए, जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाज की बेहतरी और दबे-कुचले वर्ग के लोगों को ऊपर उठाने में लगा दिया..उनमे से में कुछ आदर्शों के नाम लिखना चाहूंगा (1) राजा राममोहन राय (2) ईश्वरचंद विद्यासागर (3) स्वामी विवेकानंद (4) ज्योतिबा फूले (5) महात्मा गांधी (6) डॉ० भीमराव अंबेडकर (7) डॉ० राममनोहर लोहिया (8) एन्नी बेसेंट (9) विनोबा भावे (10) मदर टैरेसा..इनमे “डॉ० अंबेडकर और डॉ० लोहिया” को छोड़ दिया जाए, जिन्होंने सामाजिक आंदोलन एवं सामाजिक अभियान सहित राजनीतिक रूप से भी अपने कार्यों को अंजाम दिया था..बांकी सभी आदर्शों ने राजनीति से दूर होकर सामाजिक अभियान चलाकर मानवता के काम आए थे, और इतिहास के सुनहरी पन्नों में दर्ज़ हो गए..!
इक्कसवीं सदी के आधुनिक भारत में एक ऐसे “समाज सुधारक” की जरुरत महसूस हो रही है..जिसकी वाणी ओजस्वी हो, वह मृद-भाषी हो, सौम्य हो-सरल हो, सहज हो..वह उच्च शिक्षित हो, राजनीतिक समझ सहित सामाजिक आंदोलनों का लम्बा अनुभव हो..जिसने समय-समय पर शोषितों उपेक्षितों और वंचितों के हक़-अधिकार की आवाज उठाई हो, जो छात्रों-युवाओं व महिलाओं के संघर्ष व अत्याचारों के विरुद्ध सदैव अगली पंक्ति में खड़ा रहा हो, जिसने मजदूरों-किसानो के संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो..जो समझौतावादी ना हो, जिसका लक्ष्य ही जीत हो, जो झुकना ना जानता हो, जो हिम्मत रखता हो, जो अडिग हो, जो आशावादी हो..जो राष्ट्रहित व जनहित हेतू किसी भी तरह की क़ुर्बानी के लिए बेखौफ़ हो, जो अंतरराष्ट्रीय मापदंडों से परिचित हो, जो अल्पसंख्यक वर्गों को साथ लेकर चलने की क्षमता रखता हो, जो अपने महान आदर्शों के द्वारा दिखाई दशा और दिशा के अनुरूप चलता हो, जो चिंतक हो, शोधकर्ता हो, जिसमे दर्शन हो, दूर-दृष्टि हो, जो सुचित हो, निर्मल हो, चरित्रवान हो, जिसके जीवन में कोई दाग ना हो, जिसको परिवार की फिक्र ना हो, जो अपनी वाणी से खून में गर्मी लाने की बजाये, बात को मस्तिक्ष में बिठा देने की कला जानता हो..जो हर वर्ग का चहेता हो..जो शांत प्रवर्ति का हो, अक्रोधी हो, अहिंसावादी हो, जो बुद्ध-गांधी-अंबेडकर-लोहिया के विचारों से ओत-प्रोत हो, जिसने अपने लगातार संघर्ष कर राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं अपनी पहचान बनाई हो, जो उपेक्षित ज़मात का हो, जिसमे आकर्षण हो और आकर्षित कर सकता हो, जो कई भाषाओँ का ज्ञाता हो..जो किसी भी गंभीर विवाद का हिस्सा ना बना हो..जिसके पास समाज को देने के लिए 24 घंटे हों..जो धैर्यवान हो, सहनशील हो..जिसमे सादगी हो, जो सादा भोज प्रेमी हो..जो आधुनिक तकनिकी का जानकार हो..पाखण्ड-अन्धविश्वास से कोसो दूर हो..जो बड़बोला ना हो..जिसका गहना अहंकार ना हो, जो तर्क संगत और तथ्यों द्वारा वैज्ञानिक आधार पर स्रोतों के माध्यम से अपनी बात रखता हो..जो सदैव सत्य बोलता हो और सत्य ही उसका मार्ग हो..जो संविधान का अध्ययनकर्ता हो, जो कानूनी मामलों का जानकार हो..जो संस्कारी हो, जो संस्कृतियों की पहचान रखता हो..जो ग्रामीण पृष्टभूमि से जुड़ा हो, जो शहरवासियों की बुनयादी तख़लीफ़ों को समझता हो..जो भारतीय उत्सवों के महत्व को जानता हो..जो कला और क्रीड़ा की गहराई का जानकार हो..जो साहित्य और संगीत का रुचिकर हो..जिसमे स्नेह-प्रेम-अपनत्व का बोध हो..जो किसी भी तरह के नशों से दूर हो..जो हर धर्म का जानकार हो और सभी धर्मो को महत्व देता हो..जो सोच कथन और करनी को ही महत्व देता हो..दया, क्षमा, पवित्रता और नम्रता, करुणा जिसका आभूषण हो..जो करोडो लोगो की भीड़ में अपने निराले व्यक्तित्व के कारण पहचाना जाता हो, आदि इत्यादि..क्या भारत के एक सौ पैंतीस (135 करोड़) करोड़ की आबादी में उक्त सभी बिंदुओं पर खरा उतरने वाला व्यक्तित्व मिलना मुश्किल है..???..”नहीं” यह संभव है और “देश के तमाम विद्वान इस ओर अपनी तलाश जारी रखें हुए हैं”..यदि सभी विद्वान अपने अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर और राष्ट्रहित में, नव-राष्ट्र निर्माण हेतू अपने-अपने योगदान देने की महत्वकांक्षा को लेकर आगे आएं, तो देश को इक्कसवी सदी का पहला समाज-सुधारक मिल जाएगा..!
इंसान तब बड़ा नहीं होता, जब वह बड़ी-बड़ी बातें करने लग जाए..इंसान तब बड़ा होता है जब वह छोटी से छोटी बात को बिना कहे समझ जाए..कई मनुष्य में अच्छे गुण जन्मजात होते हैं, और कई मनुष्य को उन्हें विकसित करना पड़ता है..ऐसे व्यक्तित्व के लिए जो एक बेहतरीन समाज सुधारक की भूमिका अदा कर सकता है और वर्तमान में भारतीय मिट्टी में साँसे ले रहा है..उसको इस शेर की पंक्ति से, बात रखना चाहूंगा कि “दाना ख़ाक में मिलकर गुल-ऐ-गुलज़ार होता है, मिटा दे अपनी हस्ती यदि कोई मर्तबा चाहता है”..वर्तमान में यह मांग पुरजोर बढ़ती जा रही है, कि एक “समाज सुधारक” अनिवार्य है, जो अभियान को गति दे..विद्वानों को इस मामले में देर भी नहीं करनी चाहिए अन्यथा आने वाली पीढ़ी शायद उन्हें माफ़ ना करें, कि जिन आदर्शों के वह अनुयायी होने का दावा करते है, वह इक्कसवी सदी का एक “समाज सुधारक” ना पैदा कर सके, तथा “नव-राष्ट्र निर्माण” के उत्थान में अपना कोई विशेष योगदान प्रस्तुत नहीं कर सके, और वह केवल गाल बजाऊ बने रहे और अपने-अपने आदर्शों पर लिखते-बोलते तो रहे, परन्तु धरातल पर अपने-अपने आदर्शों की अधूरी परियोजनाओं को उतार ना सके..ऐसा भी नहीं की सामाजिक आंदोलनों से इक्कीसवी सदी वंचित रही, आंदोलन तो खूब हुए..लेकिन “सामाजिक आंदोलन” और “सामाजिक अभियान” यूँ तो एक दूसरे के प्रयाय हैं..लेकिन….

धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है)

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