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क्या सृष्टि की उत्पत्ति अमीबा से हुई?

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डॉ. विकास मानव

_आदित्यो ब्रह्मेत्यादेशस्तस्योपव्याख्यानमसदेवेदमग्र आसीत्।_ _तत्सदासीत्तत्समभवत्तदाण्डं निरवर्तत सत्संवतसरस्य मात्रामशयत तन्निरभिद्यत ते आण्ड-कपाले रजतं च सुवर्ण़ चाभवताम्।।_

          -छांदोग्य उपनिषद : ३/१९/१

       अर्थात् पहले यहाँ कुछ नही था. यानी कोई नामरूप नही था. केवल असत् ही था।

    असत् को एक विभिन्न गैसों  का समुच्चय कह सकते हैं। लेकिन इस समुच्चय मे सत् भी था. कालक्रम की परिपक्वता पर इसी असत् मे जो सत् छिपा था, वह कार्याभिमुख हुआ, और अंकुरित होने लगा।

    अंकुरित होकर जो अब तक बिना नामोपाधि के रह रहा था वह एक अण्डे मे तब्दिल हो गया और एक वर्ष (ब्रह्मा का एक वर्ष) तक उसी रूप मे पड़ा रहा. इसके बाद एक विष्फोट मे वह अण्डा फूट गया।

   तब ‘ते आण्डकपाले’ यानी उसके दो भाग बन गये। इसके बाद ‘तस्य निर्भिन्नस्याण्डस्य कपाले द्वै रजतं च सुवर्णं चाभवतां संवृत्ते’ जिसमे एक टुकड़ा सोने का और एक चाँदी का हो गया।

     यहाँ प्रश्न है कि ऐसा हुआ कैसे? अर्थात् एक गोले से केवल दो ही टुकड़े कैसे और क्यों बने और अधिक टुकड़े क्यों नही बने?

 दूसरी बात यह है कि एक वर्ष तक गतिहीन होकर पड़ा रहा, इसके क्या प्रमाण है?

   जब एक ही अण्डा था और वह भी क्रियाशून्य था तो Time Calculation किसने किया और सटीक एक वर्ष बता दिया?

_छांदोय्य उपनिषद (3/19/1) जिस अंडे (आण्ड कपाले) से जगत् की उत्पत्ति बताता है, बृह्दारण्य उपनिषद (1/4/3) भी थोड़े शब्दों के भावप्रस्तुति की वैभिन्यता से वही बात कहता है।_

         कार्याभिमुख होकर एक अंडे मे परिवर्तित हुआ और ‘स हैतावानास यथा स्त्रीपुमाँ सौ’ यानी सुवर्ण और रजत् के स्थान पर स्त्री और पुरुष के परिणामवाला हो गया।

   ‘तस्मादिदमर्धबृगलमिव स्व इति ह स्माह’ अर्थात् अपनी ही देह को दो भागों मे विभक्त कर लिया, और इसी कारणवश यह शरीर अर्धबृगल होता है यानी उभयलिङ्गी होता है।

     छान्दोग्य मे जो सुवर्णवाला भाग कहा गया है, वह आकाश (पुरुष) और रजतवाला भाग वायु+ अग्नि+ जल+ पृथिवी+ अन्न= मनुष्य हो गया;  जिससे जगत् की उत्पत्ति हुई।

 अब यदि ऐसा कहें कि मनुष्य की उत्पत्ति एक अंडे से हुई तो इसमे कोई लांक्षन नही होना चाहिए।

    चार्ल्स डार्विन की पुस्तक  Origin Of Species 1859 मे प्रकाशित हुई जिसका उद्देश्य धार्मिक नही था।

     जैसा कि इस पुस्तक का नाम है, वैसे ही जीवों की उत्पत्ति का प्रमाण प्रस्तुत करता है, जबकि भारतीय दर्शन इस सृष्टि की उत्पत्ति को प्रमाणित करता है. इसलिए व्यापकता की तुलना मे डार्विन का अमीबा अतिन्यून है.

   तथापि आण्ड और बृगल दो ऐसे शब्द हैं जिससे यह प्रमाणित होता है कि जीवों की उत्पत्ति करोड़ो वर्ष पूर्व हो चुकी थी।

पहली बात यह है कि जगत् और Species अलग-अलग चीजे हैं। जगत् मे पृथिवी, जल, वायु, और आकाश भी सम्मिलित हैं.

       हमारा विश्लेषण जगत् के लिए है. अमीबा शब्द लाने का कारण यह है कि जगत् के उपादानकारण को ठीक से समझा जा सके।

     तो यह तीसरा मत (प्रमाण) कहता है कि –

   *ओ३म् आत्मा वा इदमेक एवाग्रासीत्। नानयत्किञ्चन मिषत्। स ईक्षय लोकान्नु सृजा इति।।*

         ~ऐतरेय उपनिषद (१/१)

 अर्थात् सृष्टि के पूर्व एकमात्र आत्मा ही था. उसने ईक्षण् किया कि, मै लोक का सृजन करूँ। चूंकि उस अवस्था मे कोई अन्य (नान्यत्किञ्चन मिषत्) ईक्षणसत्ता अस्तित्व मे थी ही नही थी, इसलिए स्वय़ उस परमात्मा ने ही संकल्प लिया। उसने ‘स इमाँल्लोकानसृजत’ यानी इस लोक की रचना की।

लेकिन कैसे की?

‘सृजत अम्भो’ उसने सर्वप्रथम अम्भः= द्युलोक तथा उसके ऊपर के लोकों की रचना की।

      तत्पश्चात् उसने मरीची= मरीचि (अंतरिक्ष), मरम्= मृत्युलोक और आपः= जल की रचना की।

    इन सब की आधारशिला रखकर पृथिवी के नीचे के लोकों को बनाया।

 यहाँ मरीचि का शब्दार्थ प्रकाश (किरण) है तो जो प्रकाशवान् लोक जैसे सूर्य्य, चन्द्रमा और तारागणहैं, उनकी रचना किया।

     तात्पर्य यह है कि जगत् मे जितने लोक, त्रिलोक, चतुर्दश भुवन और सप्तलोकों के नाम से ख्यात् जड़वर्ग के लोक हैं, उन सब की रचना कर दी।

                        (ऐत०/१/२)

 ‘स ईक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति सोsदभ्य एव पुरुष़ समुद्धृत्यामूर्छयत्.’

 (ऐत०/१/३)

     इन सब को रचते हुए उसने चिंतन किया कि इन सब की देख-रेख और सुरक्षा सहित इनका पालन-पोषण कौन करेगा?

    _तो अंत मे उसने जललोक की स्थापना की और उस जल मे एक मूर्ति की रचना की. हो सकता है इसी का नाम डार्विन ने अमीबा रख दिया हो।_

         .सभी भारतीय दर्शन जगत् की उत्पत्ति की बात करते हैं, Species की उत्पत्ति का नही, लेकिन उपनिषद हों या न्याय, सांख्य, वैशेषिक और मीमांसा हों, सभी मे थोड़ा-थोड़ा मतान्तर तो है। इसलिए हम वेदों मे चलते हैं।

 ऋगवेद कहता है :

*नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।*

*कि मावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम्।।-

             (१०/१२९/१)

*अन्वयार्थः*

  (तदानीम्)= पूर्वं तदानी़ प्रलयावस्थायाम् (असत् न (सत् —–आसीत्)= शून्यं नितान्ताभावो.

    (सत्—-न—-आसीत्)= सत्य प्रकटरूपमपि वर्त्तमानं किञ्चन नासीत्।.

( रजः—न—-आसीत्)= रञ्जनात्मकं कणमयं गगनमन्त-

रिक्षमपि नासीत्।

     (परः——व्योम।  न—–उ)= विश्वस्य परवर्ती विशिष्टरक्षक आवर्तः खगोलाकाशोsपि

नैवासीत्।

     (किम् आवरीवः)= पुनरावर्णीयाभावाद् भृशमावरकमपि किं स्यात् ? नासीदित्यर्थः।

     (कुहकस्य शर्मन्)= न कुत्रापि तथा प्रदेश आसीत् कस्य सुख निमित्तं स्यात् ?

     (गहनं गभीरम्)= गहनं गभीरम् सूक्ष्मम् जलमपि कि़ स्यादर्थान्नासीत्, यतै भोग्य़ वस्तूत्पद्येत् यस्मिन् सृष्टिबीजमीश्वरोsवसृजेत् अप एव सर्सजादौ तासु बीजमवासृजत्.

*भावार्थः*

   सृष्टि के पूर्व प्रलयावस्था होती है. वहाँ उस अंधकारमय जगत् मे शून्यमात्र का भी अत्यन्ताभाव नही होता यानी बीज विद्यमान होता है। किन्तु प्रकटाभाव नही भी नही था और न रञ्जनात्मक कणमय जगत् था, न परवर्ती सीमावर्ती आवर्त घेरा था।

     जब आवरणीय पदार्थ या जगत् ही नही था तो आवर्त भी कैसे हो सकता है ?

    फिर सुख किसके लिए हो? इस समय भोग्य भोक्ता की भी वर्तमानता नही थी। सूक्ष्म, जल, परमाणु प्रवाह या परमाणु समुद्र भी नही था।

     कहने योग्य और कहानेवाला भी कुछ नही था, पर जो बीज था (गीता/१०/२०) वह अप्रकटरूप मे था।

     हो सकता है या कह सकते हैं कि वह अमीबा रहा हो! जसका नामकरण अब हुआ हो।

ऋगवेद (१०/१२९/३) का सूत्र है :

    *तम आसीत्तमसा गूळहमग्रेsप्रकेत़ं सलिलं सर्वमा इदम्।*

  *तुच्छयेनाभ्वपिहित़ं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्।।*

अन्वयार्थः

(अग्रे तमसा गूढ़म्)= सृष्टेः पूर्वं यदासीत् तदन्धकारेणावृतमासीत्। (तम्—आसीत्)य= अन्धकाररूपमासीत्।

 (इदं सर्वं सलिलम् आ–अप्रकेत)= एतत् सर्वं जलमिवैकीभूतम-

विज्ञेयमासीत्।

   (तुच्छ्येन यत्—-अपिहितम्)= तुच्छरूपेण यदावृतं गुप्तं यत्।

 (आभु—आसीत्)= तत्,,आभु,, नामकं सर्वत्र प्रसृतमव्यक्तमुपादानकारणमासीत्. इय़ सृष्टिर्यत आबभूव, इति वचनात् सृष्टेरुपादानम्।

 (तपसः)= परमा- त्मानो ज्ञानमयात् तपसः।

   (तत् महिना एकम् अजायत)= तन्महत्तत्वरूपमेकं जातम्।।

*शब्दार्थः*

 सृष्टि के पूर्व यह ब्रह्माण्ड जल रहा था और ठण्डा होकर गहन अंधकार से आवृत्त होकर अंधकाररूप मे ही विद्यमान था।

      यह सब उस समय फैले जल जैसा जानने मे नही आने के प्रकार का था, तथा तुच्छभाव (Neglected) से आवृत्त ढका हुआ आभु नाम से अव्यक्त उपादानकारण था, जिससे यह सृष्टि आभिर्भूत हूई।

     तब परमात्मा के ज्ञानमय तप से महतत्त्व नामक एक रूप उत्पन्न हुआ।

 हो सकता है, बाद के लोगों ने इसे,,अमीबा नाम पढ़ लिया हो।

  *सारांशार्थः*

सृष्टि के पूर्व अंधकार से ढँका हुआ यह आभु (अमीबा) अवयवरहित, न जानने योग्य, परमात्मा के समक्ष तुच्छरूप से एकदेशी अव्यक्त प्रकृतिरूप उपादानकारण था।

    _ऐसी संभावना हो सकती है कि यह जलरूप प्रकृति का वर्णन हो जिसके नाभि से एक बड़ा डंठल बना उसमे से एक जीव पैदा हुआ और पुराणकारों ने उसे विष्णु नाम दिया।_

    (चेतना विकास मिशन)

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