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ऋषि, मुनि, महर्षि, साधु और संत  का अंतर

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सुधा सिंह 

*ऋषि*

ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ‘ऋष’ शब्द से है जिसका अर्थ ‘देखना’ या ‘दर्शन शक्ति’ होता है।

    ऋषि अर्थात “दृष्टा”.  भारतीय परंपरा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने (यानि यथावत समझ पाने) वाले जनों को कहा जाता है।

     वे व्यक्ति विशिष्ट जिन्होंने अपनी विलक्षण एकाग्रता के बल पर गहन ध्यान में विलक्षण शब्दों के दर्शन किये उनके गूढ़ अर्थों को जाना व मानव अथवा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गए शब्दों को लिखकर प्रकट किया।

   इसीलिये कहा गया – 

*“ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः न तु कर्तारः।”*

अर्थात् ऋषि तो मंत्र के देखने वाले हैं न कि बनाने वाले. बनानेवाला तो केवल एक परमात्मा ही है.

*मुनि*

मुनि वह है जो मनन करे, भगवद्गीता में कहा है कि जिनका चित्त दु:ख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्चल बुद्धिवाले मुनि कहे जाते हैं।

    वैदिक ऋषि जंगल के कंदमूल खाकर जीवन निर्वाह करते थे। मुनि शास्त्रों की रचना करते हैं और समाज के कल्याण का रास्ता दिखाते थे.

*महर्षि*

ज्ञान और तप की उच्चतम सीमा पर पहुंचने वाले व्यक्ति को ‘महर्षि’ कहा जाता है.

महर्षि मोह-माया से विरक्त होते हैं और परामात्मा को समर्पित हो जाते हैं.

      इससे ऊपर ऋषियों की एकमात्र कोटि ‘ब्रह्मर्षि’ की मानी जाती हैं।  

    इससे नीचे वाली कोटि ‘राजर्षि’ की मानी जाती हैं। गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र ‘ब्रह्मर्षि’ थे

       प्राचीन ग्रंधों के मुताबिक़ हर इंसान में 3 प्रकार के चक्षु होते हैं ‘ज्ञान चक्षु’, ‘दिव्य चक्षु’ और ‘परम चक्षु’.

      जिस इंसान का ‘ज्ञान चक्षु’ जाग्रत हो जाता हैउसे ‘ऋषि’ कहते हैं.   

     जिसका ‘दिव्य चक्षु’ जाग्रत होता है उसे ‘महर्षि’ कहते हैं.

 जिसका ‘परम चक्षु'(त्रिनेत्र)जाग्रत हो जाता है उसे ‘ब्रह्मर्षि’ कहते हैं।

*साधु*

साधु का वर्तमान स्वरूप भिखारी का है.

वस्तुतः साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ ‘सज्जन व्यक्ति’ से है।

    ऐसा व्यक्ति जो 6 विकार- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर देता है, उस व्यक्ति को ‘साधु’ की उपाधि दी जाती है.

    लघुसिद्धान्तकौमुदी में कहा गया है- 

*’साध्नोति परकार्यमिति साधुः*

जो बिना प्रतिदान के दूसरे का कार्य कर देता है, वह साधु है.

     अथवा जो साधना करे वो ‘साधु’ कहा जाता है. साधु होने के लिए विद्वान होने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि साधना कोई भी कर सकता है.

      साधु(सन्यासी) का मूल उद्देश्य समाज का पथप्रदर्शन करते हुए धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्त करना है। साधु सन्यासी गण साधना, तपस्या करते हुए वेदोक्त ज्ञान को जगत को देते है और अपने जीवन को त्याग और वैराग्य से जीते हुए ईश्वर भक्ति में विलीन हो जाते है।

*संत*

मत्स्यपुराण के अनुसार संत शब्द की निम्न परिभाषा है :

   *ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय:*

*सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्येतास्तेन सन्तः प्रचक्षते॥*

     ब्राह्मण, ग्रंथ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियां हैं। जिनके अंतःकरण में इनके और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वह सन्त कहलाते हैं।

     हिन्दू धर्म में सन्त उस व्यक्ति को कहते हैं जो सत्य आचरण करता है तथा आत्मज्ञानी है, इसलिए हर साधु और महात्मा ‘संत’ नहीं कहलाते हैं. इस प्रक्रिया में जो व्यक्ति संसार और अध्यात्म के बीच संतुलन बना लेता है, वह ‘संत’ कहलाता है : जैसे रविदास,कबीरदास, तुलसी दास।

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