अग्नि आलोक

पुलिस की कमीनी चालें’

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( जून, 1928 ‘किरती’ में प्रकाशित शहीद भगतसिंह का अनुभव)

          पुष्पा गुप्ता 

भगतसिंह के 96 साल पहले लिखे इस लेख को पढिये और आज की पुलिस के काले कारनामों को याद कीजिये। वैसे तो सरकार चाहे किसी की रहे, पुलिस के काले कारनामों जारी रहते हैं पर अगर सरकार में फासीवादी होंं तो किसी को भी फर्जी मामलों में फंसाकर जेल में डाल देने, जेल में मार देने की बारम्‍बारता कई गुना बढ़ जाती है। 

     मोदी के सत्‍ता में आने के बाद लगातार जिस तरह जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं व मजदूर कार्यकर्ताओं को जेल में डाला जा रहा है वो भगतसिंह के इस लेख की याद दिलातेे हैंं। 

        कुछ दिनों से पंजाब में बड़ी सनसनी फैली हुई है। एक अजीब कहानी का पता चला है। पुलिस की एक अजीब करतूत का भण्डाफोड़ हुआ है। अब चूँकि भण्डाफोड़ हो ही गया है इसलिए यह कहानी मजे़दार लगती है, लेकिन दुर्भाग्य से यदि भण्डाफोड़ न हुआ होता तो उसका परिणाम यह होना था कि कई नौजवान फाँसी पर लटक गये होते और कइयों को कालापानी हो गया होता। भण्डाफोड़ लाहौर के अख़बार ट्रिब्यून (The Tribune) ने किया है।

       कहानी यों है कि अप्रैल, 1927 में लाहौर स्टेशन पर एक बंगाली और एक मेरठ निवासी नौजवान पकड़े गये। बंगाली के पास से पिस्तौल और मेरठ वाले के पास से तेज़ाब मिला। कुछ दिन हवालात में रखने के बाद पहले तो मेरठ निवासी नौजवान जिसका नाम मोहन सिंह रंक था, छोड़ दिया गया और बंगाली पर मुक़दमा चलाया गया। कुछ दिनों बाद बंगाली को भी जमानत पर छोड़ दिया गया। जमानत पाँच सौ की हुई थी।

      पेशी वाले दिन वह हाज़िर न हुआ, फिर भी उसकी जमानत ज़ब्त नहीं की गयी। उसे वारण्ट निकालकर मेरठ से गिरफ्तार कर लाया गया और मि. हीरालाल फैलूक्स ने उसे पाँच साल की क़ैद का दण्ड दिया। लाहौर के राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को उससे हमदर्दी पैदा हुई। उसके लिए अपील का प्रबन्ध किया गया। अपील अभी पेश भी नहीं हुई थी कि वह छूटकर घर चला गया। सब लोग हैरान।

     उड़ती-उड़ती बात यह सुनी जा रही थी कि वह ख़ुफ़िया पुलिस का भाड़े का टट्टू था। लेकिन निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।

     अब कुछ दिन पहले उसके उन दिनों के लिखे हुए कुछ पत्र ‘ट्रिब्यून’ में छपे हैं। एक पत्र तो मेरठ के पुलिस कप्तान के नाम है और एक लाहौर के पुलिस कप्तान के नाम और एक ऐसा है जिसमें उसने अपना सारा हाल लिखा है। उसने लिखा है कि वह ख़ुफ़िया पुलिस का एक जासूस है और कई बरसों से पुलिस का काम कर रहा है। पुलिस को पता चला कि एक और आदमी ‘एन’ नाम का मैनपुरी का रहने वाला है। जिसके पास दो पिस्तौलें हैं। के.सी. बनर्जी को, जोकि उस बंगाली का नाम है, उसके साथ दोस्ती करने के लिए कहा गया ताकि उससे पिस्तौलें ले ली जायें। 

      उसने एक पिस्तौल ले लिया और पुलिस अधिकारियों ने उससे कहा कि यह तुम अपने पास ही रखो।

एक दिन लाहौर के किसी आदमी का पत्र बंगाली के मार्फ़त मोहनलाल के नाम लिखा हुआ गया। उसमें लिखा हुआ था कि तुम आदमी और चीज़ें लेकर लाहौर पहुँचो, क्योंकि फ़िरोज़पुर में डाका डालना है। बंगाली ने वह पत्र पुलिस अधिकारियों को दे दिया, जिन्होंने पत्र का फ़ोटो लेकर पत्र लौटा दिया, बनर्जी ने वह पत्र मोहनलाल को दे दिया। 

      अधिकारियों की सलाह से वह पिस्तौल साथ लेकर मोहनलाल के साथ लाहौर आ गया। यहाँ से एक आदमी को डकैती की जगह की देखभाल के लिए भेज दिया गया, पर न जाने किस कारण से डकैती न हुई और दोनों मेरठ के लिए लौट पड़े, लेकिन लाहौर रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिये गये।

      पकड़े जाते ही बंगाली ने पुलिस को बता दिया था कि वह ख़ुफ़िया पुलिस का आदमी है और पिस्तौल भी एक तरह से सरकारी है और उसे यह कहकर दिया गया था कि तुम यह पिस्तौल किसी दूसरे के हाथ में दे देना। लेकिन स्थिति ऐसी बन गयी कि वह स्वयं गिरफ्तार हो गया। अब पुलिस उसे छोड़ना भी चाहती थी लेकिन अचानक छोड़ने से सन्देह होने का ख़तरा था, सो उसे 500 रुपये की जमानत पर रिहा कर दिया गया।

       तारीख़ के दिन वह पेश न हुआ तो भी उसकी जमानत ज़ब्त न की गयी। लेकिन मजिस्ट्रेट को पूरी कथा मालूम नहीं थी, इसलिए उसने ज़्यादा वफ़ादारी दिखाने के लिए अधिकाधिक सम्भव सज़ा दे दी। आर्म्स एक्ट के तहत दूसरे प्रान्तों में आमतौर पर छह महीने क़ैद होती है, लेकिन यह पंजाब जो हुआ! यहाँ पाँच साल सज़ा हुई। 

      अब बंगाली की साँस फूल गयी। पत्र पर पत्र लिखे। कहीं राय साहब, लाला चुन्नीलाल, कप्तान लाहौर और कहीं कप्तान मेरठ को पत्र लिखे। पूरा हाल बयान किया। उन्हीं में से कुछ पत्र किसी तरह ‘ट्रिब्यून’ के हाथ लग गये और वही छपवा दिये गये। कौंसिल में इसी पर बहस हुई। सरकारी सदस्यों ने चुपचाप बात मान ली। उन्होंने कहा कि वह हमारा जासूस था। पंजाब पुलिस को पहले पूरी बात पता नहीं थी, पता लगने पर उसे लोगों के सन्देह से बचाने के लिए मुक़दमे का ढोंग किया गया। 

      अब सवाल यह उठता है कि क्या वह सिर्फ़ जासूस ही था या साथ ही भड़काने वाला (Agent Provocateur) भी था? एजेण्ट प्रोवोकेटर का काम (Investigate) या तफ़्तीश करना नहीं होता बल्कि (To creat) जुर्म पैदा करना होता है। आमतौर पर पुलिस अपनी ज़रूरत सिद्ध करने के लिए ऐसा कुछ काम करती रहती है। 

      लाला लाजपत राय ने एक बार तुर्की की ख़ुफ़िया पुलिस की करतूत की कहानी लिखी थी। रूस में एजेण्ट प्रोवोकेटर बहुत-सा काम करते रहे हैं। लेकिन आमतौर पर पुलिस भी ऐसे षड्यन्त्र नहीं करती, स्वयं सरकारें करवाती हैं। उदाहरणतः जब कभी बड़े भारी आन्दोलन की सम्भावना होती है, उसे दबाने के लिए, अत्याचार करने का बहाना ढूँढ़ने के लिए वह अपने आदमियों को उनमें मिला देती है और वे कोई न कोई ग़लती करवा देते हैं, जिससे अत्याचार का बहाना मिल जाता है। 

      दूर जाने की ज़रूरत नहीं, आजकल जो भी हड़तालें हुई हैं उनमें भी ऐसे आदमी छोड़े जाते हैं जो दंगा करवाने के लिए लोगों को भड़काते रहते हैं और अत्याचार का बहाना ढूँढ़ने का यत्न करते रहते हैं। रूस में तो इन लोगों ने कई बार बहुत अत्याचार करवाया और हज़ारों निर्दोष लोगों को फाँसी पर लटकवा दिया। बड़े-बड़े आन्दोलन कुचल डाले गये। लेकिन ये आख़िरी चालें होती हैं, इनसे राज प्राप्त नहीं होते, बल्कि ज़ुल्म करने से जड़ें जल्दी उखड़ जाती हैं।

      ख़ैर! अंग्रेज़ी राज भी अब ऐसी आख़िरी चालों पर उतर आया है। 1923 के आख़िर में जब स्वराज पार्टी बनी, पिछला शान्तिपूर्ण आन्दोलन असफल हो गया था। तब सरकार ने इस स्थिति से डरते हुए कि कहीं फिर आतंकवादियों की बड़ी भारी पार्टी न बन जाये, अपने आदमी इन बातों के प्रचार के लिए छोड़े और जल्द ही नियम 1818 के अधीन बहुत-से लोगों को गिरफ्तार कर लिया। 25 जुलाई, 1924 को उन बन्दियों में से दो यानी श्री भूपेन्द्रनाथ दत्त और श्री जीवनलाल चटर्जी ने एक पत्र भारत-मन्त्री के नाम लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि बंगाल में ऐसे आदमी छोड़े गये हैं जिनकी हम, यदि एक निष्पक्ष समिति बने तो, पूरी पोल खोल दें। लेकिन सरकार कब सुनने वाली थी। इन बातों से सिद्ध होता है कि सरकार की अपनी नीयत भी ऐसी ही है।

       सवाल यह पैदा होता है कि के.सी. बनर्जी ख़ुफ़िया काम करने वाला जासूस (Spy) ही था या षड्यन्त्रकारी Agent Provocateur था? या सरकार का इस मामले में कोई हाथ था? स्थिति पर ज़रा ध्यान से सोचें तो पता चलता है कि इन तीन-चार आदमियों में से एक से अधिक ख़ुफ़िया जासूस थे और सरकार ने पंजाब के काम करने वाले होनहार नौजवानों के ख़िलाफ़ षड्यन्त्र किया था, सौभाग्य से जिसका बड़े सुन्दर ढंग से भण्डाफोड़ हो गया।

       बात यह है कि नेशनल कॉलेज के एक ग्रेज्युएट ने, जिसके बारे में ट्रिब्यून में मिस्टर पी. लिखा है, वह पत्र लिखा था। यह नौजवान बहुत मूर्ख व कमीना है। लगता है कि वह भी ऐसा ही एजेण्ट प्रोवोकेटर है। उसके सम्बन्ध में आमतौर पर शिकायत सुनी गयी थी कि वह बहुत बड़ी-बड़ी डींगें हाँकता है और कहता फिरता है कि मैं एक राज क्रान्तिकारी दल का नेता हूँ। ख़ैर, कम से कम वह मूर्ख तो बहुत था, बुरा भले ही न हो। लेकिन आगे की स्थिति से पाठक स्वयं निष्कर्ष निकाल लेंगे। पहले की कहानी ट्रिब्यून में छपी है। उसके बाद जो हाल पता चला है, आगे सब उसी के आधार पर लिखा जा रहा है। 

     उसने यह पत्र लिखा कि आओ, डाका डालें। वे यहाँ आये। जब लौट चले और बड़ा षड्यन्त्र न बन सका और पिस्तौल वाला बंगाली भी हाथों से निकल चला तब उसे गिरफ्तार करवा दिया गया। उसके पकड़े जाते ही पूरा भण्डाफोड़ हो गया। अब क्या किया जाये? फिर पुलिस उसे छोड़ना भी चाहती थी लेकिन किसी बहाने से। उसी पत्र लिखने वाले ‘पी’ को बुलाकर उसकी जमानत ले ली गयी। ‘पी’ के पास कोई सम्पत्ति नहीं थी, उसका पूरा माल 5 रुपये से ज़्यादा का नहीं था, लेकिन 500 की जमानत मंज़ूर हो गयी। 

      ख़ुफ़िया काम करने वाला आतंकवादी भला किस तरह आगे आकर उस परदेशी से अपनी दोस्ती प्रकट कर षड्यन्त्र का सबूत पैदा कर सकता था? वे तो सभी पुलिस के आदमी थे। फिर तारीख़ पर बंगाली हाज़िर न हुआ। जमानत भी ज़ब्त न हुई। वह और तेज़ाब वाला मोहनलाल भी क्यों छूट गया? यदि यह मान भी लें कि उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं थे, तो भी 120बी धारा के अधीन उन पर साज़िश का मुक़दमा क्यों न चलाया गया?

एक ने डाका डालने का पत्र लिखा। पुलिस ने उसका चित्र ले लिया। पत्र पत्रवाले के पास पहुँच गया। वह भला आदमी पुलिस को पत्र नहीं देता कि मुझे किसी ने डकैती के लिए बुलाया है, बल्कि वह एक और आदमी को पिस्तौल सहित ले जाता है जो पिस्तौल सहित पकड़ा जाता है। क्या साज़िश का मुक़दमा नहीं बनता था? 

      धारा 120बी में साफ़ लिखा है– ‘Who ever is party to a criminal conspiracy to Commit an offence – be punished is the same manner as if he had abetted such offence.’  

      यानी जो भी ऐसी साज़िश का सदस्य हो जिसने कोई जुर्म करने की साज़िश की हो, उसे ऐसे जुर्म में मदद करने की सज़ा मिलनी चाहिए। देवघर (बिहार) में इस समय जो बड़ा भारी साज़िश का केस चल रहा है, उसमें यही है–

     ‘You – did agree with one another- to do or cause to be done al illegal act – and thereby you committed an offence punishable under section 120B-’

   तुम लोगों ने आपस में तय किया कि जुर्म किये जायें, इसलिए तुम पर धारा 120बी लगायी जाती है।

उन पर भी किसी जुर्म करने का आरोप नहीं लगाया गया, सिर्फ़ ‘यह करने की’, ‘वह करने की’ साज़िश का जुर्म लगाया गया। उस मुक़दमे का पूरा हाल पढ़ने पर तो हमारा यही विचार बनता है कि वह मुक़दमा भी पुलिस ने बनाया है। एक व्यक्ति वीरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य के घर की तलाशी हुई। उसने पुलिस को अपने कमरे में बुलाकर दो पिस्तौल और एक कापी दी, जिसमें साठ व्यक्तियों के पते लिखे हुए थे।

       पुलिस के आने तक उसने कापी को जला डालने की भी कोशिश नहीं की। जानबूझकर ही नहीं की। उनमें से बीस व्यक्ति पकड़कर साज़िश का मामला बना दिया गया। एक पंजाबी नौजवान, जिसका नाम श्री इन्द्रचन्द्र नारंग है, को भी रगड़ा जा रहा है। आप कामलियेवाली श्री पार्वती देवी के सबसे छोटे भाई हैं। ठीक वैसा ही मुक़दमा इधर भी बन रहा था। यदि इधर अकेला के.सी. बनर्जी ही ख़ुफ़िया पुलिस का होता तो मुक़दमा ज़रूर चल जाता। 

      पर वहाँ तो पूरी हवा ही बिगड़ी हुई थी और जिन आदमियों को फाँसी पर चढ़ाने की कोशिश की गयी थी, उनके ख़िलाफ़ कोई भी सबूत नहीं मिल पाया था, इसीलिए वह मुक़दमा नहीं चलाया गया। सरकार की यह चाल ख़राब और घृणित है।     

     आतंकवादी आन्दोलन को रोकने के लिए भी यह कोई अच्छा तरीक़ा नहीं। लेकिन नक़ली साज़िशों में निर्दोषों को मारने से राज की नींवें पक्की नहीं, बल्कि खोखली हो रही हैं। (इस सन्दर्भ में) रूस के ज़ार और फ्रांस के लुइस को नहीं भूलना चाहिए।

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