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मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में अब निराशा गहराने लगी है,बेसब्री बढ़ती जा रही है

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विकास एवं बदहाली का तीखा होता अंतर्विरोध आज की असल कहानी है। इस बदहाली से उपज रहे जन असंतोष का उबाल आज अक्सर देखने को मिल रहा है। असंतोष का क्या आलम है यह पश्चिम बंगाल से लेकर बदलापुर तक की सड़कों/रेल पटरियों पर दिखा है। ऐसी घटनाएं आज इतनी आम हो गई हैं कि अब उन्हें एक ट्रेंड या परिघटना के रूप में देखा जाना चाहिए। अभी मुद्दे अलग-अलग हैं, लेकिन उबाल को जोड़ने वाले किसी समान सूत्र की तलाश में उनमें अवश्य की जा सकती है- और वो यह है कि लोग अपनी जिंदगी से नाखुश हैं तथा अब उनकी बेसब्री बढ़ती जा रही है।

सत्येंद्र रंजन

नरेंद्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में अब तक कहानी निराशाओं के गहराने की रही है। पिछले दस साल में सत्ता पक्ष ने जिन गढ़ी कहानियों के जरिए लोगों में कुछ बेहतर होने की उम्मीदें जगा रखी थी- कुछ संयोग ऐसा है कि पिछले ढाई महीनों में उनमें से एक के बाद एक कहानी बिखरती चली गई है। ये सब पिछले ढाई महीनों में ही हुआ, ऐसा सोचना शायद सही ना हो। बल्कि इस घटनाक्रम को इस रूप में समझा जा सकता है कि कहानियां तो पहले ही हिलने लगी थीं, अब इनके धागे इतनी तेजी से उघड़ रहे हैं कि उन पर सबकी नज़र टिकने लगी है।

अर्थव्यवस्था की तीव्र वृदधि, इन्फ्रास्ट्रक्चर (खास कर हाईवे, हवाई अड्डों आदि का) निर्माण, और मोदी काल में दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ना- इन तीन कहानियों को हिंदुत्व परियोजना के साथ जोड़ कर मोदी सरकार ने अपना आभामंडल तैयार किया था। पिछले कुछ महीनों में ये तीनों कहानियां ढहती दिखी हैं। जैसी गुणवत्ता के इन्फ्रास्ट्रक्चर बने, उनकी पोल बरसात के इस सीज़न में रोजमर्रा के स्तर पर खुली है। ट्रेन दुर्घटनाओं और वीआईपी ट्रेनों में बदइंतजामी की अनगिनत खबरों का जिक्र भी इस सिलसिले में किया जा सकता है।

विदेश में प्रतिष्ठा की कहानी पर तो 2023 में ही ग्रहण लगने लगा था, अब सवाल कुछ ही ज्यादा गहरे हो गए हैं। लेकिन इस लेख में हमारा विषय यह नहीं है, इसलिए हम इसके विस्तार में नहीं जाएंगे। यहां हम अर्थव्यवस्था की तीव्र वृद्धि और उसको लेकर जगाई गई खुशहाली की कहानी पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। वैसे इस कथानक में कभी दम नहीं था, लेकिन अब इसकी सच्चाई सामने आ रही है। इससे लोगों को अहसास होने लगा है कि उन्हें अब तक किस तरह के भ्रम जाल में रखा गया था।

आइए, सिर्फ इसी हफ्ते आईं कुछ खबरों पर गौर करेः

आम उपभोक्ता हो या कारोबार जगत, भविष्य को लेकर उनका भरोसा कमजोर पड़ा है, तो उसकी ठोस वजहें हैं।

संगठित रिटेल सेक्टर का यह हाल भारत में अपेक्षाकृत बेहतर क्रय शक्ति वाले उपभोक्ताओं की माली सूरत बिगड़ने का ठोस संकेत है। दरअसल, जब बाजार में मांग बढ़ रही होती है, तो नए स्टोर खुलते हैं और उनमें नई नौकरियां पैदा होती हैं। मांग का सीधा संबंध आय बढ़ने से है। जबकि भारत की असल कहानी यह है कि औसत वास्तविक आय में गिरावट दर्ज हुई है। कमरतोड़ महंगाई ने लोगों की आमदनी का मूल्य गिरा दिया है। परिणामस्वरूप लोगों ने अपने खर्च घटाए, तो यह स्वाभाविक ही है कि कारोबार सिकुड़े हैं और नौकरियां घटी हैं।

और जब संगठित रिटेल का यह हाल हो, तो असंगठित क्षेत्र का अंदाजा लगाया जा सकता है। वैसे इस क्षेत्र का क्या हाल है, इसका सच इसी हफ्ते खुद वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने बताया। उन्होंने एक समारोह में ई-कॉमर्स कंपनियों पर सीधा निशाना साधा। ये और बात है कि बाद में उन्होंने सफाई दी कि वे ई-कॉमर्स कंपनियों के खिलाफ नहीं हैं।

लेकिन इसके पहले वे इन्हीं कंपनियो को देश के करोड़ों खुदरा कारोबारियों की बढ़ती मुसीबत का कारण बता चुके थे। उन्होंने कहाः ई-कॉमर्स की भारत में बेरोक वृद्धि से “बड़े पैमाने पर सामाजिक अस्त-व्यस्तता” पैदा हो सकती है, जिसका असर दस करोड़ छोटे व्यापारियों पर पड़ेगा। गोयल एक संस्था की रिपोर्ट जारी होने के मौके पर बोल रहे थे। रिपोर्ट ‘भारत में रोजगार एवं उपभोक्ता कल्याण पर ई-कॉमर्स का संपूर्ण प्रभाव’ शीर्षक से जारी हुई है।

गोयल ने अमेजन कंपनी का नाम लेकर उस पर निशाना साधा। उन्होंने उस पर predatory pricing (कीमत तय करने की रणनीति से लूटना) का आरोप लगाया। फिर पूछा- ‘क्या कीमत तय करने का लूटेरा चलन देश के हित में है? अमेजन जब कहती है कि वह अरबों डॉलर का निवेश करेगी, तो हम सब खुशी मनाते हैं। लेकिन हम अंदरूनी कहानी भूल जाते हैं कि ये अरबों डॉलर किसी बड़ी सेवा या भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सहायक किसी बड़े निवेश के रूप में नहीं आ रहे हैं। ये रकम कंपनी अपना घाटा पाटने के लिए ला रही है। लेकिन अरबों डॉलर का घाटा हुआ क्यों?’ गोयल का तात्पर्य है कि इन कंपनियों को घाटा छोटे कारोबारियों को व्यापार से बाहर करने के लिए चीजें सस्ती दरों पर बेचने के कारण हुआ। उसे पाटने के लिए अरबों डॉलर लाए गए।

गोयल ने यहां सोलह आने सच बोला। मगर सवाल है कि क्या नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों ने हर तरह के विदेशी निवेश को प्रोत्साहित नहीं किया है? और क्या उसका ही यह परिणाम नहीं है कि देश में विदेशी ई-कॉमर्स कंपनियों का पूरा वर्चस्व बन गया है? वैसे खुदरा कारोबार सेक्टर की मुसीबतें बढ़ाने में नोटबंदी और जीएसटी जैसे नीतिगत फैसलों का क्या रोल रहा है, अगर गोयल इस पर भी उतनी ही सच्चाई से प्रकाश डालते, तो इस चर्चा में कुछ और महत्त्वपूर्ण आयाम जुड़ते।

बहरहाल, ताजा खबरों और पीयूष गोयल के भाषण में झलके असंतोष से यह तो साफ होता ही है कि उच्च आर्थिक वृद्धि दर को केंद्र में रख कर देशवासियों की खुशहाली की गढ़ी गई कहानी अब किसी को आकर्षित नहीं कर पा रही है। जमीनी स्तर पर यह कथानक आकर्षण के बजाय आक्रोश पैदा कर रहा है, इसका ठोस संकेत चार जून को आए लोकसभा चुनाव परिणामों से मिल गया था।

अब अन्य लोग लोग भी यह समझने लगे हैं कि जो कथित ग्रोथ है, उसका आम जिंदगी से कोई रिश्ता नहीं है। यह असल में गणना का एक खेल है, जिससे लोगों को अब तक भरमाए रखा गया है। ध्यान दीजिए। पीयूष गोयल ने अमेजन (या उस जैसे अरबों डॉलर) के जिस निवेश की चर्चा की, वह जब आता है, तो उसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में गिना जाता है। साथ ही साथ जीडीपी के आंकड़ों में भी उसे गिना जाता है। जबकि, जैसाकि गोयल ने कहा, उसका इस्तेमाल करोड़ों खुदरा कारोबारियों की मुसीबत बढ़ाने के मकसद से हो रहा है।

स्टॉक, बॉन्ड और ऋण के फैलते बाजार की भी कुछ ऐसी ही कहानी है। इसीलिए यह हैरतअंगेज है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय अभी भी वास्तविक स्थिति की चर्चा करने के बाद जीडीपी वृद्धि दर के अनुमान के आधार पर अर्थव्यवस्था के सही दिशा में होने का दावा कर रहा है!

मगर विकास एवं बदहाली का तीखा होता अंतर्विरोध आज की असल कहानी है। इस बदहाली से उपज रहे जन असंतोष का उबाल आज अक्सर देखने को मिल रहा है। असंतोष का क्या आलम है यह पश्चिम बंगाल से लेकर बदलापुर तक की सड़कों/रेल पटरियों पर दिखा है। ऐसी घटनाएं आज इतनी आम हो गई हैं कि अब उन्हें एक ट्रेंड या परिघटना के रूप में देखा जाना चाहिए। अभी मुद्दे अलग-अलग हैं, लेकिन उबाल को जोड़ने वाले किसी समान सूत्र की तलाश में उनमें अवश्य की जा सकती है- और वो यह है कि लोग अपनी जिंदगी से नाखुश हैं तथा अब उनकी बेसब्री बढ़ती जा रही है।  

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