नई दिल्ली। द वायर के मुख्य संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने कहा कि “1984 के कत्लेआम को भूलने की कोशिश की जा रही है। अगर याद करते भी हैं तो सिर्फ एक सियासी ऐजेंडे के तौर पर याद किया जाता है।“
1984 के सिख कत्लेआम पर परमजीत सिंह की लिखी किताब “मैं क्यूं जाऊं अपने शहरः 1984 कुछ सवाल कुछ जवाब” पर प्रेस क्लब में 31 अगस्त, 2024 को एक चर्चा का आयोजन किया गया। इस चर्चा में सिद्धार्थ वरदराजन के साथ सुप्रीम कोर्ट के वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता वृन्दा ग्रोवर मुख्य वक्ता के तौर पर उपस्थित थे।
बैठक की अध्यक्षता रिसर्चर और लेखक डॉ. नवशरन सिंह ने की। वरदराजन ने कहा कि दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति से लेकर 1985 तक नाजी कत्लेआम पर न जाने कितनी फिल्में बनी हैं और सैकड़ों किताबें लिखी गईं हैं। लेकिन 1984 कत्लेआम पर बनी फिल्मों और किताबों को अपनी उंगलियों पर गिना जा सकता है।
इसका एक कारण क़त्ल की भयानकता और हिंदुस्तान का वैश्विक स्तर पर शर्मसार होना तो है ही और दूसरी ओर हमारी सरकारों का इसका राजनैतिक इस्तेमाल भी है।
आम इंसान के लिए ऐसी किताब लिखना आसान नहीं है लेकिन परमजीत, जो मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में पिछले कई सालों से कार्य कर रहे हैं, वह इसकी जरूरत और समाज में इसकी चर्चा को बखूबी से समझते हैं। तथ्यों पर आधारित रिपोर्ट से परे यह किताब, 1984 जैसी घटनाओं को कई पीढ़ियों के लिए समझने का नया तरीका प्रदान करती है।
चर्चा की शुरुआत में डॉ. नवशरन ने किताब की महत्ता का जिक्र करते हुए कहा कि 1984 के कई रजिस्टर हैं और इस रजिस्टर में यह किताब झारखंड के शहर डाल्टनगंज की कहानी को जोड़ता है। परमजीत द्वारा लिखी हुई यह किताब एक स्मृति है, जो जड़ नहीं है।
यह कहानी उस स्मृति के बनने की उधड़ने की और फिर बनने की कहानी है। इसके साथ ही यह किताब घोषित किए गए सामान्य स्थिति के दौरान पीड़ितों के जीवन और उनकी मानवीय दशा जैसे महत्वपूर्ण पहलू और उसको समझने की जरूरत को भी दर्शाती है।
इस मौके पर वृन्दा ग्रोवर ने कहा कि उन्होंने दिल्ली में होते हुए 1984 के सिख कत्लेआम को सिर्फ देखा ही नहीं है, एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील की हैसियत से इस मुद्दे पर कार्य भी किया। परमजीत की किताब पर उन्होंने कहा कि यह सिर्फ तथ्यों पर आधारित एक जांच रिपोर्ट नहीं है बल्कि यह 1984 की घटना के सदर्भ में मानव जीवन के रिश्तों और दोस्ती को भी बखूबी बयान करती है।
आम इंसान के लिए ऐसी किताब लिखना आसान नहीं है लेकिन परमजीत, जो मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में पिछले कई सालों से कार्य कर रहे हैं, वह इसकी जरूरत और समाज में इसकी चर्चा को बखूबी से समझते हैं। तथ्यों पर आधारित रिपोर्ट से परे यह किताब, 1984 जैसी घटनाओं को कई पीढ़ियों के लिए समझने का नया तरीका प्रदान करती है।