डॉ. विकास मानव
देवता मूलतः दो प्रकार के होते हैं :
1–नित्य देवता
2–नैमित्तिक देवता।
_नित्य देवता वे हैं जिनका पद नित्य व स्थाई होता है। वायु पद, रूद्र पद, आदित्य पद, इंद्र पद, वरुण पद आदि नित्य पद हैं। नैमित्तिक देवता वे कहलाते हैं जिनका पद किसी निमित्त (प्रयोजन या उद्देश्य) से सृजित किया गया है और उस निमित्त के नष्ट हो जाने पर वह पद स्वयं नष्ट हो जाता है। जैसे–ग्राम-देवता, गृह-देवता, कुल-देवता, वन-देवता आदि।_
ग्राम-देवता का वास तबतक रहता है जबतक ग्राम रहता है। जैसे ही ग्राम नष्ट हो जाता है, वह पद स्वतः ही समाप्त हो जाता है। जबतक वन रहता है, तबतक वन- देवता का स्थाई वास समाप्त नहीं होता। वन के समाप्त होते ही उनका पद स्वतः ही ख़त्म हो जाता है। इसी प्रकार गृह-देवता होते हैं। गृह के नष्ट होते ही उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
कुल देवता का वास भी तबतक ही रहता है, जबतक कुल विद्यमान रहता है। कुल के समाप्त होने पर कुल-देवता भी समाप्त हो जाता है।
वास्तु देवता भी नैमित्तिक देव के अंतर्गत आते हैं। वास्तु-पूजा ईशान कोण (पूर्व-उत्तर का कोना) में मान्य है। पूजन के समय वास्तु-देव के नाम से अवश्य पूजन करना चाहिए जिनके नाम इस प्रकार हैं–शिखी, पर्जन्य, जयन्त, कुलिशायुध, सूर्य, सत्य, भ्रश, आकाश, वायु, पूषा, वितथ, ग्रहक्षत, मय, गन्दर्भ, भृंगराज, मृग, पितृगण आदि वास्तुदेव हैं।
पितरों के चार वर्णों के विषय में महाभारत में वर्णन मिलता है। सोमपा पितृगण ब्राह्मण जाति के हैं। हविर्भूक नामक पितृगण क्षत्रिय जाति के हैं। आज्यप नामक पितृगण वैश्य जाति के और सुरकालीन पितृगण शुद्र जातीय हैं।
( यहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र का सम्बन्ध जन्मना जाति से न होकर मानसिकता से है, कर्म और आचरण से है।).
*त्रि-रूपी देवात्माएँ :*
विश्व ब्रह्माण्ड में जितनी प्रकार की देवात्माएँ हैं, उन्हें मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।
1- सात्विक देवात्मायें हैं। इनको देवी-देवता कहा जाता है.
2- राजसी देवात्मायें हैं जिनको ‘उपदेवता’ कहते हैं।
3- तीसरी श्रेणी में तामसी देवता हैं जिनको ‘अपदेवता’ की संज्ञा दी गई है।
_सात्विक देवात्माओं का शरीर आकाश तत्व से निर्मित है। आकाश पञ्चतत्वों में मुख्य है, क्योंकि उसमें सभी अन्य तत्व एक-के-बाद-एक कर विलीन हो जाते हैं। विभिन्न प्रकार की सात्विक साधना-उपासना आदि के द्वारा जब हम किसी सात्विक देवात्मा से संपर्क स्थापित करने का प्रयास करते हैं तो वह देवात्मा हमारे आकाशीय शरीर के प्रति आकर्षित होकर उसके माध्यम से हमारी भावना के अनुरूप, हमारी कामना को पूर्ण करती है।_
हमारा आकाशीय शरीर जितना शुद्ध, निर्मल और सात्विक रहेगा, उतना ही उस देवात्मा की कृपा हमें उपलब्ध होगी।
दूसरी श्रेणी के देवता राजसी देवता कहलाते हैं। वे ‘उपदेवता’ हैं। उनके शरीर का निर्माण वायु तत्व से हुआ रहता है। वायु तत्व को सूक्ष्मतम-से-सूक्ष्मतम प्राण कहते हैं। यक्ष, गन्धर्व, किन्नर आदि इसी ‘उपदेवता’ की श्रेणी में आते हैं। वे रजोगुणी स्वभाव के होते हैं।
_राजसी साधना-उपासना के द्वारा आकर्षित होकर ये उपदेवता हमारे प्राणमय शरीर से संपर्क स्थापित कर उसके माध्यम से हमारी कामना को पूर्ण करते हैं। हमारी राजसी साधना-उपासना जितनी अनुकूल रहेगी और हमारा प्राणमय शरीर जितना उस देवता के योग्य रहेगा, उतनी ही उस देवता की कृपा हमें प्राप्त होगी।_
यहाँ यह जानना आवश्यक है कि उपदेवताओं में प्राण-शक्ति की प्रबलता रहती है। अपनी उसी शक्ति का आश्रय लेकर आवश्यकता पड़ने पर भौतिक शरीर भी धारण कर लेते हैं वे।
सात्विक देवात्मायें भाव की भूखी होती हैं। उनका एकमात्र भोजन ‘भाव’ है। वैसे ही राजसी उपदेवताओं का भोजन ‘प्रेम’, ‘सौंदर्य’, ‘कला’ और ‘भावना’ है। ‘भाव’ का सम्बन्ध ‘आत्मा’ से और ‘भावना’ का सम्बन्ध ‘मन’ से होता है। ‘भाव’ और ‘भावना’ में यही अंतर है।
कहने का आशय यह है कि *आत्माकर्षिणी* विद्या के द्वारा इन दोनों प्रकार के देवताओं को आकर्षित कर अपने मन के अनुकूल किया जा सकता है और अभीष्ट फल प्राप्त किया जा सकता है।
तीसरी श्रेणी में आते हैं ‘अपदेवता’। हाकिनी, डाकिनी, शाकिनी, पिशाच, बेताल आदि गुह्य योनि के अपदेवता हैं। गुह्य योनि मानव योनि के बाद एक विशेष योनि है। इस योनि के अपदेवता कभी भी मानव योनि में जन्म नहीं लेते।
वे अपनी ही योनि में जन्म लेते हैं। पिशाच से पिशाच ही जन्म लेगा, दूसरा और कोई नहीं। हाकिनियों, डाकिनियों और शाकिनियों की भी सोलह-सोलह जातियां होती हैं। बेतालों की भी सोलह जातियां हैं। सभी जातियों के नाम अलग-अलग हैं।
प्रत्येक जाति की साधना-उपासना अलग-अलग है। ग्यारह जातियां पिशाचों की हैं। अपदेवताओं के शरीर का निर्माण ‘अग्नितत्व’ से हुआ रहता है। उनके स्वभाव में रजोगुण और तमोगुण दोनों का मिश्रण रहता है। वे दयालु होते हैं तो क्रोधी भी। कल्याण भी करते हैं और अकल्याण भी।
वे क्या करेंगे यह हमारी मनोदशा और नीयत पर निर्भर है। यदि हमारी नीयत दूषित है तो वे क्रोधित हो कर अकल्याण कर देते हैं और यदि हमारी नियति स्वच्छ है, हितकारी है तो वे निश्चित ही कल्याण करते हैं। इनमें मनोबल और प्राणबल दोनों की अधिकता रहती है। कहाँ क्या हो रहा है–वे अपने मनोबल से तत्काल जान जाते हैं।
उनका स्वभाव अति उग्र होता है। तमोगुणी तांत्रिक विधि से की गई आत्माकर्षिणी विद्या की साधना से आकर्षित होकर वे भी साधक के मनोमय या प्राणमय शरीर द्वारा उससे संपर्क करते हैं और साधक का मनोरथ पूर्ण करते हैं।
राजसी देवात्माएँ उपदेवता कहलाती हैं। यक्ष, गन्धर्व और किन्नर– ये तीन वर्ग उपदेताओं के हैं। 16 प्रकार के यक्ष-यक्षिणियां हैं। वे स्वयं सुन्दर होते हैं और सौंदर्य के प्रेमी भी होते हैं। मनुष्य के प्रति इनका विशेष आकर्षण होता है। सुन्दर और आकर्षक स्त्री के प्रति यक्षों की रूचि सर्वाधिक होती है। जहाँ सुन्दर, कमनीय, लावण्यमयी स्त्री को देखते हैं, तुरन्त मोहित हो जाते हैं वे उस पर और विभिन्न प्रकार से वे उसकी सहायता करते हैं अदृश्य रूप से।
_यक्ष लोग अत्यधिक कामुक और रतिप्रिय होते हैं। वे काम-क्रीड़ा और रति-क्रिया के समस्त गूढ़ रहस्यों से परिचित होते हैं। जो कलाकार काम और रति की विभिन्न मुद्राओं का आश्रय लेकर श्रंगारिक मूर्ति या चित्र का निर्माण करते हैं, उनको बराबर अगोचर सहयोग मिलता है यक्षों का।_
जो लोग आत्माकर्षिणी विद्या की सिद्धि को उपलब्ध हैं, उनको तो इस दिशा में भरपूर सहयोग मिलता है यक्षों का। कभी-कभी तो सुन्दर मानव के रूप में भी प्रकट होकर मनुष्यों की सहायता करते हैं। ऐसी ही यक्षिणियां भी होती हैं।
वे भी जहाँ सुन्दर, आकर्षक, युवा व्यक्ति को देखती हैं, तुरंत मोहित हो जाती हैं वे। वे भी कामुक और रति-प्रिया होती हैं। उनकी ऑंखें मोरनी जैसी होती हैं। वे पुरुषों से संपर्क स्थापित करने के लिए सदैव लालायित रहती हैं। जिसने आत्माकर्षिणी विद्या के द्वारा किसी यक्षिणी को सिद्ध कर लिया है, उसकी प्रत्येक कामना को वे पूर्ण करती हैं। लेकिन साधक को इसका मूल्य चुकाना पड़ता है उसकी काम-पिपासा को शान्त करके।
कभी-कभी यक्षिणियां भी सशरीर प्रकट हो जाती हैं और इच्छानुसार रूप धारण कर लेती हैं। वास्तव में यक्षिणियां अति रहस्यमयी होती हैं। जो उनके चंगुल और माया-जाल में एक बार फंस गया, उसका फिर शीघ्र मुक्त होना संभव नहीं।
_इस विश्वब्रह्माण्ड में जितने भी प्रकार के प्राणी होते हैं, वे सभी प्राण तथा उसके विभिन्न आयामों द्वारा संचालित होते हैं। जहां तक आत्माओं का सम्बन्ध है, वे स्वयं की नैसर्गिक ऊर्जा द्वारा होती हैं संचालित और उसी के आधार पर इच्छानुसार रूप धारण कर लेती हैं। ऐसी ही आत्माओं को विशुद्ध आत्मा कहते हैं।_
यक्षों में सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इनमें प्राण-शक्ति और आत्म- शक्ति–दोनों का सामंजस्य है। वे जितने देवताओं के निकट हैं, कहीं उससे अधिक निकट हैं वे मनुष्यों के लिए।
यजन करने वाली जाति को यक्ष कहते हैं। हमें यह बात ज्ञात होनी चाहिए कि ब्रह्मा ने सबसे पहले पंचतत्वों में जल की उत्पत्ति की और उसके पश्चात् अन्य प्रणियों का निर्माण किया। जल का अर्थ है–जीवन देने वाला। इसीलिए इसकी सबसे पहले उत्पत्ति की गयी प्राक्कल में। जिन-जिन प्राणियों का निर्माण हुआ था–वे सब मिलकर ब्रह्माजी के पास गए और कहने लगे कि हम सब भूख-प्यास से व्याकुल हैं। ब्रह्मा ने कहा–जल की रक्षा करो। एकमात्र जल ही जीवन है।
कालान्तर में जलतत्व द्वारा ही अन्य पदार्थों का निर्माण होगा, इसलिए उसकी रक्षा करो।
यह सुनकर उन समस्त प्राणियों में से अधिकाँश बोल उठे–वयं रक्षामः (हम रक्षा करेंगे) और उनमें से कुछ बोल उठे–वयं यक्षामः (हम यजन करेंगे अर्थात् यज्ञ करेंगे)। ‘वयं रक्षामः’ बोलने वाले रक्ष संस्कृति के कारण आगे चल कर ‘राक्षस या दानव’ कहलाये और ‘वयं यक्षामः’ कहने वाले ‘यक्ष संस्कृति (यज्ञ-याग) के फलस्वरूप कहलाये–यक्ष’।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मूल रूप से एक समय दो ही जातियां थीं। एक थी–यक्ष और दूसरी थी–राक्षस। यक्ष चूंकि देव (उपदेव) थे, वे ही आगे चलकर आर्यावर्त में मनु की सन्तान होने के फलस्वरूप मानव कहलाये। इस तरह पृथ्वी पर दानव और मानव दो प्रकार के शरीरधारी प्राणी बने सर्वप्रथम। मानव में प्रकृति-प्रदत्त ‘मन’ की प्रधानता है–इसीलिए उसे ‘मनुष्य’ कहा गया। जबकि दानव में है बुद्धि-चातुर्य की प्रधानता।
अग्नि पुराण के अनुसार यक्षों की उत्पत्ति ‘प्रचेता’ अर्थात् वरुण से हुई। इसलिए जलतत्व का प्रतीक वरुण है। जलतत्व व्यापक काम की स्थिति है और यही कारण है कि यक्ष-यक्षिणियां अत्यधिक कामातुर और कामाचारी होते हैं। मनुष्य से सौ गुना अधिक कामाचारी होते हैं–यक्ष-यक्षिणियां।
*यक्षों की पौराणिकता :*
पौराणिक दृष्टि से रामायण-काल के ऐतिहासिक अवलोकन से जो तथ्य सामने आये हैं, उनके अनुसार ‘विन्ध्य’ पर्वत के उत्तर ओर आर्यावर्त क्षेत्र था जिसमें आर्य (मानव) बसे हुए थे। उनमें से भी बहुत से लोग टूट-टूट कर कालान्तर में दक्षिण में बसने लगे। ऐसे लोग जो आध्यात्मिक वृत्ति छोड़कर भोग-वासना आदि की ओर आकृष्ट हुए और आंध्र में जा बसे।
उनको आर्यों ने ‘वात्य’ की संज्ञा दी। आंध्र क्षेत्र की सीमा में उस समय समग्र दक्षिण भारत, लंका सहित दक्षिण पूर्व एशिया, ऑस्ट्रेलिया मेडागास्कर, दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका सम्मिलित थे। इन सभी क्षेत्रों में भोग व वासना प्रधान जाति राक्षसों, दानवों आदि का निवास था।
लंका उन समस्त क्षेत्रों की राजधानी थी। भारतीय क्षेत्र में दंडकारण्य और नासिक भी उनके ही उपनिवेश थे। आंध्र क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सभी निवासी ज्यादातर आज भी पूर्ण भौतिकवादी, कामुकता और भोग-विलास को महत्व देने वाले राक्षस जाति के समझे जा सकते हैं–इसमें सन्देह नहीं।
कालान्तर में इन्हीं राक्षसों के साथ यक्ष-संस्कृति भी सम्मिलित हो गयी। इस प्रकार समग्र आंध्रालय उत्तर का गंधमादन सहित कैलाश, पामीर सहित समग्र पश्चिमोत्तर एशिया यक्ष-रक्ष-संस्कृति का परस्पर मिश्रित रक्त सम्बन्ध बना कर एक ही धारा में बहने लगा। इन स्थानों के बीच धार्मिक और आध्यात्मिक साधना-उपासना करने वाली यक्ष-संस्कृति से संपृक्त कुछ लोग अपने को निरापद देवयोनि में गिनने लगे।
इस प्रकार यक्ष संस्कृति के अंतर्गत बाद में यक्ष, गन्धर्व, राक्षस और किन्नरों की भी जातियां मिल गयीं आकर। वायु पुराण, मत्स्य पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण में गन्धर्वों और किन्नरों से अलग शब्द का प्रयोग कहीं नहीं आया। राक्षसों के साथ यक्षों का सर्व प्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध है। यहाँ वैश्रवण कुबेर राजा और राक्षस व उनकी प्रजा के रूप में वर्णित है।
ऊपर जिन ‘वात्यों’का उल्लेख किया गया है, उनमें एक ‘ऋषि पुलस्त्य’ भी थे जो दक्षिण में जा बसे थे। उनके पुत्र थे ‘विश्रवा’। विश्रवा की प्रथम पत्नी इलविडा से वैश्रवण कुबेर की उत्पत्ति हुई और दूसरी पत्नी ‘कैकसी’ से उत्पत्ति हुई रावण की। इस प्रकार कुबेर और रावण समरक्त भाई थे।
कुबेर ने धन के लिए तप किया। वह उत्तर में जा बसा। रावण जाकर दक्षिण में बस गया। उसकी नगरी लंका थी। जबकि कुबेर की नगरी थी–‘अलका’। कुबेर थे तपस्वी, साधक और अध्यात्मप्राण। उसे कई दुर्लभ चमत्कारी सिद्धियां प्राप्त थीं। इसलिए यक्षों ने उनका राज्याभिषेक कर उन्हें अपना राजा बना लिया। इस तरह कुबेर यक्षपति बन गया।
यक्ष संस्कृति के अधिष्ठाता कुबेर भोग-विलास और देवार्चन, पूजन, धर्म-कर्म आदि से सम्बंधित दोनों संस्कृतियों को स्वीकार करते थे। वे भोग में योग की भावना रखते थे। दोनों संस्कृतियाँ उनके लिए अपने-अपने स्थान पर महत्व रखती थीं। पहली संस्कृति लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी जबकि दूसरी करती थी आध्यात्मिक और पारलौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति। यक्षों के अधिष्ठातृ देव हैं–रुद्र जो उनके उपास्य देव हैं।
*गुह्यक :*
यक्ष जाति के अंतर्गत उनकी एक उपजाति भी है जिसे ‘गुह्यक’ कहते हैं। गुह्यकों में प्राण-शक्ति की अधिकता होती है। अपनी प्रबल इच्छा-शक्ति के बल पर वे भयंकर मायावी होते हैं। मायावी विद्या का आविर्भाव उन्हीं के द्वारा हुआ है। गुह्यक शिव के गण के रूप में प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि शिव को प्रसन्न कर उन्होंने सिद्धि के रूप में उनसे मायावी विद्या प्राप्त की थी जिसका आश्रय लेकर गुह्यक नाना प्रकार की माया की रचना करते हैं। रूप बदलना, लिंग बदलना, एक से अनेक हो जाना, एक साथ कई स्थानों पर दिखाई देना, कृत्रिम वर्षा करना, कृत्रिम फल-फूल के बागों का निर्माण करना आदि ‘मायाविद्या’ है।
रावण, कुम्भकरण, मेघनाद आदि राक्षसों ने गुह्यकों से ही मायाविद्या प्राप्त की थी–इसमें सन्देह नहीं।
कुबेर के पास गुह्यकों का अपना एक विशिष्ट वर्ग था जो कुबेर के धन और राज्य की रक्षा करता था। आज भी मनुष्य के धन और संपत्ति के वे रक्षक माने जाते हैं। हिमालय के उत्तरी भाग में गुह्यकों का निवास था और आज भी अगोचर रूप से उनका निवास है हिमालय में।
गुह्यक मायाविद्या में तो प्रसिद्ध थे ही, इसके अतिरिक्त वे शास्त्रोपजीवी रूप में भी प्रसिद्ध थे। आज भी शास्त्रों का अध्ययन करने वाले पंडितों और शास्त्रजीवी विद्वानों की सहायता अगोचर रूप में करते हैं गुह्यक। कहते हैं कि काशी के एक प्रसिद्ध शास्त्र मर्मज्ञ जनार्दन मिश्र को गुह्यक सिद्धि थी। उसी सिद्धि के बल पर वे शास्त्र मर्मज्ञ बने थे। कई पुराणों की भाषा टीका भी की थी उन्होंने।
यक्षों के अधिष्ठाता कुबेर का सम्बन्ध धन से है। जिस प्रकार गुह्यक उनके धन- संपत्ति की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुबेर भी देवताओं के धन-संपत्ति की रक्षा करते हैं। देखा जाय तो वास्तव में देवताओं के राजा इन्द्र के कोषाध्यक्ष हैं कुबेर।
यक्षों की दूसरी विशेषता उनका जीवन के प्रति व्यावहारिक ज्ञान और विद्वता है। उनकी ज्ञान-विदग्घता बड़ी गहन थी। युधिष्ठिर जैसा सत्यवादी ज्ञानी पुरुष से प्रश्न करने वाला कोई यक्ष ही तो था जो मनुष्य से तीन गुना लम्बा था।
उसका शरीर विशालकाय था और उसके नेत्र बड़े-बड़े थे। उसका मस्तिष्क काफी चौड़ा था। बाल घने, काले और लम्बे थे। वह सूर्य के समान तेजस्वी था और उसकी वाणी में मेघ- गर्जन की समानता थी।
यक्ष लोग लिंग-परिवर्तन की कला जानते हैं। वे किसी स्त्री को पूर्णरूप से पुरुष और किसी पुरुष को पूर्णरूप से स्त्री बना सकने में समर्थ होते हैं और समर्थ होते हैं लैंगिक परिवर्तन के साथ ही रूप, रंग, भाव, विचार, स्वर और वाणी के परिवर्तन में भी। जिस ‘मायावी विद्या’ की चर्चा की गयी है–उसका आधार योग और तंत्र है। एक प्रकार से वह योग तांत्रिक विद्या की एक अद्भुत और रहस्ययमयी कला है जिसे यक्षों ने प्राप्त किया था गुह्यकों से।
उनका इसीलिए ‘गुह्यक’ नाम पड़ा क्योंकि वे रूप-रंग, लिंग आदि परिवर्तन कर सकने जैसी ‘गुह्य विद्या’ के अविष्कारक थे। राजा द्रुपद की पुत्री शिखण्डिनी ने अपने पिता की प्रतिष्ठा को बचाने के लिए पुरुष बनना चाहा था। इसके लिए वह घने जंगलों में एकांतवास कर रहे एक यक्ष से मिली जिसका नाम था–‘स्थूलकर्ण’।
स्थूलकर्ण ने इस शर्त पर उसे पुरुष बनाया कि समयानुसार उसे वह उसका पुरुषत्व वापस कर देगी। शिखण्डिनी इस बात से सहमत हो गयी और उन दोनों ने परस्पर लिंग-परिवर्तन कर डाला। स्थूलकर्ण ने शिखण्डिनी के स्त्रीत्व को धारण कर लिया और शिखण्डिनी ने स्थूलकर्ण के पुरुषत्व को। वह स्त्री से पूर्ण पुरुष शिखंडी बन गया।
दीपावली की अमावस्या की रात्रि को ‘यक्षरात्रि’ कहते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड परम चेतना रूप महाकाल है जिसकी महानिशा में अन्धकार के रूप में पराचेतना महाकाली चारों ओर से आवृत कर लेती है। यक्षगण महानिशा बेला में मनुष्य के विभिन्न रूपों में धरती पर विचरण करते हैं। भिखारी के रूप में, चांडाल के रूप में, कोढ़ी के रूप में, सन्यासी के रूप में या फिर साधारण मानव रूप में।
कभी-कभी धनी सेठ की वेशभूषा में भी विचरण किया करते हैं। लेकिन एक साधक ही उनकी पहचान कर सकने में समर्थ होता है।
दीपावली के सायंकाल का समय अपने आप में अति महत्व रखता है। उस समय जिस गृहस्थ के मकान के मुख्य दरवाजे पर उत्तर और दक्षिण दिशा में दीपक जलते हुए यक्ष देखते हैं तो उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रहती। वे उस गृहस्थ को धन-धान्य से पूर्ण रहने और स्वस्थ व प्रसन्न रहने का आशीर्वाद देते हैं। यक्षों को मिठाइयां विशेष रूप से पसंद हैं।
दीपावली के समय कोई व्यक्ति किसी रूप में आ जाये और मिठाई खाने के लिए मांगे तो उसे मिठाई अवश्य देनी चाहिए। चतुर्दशी, अमावस्या और प्रतिपदा की रातें यक्षरात्रियां कहलाती हैं। इन दिनों रातों में यक्षगण यक्षिणियों के साथ पृथ्वी पर खास कर भारत भूमि पर विचरण करते मिल जाते हैं।
यक्षजाति मानवजाति के अत्यन्त निकट है। यक्ष-संस्कृति और मानव-संस्कृति की एकरूपता पुराणों में अनेक स्थानों पर देखने को मिलती है। कभी-कदा अवसर प्राप्त होने पर यक्ष लोग मानव शरीर में भी जन्म ले लेते हैं और अपने रूप, सौंदर्य, आकर्षक व्यक्तित्व और वाक-पटुता व दूरदर्शिता के कारण उच्चकोटि के कलाकार, नाटककार, अभिनेता, शिल्प-विशेषज्ञ आदि के रूप में संसार में प्रसिद्ध होते हैं।
*मानव से उच्च/परिष्कृत योनि यक्षों की :*
यक्षों की तरह यक्षिणियां भी मानव योनि में जन्म लेती हैं। उनका मानवी व्यक्तित्व विलक्षण होता है। रूप-रंग, आचार-विचार और रहन-सहन भी होता है उनका विलक्षण। संगीत और गायन कला में अत्यन्त निपुण होती हैं वे और उसी क्षेत्र में धन, यश और कीर्ति उपलब्ध करती हैं।
अन्त में संसार में अपना अमिट प्रभाव छोड़कर विदा हो जाती हैं–केवल रह जाती हैं उनकी स्मृतियाँ।
‘वास्तुकला’ और सेतु-निर्माण-कला के भी मर्मज्ञ होते हैं यक्ष। कालिदास वर्णित यक्षों की नगरी ‘अलकापुरी’ का चित्रांकन अद्भुत है। योग्य संस्कारी मनुष्य के मस्तिष्क के गुह्य भाग को प्रभावित कर, उसके द्वारा यक्षगण वास्तु-शास्त्र से सम्बंधित उच्च अट्टालिकाओं, राज-प्रासादों, राज-महलों का सुरुचिपूर्ण निर्माण करते हैं।
इसी प्रकार करते हैं आश्चर्यचकित कर देने वाले पुलों का भी निर्माण। जब ऐसा संभव नहीं होता तो यक्षगण स्वयं मानव योनि में जन्म लेकर उस कार्य को अपनी कलाबुद्धि से करते हैं जिन्हें देखकर मनुष्य भाव-विभोर हो उठता है।
यक्षों द्वारा आकाश-मार्ग से देवताओं पर पुष्पवर्षा करने का उल्लेख पुराणों में उपलब्ध है। देवताओं द्वारा जब असुरों पर विजय प्राप्त होती थी अथवा जब कोई शुभ कार्य संपन्न होता था तो उस समय यक्षगण आकाश- मार्ग से आकर देवताओं को माला पहनाते थे और प्रसन्न होकर उन पर पुष्पवर्षा करते थे। यक्षिणियां समूह-नृत्य करती थीं।
इससे यह बात सिद्ध है कि यक्ष-यक्षिणियां आकाश-गमन विद्या से भी परिचित थीं। एक प्रकार से समस्त कलाओं के ज्ञाता होते हैं वे। देव, दानव, मानव, गन्धर्व, किन्नर, अप्सरा, विद्याधर, राक्षस, भूत-प्रेत आदि जितनी भी योनियाँ हैं, उनमें सर्वश्रेष्ठ यक्ष-योनि है।
_एक प्रकार से यह योनि मानव योनि से भी उच्च और परिष्कृत है और इसीलिए श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है– हे अर्जुन मैं मानवों में यक्षपति कुबेर हूँ।_
श्रीकृष्ण के इस गीता के वचन से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य और यक्ष के बीच कोई विशेष अन्तर नहीं, दोनों की सभ्यता और संस्कृति प्रायः समान है।
*उपदेवता गन्धर्व :*
यक्ष के बाद गन्धर्व का नाम आता है। इनके शरीर का रंग हल्का सिन्दूरी होता है। गन्धर्व भी यक्षों की राजसी प्रवृत्ति के होते हैं। इनका भी क्रीड़ा-क्षेत्र हिमालय है। इनका भी शरीर यक्षों की तरह सुगठित और लम्बा होता है। ऑंखें मोर जैसी होती हैं जो किसी को भी सम्मोहित कर सकने में समर्थ होती हैं।
नाक तोते की तरह नुकीली और कान बड़े-बड़े होते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के रत्नजड़ित स्वर्णाभूषण इनको प्रिय हैं। आभूषणों से रूप-सौंदर्य और भी निखर उठता है इनका। सिर के बाल घने और काले होते हैं जो पीठ पर बिखरे रहते हैं। सिर पर रत्नजड़ित नीले रेशमी वस्त्र की गोल पगड़ी भी बांधते हैं जिसमें आगे की ओर बड़ा सा मोर पंख लगा रहता है।
ये भगवान शिव के भक्त होते हैं। मस्तक पर त्रिपुण्ड धारण किये रहते हैं। गन्धर्व कन्यायें भी अति सुन्दर होती हैं।इनका व्यक्तित्व अत्यन्त मोहक और आकर्षक होता है। ये भी रत्नजड़ित आभूषण धारण करती हैं। नृत्य और गायन कला में निपुण होती हैं गन्धर्व कन्यायें।
जहाँ भी नृत्य और गायन का आयोजन होता है, वहां ये उपस्थित हो जाती हैं। ये भी अकाशगामिनी होती हैं। कोई भी पार्थिव वस्तु इनके आवा गमन में बाधक नहीं बन सकती है। कभी कभी इच्छा होने पर मानव शरीर धारण कर प्रकट हो जाती हैं। शैव धर्मावलंबी होने के कारण यक्ष-यक्षिणियों की तरह गन्धर्व और गन्धर्व कन्यायें शिवरात्रि पर्व पर कशी विश्वनाथ (वाराणसी), त्रयम्बकेश्वर महादेव(नासिक)और महाकाल(उज्जैन) का दर्शन करने के लिए अवश्य आती हैं और वह भी मानव रूप में।
यक्षों की तरह ये भी कलाप्रेमी, नृत्यप्रेमी और गायन कला में दक्ष होते हैं। मृदंग, पखावज, तम्बूरा और सारंगी उनके प्रिय वाद्य यंत्र हैं जिनसे निकलने वाली ध्वनि गन्धर्व लोक तक पहुँचती है जिसे सुनकर गन्धर्व गण प्रसन्न होते हैं। जिस कलाकार पर इनकी कृपा हो जाती है तो समझिये कि पुरे संसार में उसकी ख्याति फैलते देर नहीं लगती। संगीत के क्षेत्र में अबतक जितनी भी प्रगति हुई है, उसकी पृष्ठभूमि में अगोचर रूप से गन्धर्व और गन्धर्व कन्याओं की ही प्रेरणा और सहयोग समझना चाहिए।
*उपदेवता किन्नर :*
यक्ष और गन्धर्वों के बाद किन्नर हैं। उनकी अपनी विशेषता है और वह यह कि स्त्रीलिंग और पुल्लिंग–दोनों हैं वे।स्त्रीत्व की मात्रा भी है और है पुरुषत्व की भी उनमें। किन्नर और किन्नरियों में केवल तत्व की मात्रा का भेद है। किन्नरों में पुरुष तत्व थोडा अधिक होता है।
इसी प्रकार किन्नरियों में स्त्री तत्व की मात्रा कुछ अधिक होती है। यही कारण है कि प्रत्यक्ष रूप में किन्नर और किन्नरियों में समानता दिखाई पड़ती है। वेष-भूषा, व्यवहार आदि दोनों का प्रायः एक सा होता है। सुन्दर, सुगन्धित पुष्प, इत्र, स्वर्णाभूषण, मूल्यवान वस्त्र आदि इनकी प्रिय वस्तुएं हैं।
गायन और नृत्य–दोनों कलाओं में निपुण होते हैं किन्नर। उनका कद मझोला, शरीर सुगठित और तांबीए रंग का होता है। उन्हें एक सीमा तक सुन्दर और आकर्षक कहा जा सकता है। वे पीले और नीले रंग के वस्त्र धारण करते हैं और रत्नजड़ित आभूषण भी। कभी कभी स्त्री- पुरुष के रूप में इस संसार में भी विचरण करते हैं।
कभी- कभी मानव गर्भ से भी जन्म ले लेते हैं लेकिन मानव शरीर में भी वे अर्धनारीश्वर ही रहते हैं। उनमें स्त्रियोचित गुण विशेष होते हैं। फिर भी वे पुरुषों के संसर्ग में रहना अधिक पसंद करते हैं। आत्माकर्षिणी विद्या से किन्नर और किन्नरियां भी प्रभावित होकर गोचर-अगोचर रूप से साधक की सहायता करती हैं।
जिस व्यक्ति को किन्नर या किन्नरी सिद्ध हो जाती है, वह नृत्य और गायन कला का मर्मज्ञ तो हो ही जाता है, साथ ही उसकी ख्याति देश-विदेश तक फैलते देर नहीं लगती। उसके पास धन-वैभव और सुख के सभी साधन भोगने के लिए सुलभ होते हैं।
*उपदेवता विद्याधर और अप्सराएँ :*
उपदेवताओं की अन्तिम श्रेणी में आते हैं विद्याधर और अप्सराएँ। रजोगुणी और तमोगुणी मिश्रित होती हैं इनकी वृत्तियाँ। पृथ्वी और वायु तत्व–दोनों होते हैं इनमें। इसलिए विद्याधर और अप्सराएँ आकाश में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर स्वेच्छानुसार विचरण करती हैं।
विद्याधर अति सुन्दर और गौर वर्ण के होते हैं। इनका शरीर सुगठित और लम्बा होता है। ये शरीर पर अंगवस्त्र और रेशमी पगड़ी धारण करते हैं। इनकी ऑंखें काली और होंठ रक्ताभ होते हैं। विद्याधर वेद शास्त्र मर्मज्ञ और ज्ञानी होते हैं। यज्ञशाला, गोशाला और अश्वशाला के निर्माण में निपुण होते हैं। यज्ञशाला का निर्माण करना अत्यन्त जटिल कार्य है।
थोड़ी सी भी गलती होने पर यज्ञ के हविष्य को देवतागण स्वीकार नहीं करते। यज्ञ व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। यज्ञ के आचार्य को देवगण शाप दे देते हैं अपने यज्ञ हविष्य के अप्राप्त होने पर।।इसलिए प्राचीन काल में यज्ञशाला की निर्माण की दिशा में विद्याधरों का सहयोग लिया जाता था।
धर्मराज युधिष्ठिर के यज्ञ की यज्ञशाला के निर्माण में विद्याधरों का पूर्ण योगदान था। तभी सफल हो सका था यज्ञ।
वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद आदि ग्रन्थों के रहस्यों और गुह्य भावों को जानने-समझने के लिए उच्चकोटि के विद्वान और मनीषी आत्माकर्षिणी विद्या का आश्रय लेकर सहयोग लेते थे विद्याधरों से। अबतक संस्कृत के जितने प्रसिद्ध विद्वान, कवि और साहित्यकार हो चुके हैं, वे सभी किसी न किसी रूप में विद्याधरों से सम्बंधित थे–इसमें सन्देह नहीं।
त्र्यम्बकेश्वर के रहने वाले गजानन शास्त्री जो महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थे, वेद, शास्त्र, पुराण आदि के आलावा तंत्रशास्त्र भी था उनके अध्ययन, चिन्तन और मनन का विषय। तंत्र से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण पुस्तकें मराठी भाषा में उन्होंने लिखी थीं।
कई पुराणों का अनुवाद भी किया था उन्होंने मराठी भाषा में। बड़े ही मनस्वी और विद्वान पुरुष थे गजानन शास्त्री-इसमें कोई सन्देह नहीं। तंत्र के साथ ज्योतिष का भी भरपूर ज्ञान था उनको। गजानन शास्त्री का गहरा सम्बन्ध किसी ‘श्रीधर’ नानक विद्याधर से था। वे जो कुछ भी विलक्षण करते थे, उसमें श्रीधर नामक विद्याधर का पूर्ण सहयोग रहता था।
अत्यधिक सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व होता है विद्याधरों का। सिर पर पीले रंग की रेशमी पगड़ी, शरीर पर पीले ही रंग का अंगवस्त्र, गले में मूल्यवान रत्नजड़ित स्वर्णमालायें, कानों में रत्नजड़ित स्वर्ण कुण्डल, मस्तक पर त्रिपुण्ड की रेखाएं, घनी भौंहें, बड़ी बड़ी, कजरारी ऑंखें, नुकीली नाक और रक्ताभ होंठ–ये उनका व्यक्तित्व होता है।
कोष ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि चौबीस प्रकार के होते हैं विद्याधर और चौबीस प्रकार की ही होती हैं विद्याधरी (अप्सराएँ)।
*अप्सराएँ :*
कोष-ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि चौबीस प्रकार के विद्याधर होते हैं और चौबीस प्रकार की ही होती हैं–अप्सराएँ। जिनको अप्सरा कहा जाता है, उन्हीं का दूसरा नाम है–विद्याधरी।
_अप्सराओं का व्यक्तित्व भी सुन्दर और आकर्षक होता है। उनके शरीर का रंग वर्फ की तरह सफ़ेद और पारदर्शी होता है। इनके पीठ पर मोर पंख के समान दो लंबे लंबे पंख लगे होते हैं। इसलिए अप्सराओं को लोग परी भी कहते हैं। इनके बाल काफी घने और काले होते हैं। इनकी ऑंखें बड़ी-बड़ी होती हैं और उनमें बाघिन की तरह चमक भी होती है। मस्तक चौड़ा, नाक तोते की तरह और होंठ रक्ताभ होते हैं।_
वे दुबली-पतली और लम्बे कद-काठी की होती हैं। इनका स्वर मधुर और कोमल होता है। अपने लम्बे और घने पंखों की मदद से आकाश में चिड़ियों की तरह मुक्त विचरण करती हैं। इनकी उड़ने की गति अकल्पनीय होती है। वे इच्छानुसार कहीं भी आ-जा सकती हैं। इनके मार्ग में कही कोई भी पार्थिव वस्तु बाधक नहीं बन सकती।
_अपनी अबाध गति से सर्वत्र विचरण करने की क्षमता रखती हैं अप्सराएँ–इसमें सन्देह नहीं। तंत्र की चौंसठ विद्याओं में से एक विद्या है–अकाशगामिनी विद्या जिसकी सिद्धि एक ऐसी सिद्धि है जिसके द्वारा अप्सराओं को आकर्षित कर वशीभूत किया जा सकता है–कुछ अवधि तक।_
अप्सराएँ रूप बदलने में सिद्धहस्त होती हैं। वशीभूत होने पर सुन्दर, कमनीय और लावण्यमयी युवती के रूप में साधक के सामने प्रकट होती हैं। काल का ज्ञान अद्भुत होता है अप्सराओं को। इसके अतिरिक्त लोक-लोकान्तरों के विषय में भी गहरी जानकारी रखती हैं वे।
पृथ्वी से सम्बंधित किस लोक-लोकान्तर में कौन-सी घटना घटने वाली है या घट रही है और उसका कैसा किस रूप में पृथ्वी के जन-जीवन पर प्रभाव पड़ेगा–इसका ज्ञान अप्सराओं को पहले से ही रहता है। इसी प्रकार काल-ज्ञान होने के फलस्वरूप वर्तमान में या भविष्य में काल की गति संसार के किस स्थान या क्षेत्र में कैसी होगी और वहां उसका क्या असर होगा–इससे भी परिचित होती हैं-अप्सराएँ।
_विश्वब्रह्माण्ड में सब जगह काल की गति समान नहीं है–कहीं तीव्र से तीव्रतम है और कहीं मन्द से मंदतर। कोई-कोई स्थान तो ऐसे हैं जहाँ काल का प्रभाव है ही नहीं। ऐसे स्थानों को काल-शून्य स्थान कहते हैं जहाँ गहनतम अन्धकार का राज्य है जिसमें प्रवेश करने पर ‘मैं’ का बोध भी समाप्त हो जाता है।_
मानव शरीर में वह काल-शून्य स्थान योग के अनुसार मुख्य मस्तिष्क और अधो मस्तिष्क के संधिस्थल पर है। योगीगण ऊर्ध्वगत प्राणवायु के माध्यम से अपनी आत्मा को उस काल-शून्य स्थान पर ले जाते हैं, जहाँ उनकी अस्मिता का अभाव हो जाता है।
योग की यह एक परम अवस्था है। यदि यह परम अवस्था साधना-काल में उपलव्ध हो जाती है तो शरीरांत होने पर योगीगण ब्रह्माण्ड में स्थित उसी काल-शून्य स्थान में प्रवेश कर जाते हैं और सदैव के लिए उनकी अस्मिता उसी प्रगाढ़ अन्धकार में विलीन हो जाती है।
काल के तीन रूप हैं–महाकाल, काल और खंडकाल। साधना-भूमि में इन्हीं तीनों रूपों को ‘सदाशिव’, ‘शिव’ और ‘त्र्यम्बक’ कहते हैं। खंडकाल से तात्पर्य है–भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमानकाल। खंडकाल की इन तीनों अवस्थाओं को त्र्यम्बक की संज्ञा दी गयी है।
खंडकाल का अस्तित्व केवल भूमण्डल में ही है, लेकिन वह भी समान रूप से नहीं। कहीं भूतकाल का प्रभाव अधिक है तो कहीं भविष्य काल का। रही बात वर्तमान काल की तो उसका प्रभाव इस भूमण्डल में सीमित है और वह सीमित प्रभाव जहाँ है, वह भूमण्डल का चतुर्थ आयामी जगत है। तीन आयाम के जगत में तो उसका अस्तित्व एक प्रकार से न के ही बराबर है।
वास्तव में वर्तमान कहीं है ही नहीं। महाकाल और काल की गति की तो बात छोड़िये। खण्डकाल की ही गति अपने आप में अकल्पनीय है। वर्तमान काल के आधार-बिन्दु पर ‘भविष्य’ कब ‘भूत’ में परिवर्तित हो जाता है–इसका हमें पता ही नहीं चलता। काल के तीव्रतम प्रवाह में भविष्य भूत में बदलता जा रहा है हर पल, हर क्षण। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो वर्त्तमान का अस्तित्व कहीं नहीं है। यदि है तो वह है चतुर्थ आयामी जगत में।
मानव जीवन को ही लीजिये। जीवन ‘काल का ग्रास’ है। हर क्षण जीवन को खा रहा है–काल। क्योंकि वह त्रिकाल से बँधा हुआ है। मानव जीवन का अतीत अर्थात् भूतकाल वास्तव में एक ऐसा दीर्घकालीन इतिहास है जिसका कब और किस अवस्था में प्रारम्भ हुआ–यह बतलाया नहीं जा सकता। और उस तिमिराच्छन्न इतिहास के कौन-से अध्याय में कब, कौन-सी घटना घटी–यह भी नहीं बतलाया जा सकता।
सच पूछा जाय तो मानव जीवन के अतीत का पूरा-का- पूरा इतिहास भूतकाल के गहन अन्धकार में आकण्ठ डूबा हुआ है–इसमें सन्देह नहीं। एक परम योगी ही उस अन्धकार के सागर में डूबकर जान-समझ सकता है और पढ़ सकता है मानव जीवन के अतीत के तिमिराच्छन्न इतिहास को या तो फिर एक अप्सरासिद्ध व्यक्ति।
उन दिनों में कलकत्ता में रहता था। युवावस्था में ही मैं साधना में प्रवेश कर चुका था। उस समय मेरे प्रशिक्षक थे–साधक ‘ भोलागिरि।
अप्सरा की परम सिद्धि थी साधक भोलागिरि महाशय को–इसमें सन्देह नहीं। उसी सिद्धि का आश्रय लेकर भूत और भविष्य की घटनाओं का ऐसा सजीव चित्रण करते थे– भोलागिरिश्री कि जैसे सामने चित्रपट पर देख रहे हों वे सब कुछ। इसी कारण बंगाल में त्रिकालज्ञ के नाम से विख्यात थे वे.
सिद्ध अप्सरा की सहायता से किसी भी व्यक्ति के अतीत में झांक कर सब कुछ जान जाते थे उसके सम्बन्ध में गिरिश्री। यहां तक कि उसके पिछले जन्म की भी बहुत सी बातें(घटनाएं) बतला दिया करते थे उस व्यक्ति को–जो सत्य निकलती थीं। अनुरोध करने पर कभी-कदा भविष्य में घटने वाली घटनाओं पर काल का परदा उठा देते थे वे।
पूरेे डेढ़ वर्ष रहा मैं उनके सान्निध्य में। इस अवधि में योगपरक तंत्र के गूढ़ आयामों से तो परिचित हुआ ही, इसके अतिरिक्त कई प्रकार की दुर्लभ तांत्रिक सिद्धियां भी प्राप्त की मैंने उनसे।
लगभग सौ वर्ष के हो चुके थे वे। सम्भवतया उनका अन्तिम समय निकट आ गया था। एक दिन कांपते स्वर में बोले :
_बड़ी विकट स्थिति में फंस गयी है मेरी आत्मा। तुम्हीं उबार सकते हो, और कोई नहीं। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। बाद में स्थिति स्पष्ट हुई। उनकी आत्मा को शरीर छोड़ने में बाधक हो रही थी उनकी सिद्ध अप्सरा।_
वास्तव में बड़ी विचित्र स्थिति थी भोलागिरिश्री की। यक्षिणी, किन्नरी, अप्सरा आदि अभौतिक आत्माएं मंत्रशक्ति से अविभूत होकर जब भौतिक वातावरण में एकबार आ जाती हैं तो उनका पृथ्वी के गुरुत्ववाकर्षण के बाहर निकल पाना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाता है।
भौतिक जगत में उनको कोई न कोई आश्रय चाहिए ही और आश्रय वही दे सकता है जिसको वे सिद्ध हों। सिद्ध अप्सरा को किसका आश्रय दें–ताकि प्राणांत हो सके। बिना सिद्धि को हटाये प्राणांत भी संभव नहीं-चाहे फिर वह कोई अप्सरा हो या फिर हो कोई यक्षिणी या किन्नरी आदि।
मुझ से उनका कष्ट देखा नहीं गया। एक विशेष तांत्रिक क्रिया द्वारा स्वीकार कर लिया उनकी सिद्ध अप्सरा को मैंने। पूर्णरूप से मुक्त हो गए थे अब वे अपनी विकट सिद्धि से। कुछ देर बाद उनकी आत्मा भी मुक्त हो गयी उनके पार्थिव शरीर के बन्धन से।
*अप्सरानुभूति और मेरी अप्सरा :*
कोष-ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि चौबीस प्रकार के विद्याधर होते हैं और चौबीस प्रकार की ही होती हैं–अप्सराएँ। जिनको अप्सरा कहा जाता है, उन्हीं का दूसरा नाम है–विद्याधरी।
_अप्सराओं का व्यक्तित्व भी सुन्दर और आकर्षक होता है। उनके शरीर का रंग वर्फ की तरह सफ़ेद और पारदर्शी होता है। इनके पीठ पर मोर पंख के समान दो लंबे लंबे पंख लगे होते हैं। इसलिए अप्सराओं को लोग परी भी कहते हैं। इनके बाल काफी घने और काले होते हैं। इनकी ऑंखें बड़ी-बड़ी होती हैं और उनमें बाघिन की तरह चमक भी होती है। मस्तक चौड़ा, नाक तोते की तरह और होंठ रक्ताभ होते हैं।_
वे दुबली-पतली और लम्बे कद-काठी की होती हैं। इनका स्वर मधुर और कोमल होता है। अपने लम्बे और घने पंखों की मदद से आकाश में चिड़ियों की तरह मुक्त विचरण करती हैं। इनकी उड़ने की गति अकल्पनीय होती है। वे इच्छानुसार कहीं भी आ-जा सकती हैं। इनके मार्ग में कही कोई भी पार्थिव वस्तु बाधक नहीं बन सकती।
_अपनी अबाध गति से सर्वत्र विचरण करने की क्षमता रखती हैं अप्सराएँ–इसमें सन्देह नहीं। तंत्र की चौंसठ विद्याओं में से एक विद्या है–अकाशगामिनी विद्या जिसकी सिद्धि एक ऐसी सिद्धि है जिसके द्वारा अप्सराओं को आकर्षित कर वशीभूत किया जा सकता है–कुछ अवधि तक।_
अप्सराएँ रूप बदलने में सिद्धहस्त होती हैं। वशीभूत होने पर सुन्दर, कमनीय और लावण्यमयी युवती के रूप में साधक के सामने प्रकट होती हैं। काल का ज्ञान अद्भुत होता है अप्सराओं को। इसके अतिरिक्त लोक-लोकान्तरों के विषय में भी गहरी जानकारी रखती हैं वे।
पृथ्वी से सम्बंधित किस लोक-लोकान्तर में कौन-सी घटना घटने वाली है या घट रही है और उसका कैसा किस रूप में पृथ्वी के जन-जीवन पर प्रभाव पड़ेगा–इसका ज्ञान अप्सराओं को पहले से ही रहता है। इसी प्रकार काल-ज्ञान होने के फलस्वरूप वर्तमान में या भविष्य में काल की गति संसार के किस स्थान या क्षेत्र में कैसी होगी और वहां उसका क्या असर होगा–इससे भी परिचित होती हैं-अप्सराएँ।
_विश्वब्रह्माण्ड में सब जगह काल की गति समान नहीं है–कहीं तीव्र से तीव्रतम है और कहीं मन्द से मंदतर। कोई-कोई स्थान तो ऐसे हैं जहाँ काल का प्रभाव है ही नहीं। ऐसे स्थानों को काल-शून्य स्थान कहते हैं जहाँ गहनतम अन्धकार का राज्य है जिसमें प्रवेश करने पर ‘मैं’ का बोध भी समाप्त हो जाता है।_
मानव शरीर में वह काल-शून्य स्थान योग के अनुसार मुख्य मस्तिष्क और अधो मस्तिष्क के संधिस्थल पर है। योगीगण ऊर्ध्वगत प्राणवायु के माध्यम से अपनी आत्मा को उस काल-शून्य स्थान पर ले जाते हैं, जहाँ उनकी अस्मिता का अभाव हो जाता है।
योग की यह एक परम अवस्था है। यदि यह परम अवस्था साधना-काल में उपलव्ध हो जाती है तो शरीरांत होने पर योगीगण ब्रह्माण्ड में स्थित उसी काल-शून्य स्थान में प्रवेश कर जाते हैं और सदैव के लिए उनकी अस्मिता उसी प्रगाढ़ अन्धकार में विलीन हो जाती है।
काल के तीन रूप हैं–महाकाल, काल और खंडकाल। साधना-भूमि में इन्हीं तीनों रूपों को ‘सदाशिव’, ‘शिव’ और ‘त्र्यम्बक’ कहते हैं। खंडकाल से तात्पर्य है–भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमानकाल। खंडकाल की इन तीनों अवस्थाओं को त्र्यम्बक की संज्ञा दी गयी है।
खंडकाल का अस्तित्व केवल भूमण्डल में ही है, लेकिन वह भी समान रूप से नहीं। कहीं भूतकाल का प्रभाव अधिक है तो कहीं भविष्य काल का। रही बात वर्तमान काल की तो उसका प्रभाव इस भूमण्डल में सीमित है और वह सीमित प्रभाव जहाँ है, वह भूमण्डल का चतुर्थ आयामी जगत है। तीन आयाम के जगत में तो उसका अस्तित्व एक प्रकार से न के ही बराबर है।
वास्तव में वर्तमान कहीं है ही नहीं। महाकाल और काल की गति की तो बात छोड़िये। खण्डकाल की ही गति अपने आप में अकल्पनीय है। वर्तमान काल के आधार-बिन्दु पर ‘भविष्य’ कब ‘भूत’ में परिवर्तित हो जाता है–इसका हमें पता ही नहीं चलता। काल के तीव्रतम प्रवाह में भविष्य भूत में बदलता जा रहा है हर पल, हर क्षण। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो वर्त्तमान का अस्तित्व कहीं नहीं है। यदि है तो वह है चतुर्थ आयामी जगत में।
मानव जीवन को ही लीजिये। जीवन ‘काल का ग्रास’ है। हर क्षण जीवन को खा रहा है–काल। क्योंकि वह त्रिकाल से बँधा हुआ है। मानव जीवन का अतीत अर्थात् भूतकाल वास्तव में एक ऐसा दीर्घकालीन इतिहास है जिसका कब और किस अवस्था में प्रारम्भ हुआ–यह बतलाया नहीं जा सकता। और उस तिमिराच्छन्न इतिहास के कौन-से अध्याय में कब, कौन-सी घटना घटी–यह भी नहीं बतलाया जा सकता।
सच पूछा जाय तो मानव जीवन के अतीत का पूरा-का- पूरा इतिहास भूतकाल के गहन अन्धकार में आकण्ठ डूबा हुआ है–इसमें सन्देह नहीं। एक परम योगी ही उस अन्धकार के सागर में डूबकर जान-समझ सकता है और पढ़ सकता है मानव जीवन के अतीत के तिमिराच्छन्न इतिहास को या तो फिर एक अप्सरासिद्ध व्यक्ति।
उन दिनों में कलकत्ता में रहता था। युवावस्था में ही मैं साधना में प्रवेश कर चुका था। उस समय मेरे प्रशिक्षक थे–साधक ‘ भोलागिरि।
अप्सरा की परम सिद्धि थी साधक भोलागिरि महाशय को–इसमें सन्देह नहीं। उसी सिद्धि का आश्रय लेकर भूत और भविष्य की घटनाओं का ऐसा सजीव चित्रण करते थे– भोलागिरिश्री कि जैसे सामने चित्रपट पर देख रहे हों वे सब कुछ। इसी कारण बंगाल में त्रिकालज्ञ के नाम से विख्यात थे वे.
सिद्ध अप्सरा की सहायता से किसी भी व्यक्ति के अतीत में झांक कर सब कुछ जान जाते थे उसके सम्बन्ध में गिरिश्री। यहां तक कि उसके पिछले जन्म की भी बहुत सी बातें(घटनाएं) बतला दिया करते थे उस व्यक्ति को–जो सत्य निकलती थीं। अनुरोध करने पर कभी-कदा भविष्य में घटने वाली घटनाओं पर काल का परदा उठा देते थे वे।
पूरेे डेढ़ वर्ष रहा मैं उनके सान्निध्य में। इस अवधि में योगपरक तंत्र के गूढ़ आयामों से तो परिचित हुआ ही, इसके अतिरिक्त कई प्रकार की दुर्लभ तांत्रिक सिद्धियां भी प्राप्त की मैंने उनसे।
लगभग सौ वर्ष के हो चुके थे वे। सम्भवतया उनका अन्तिम समय निकट आ गया था। एक दिन कांपते स्वर में बोले :
_बड़ी विकट स्थिति में फंस गयी है मेरी आत्मा। तुम्हीं उबार सकते हो, और कोई नहीं। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। बाद में स्थिति स्पष्ट हुई। उनकी आत्मा को शरीर छोड़ने में बाधक हो रही थी उनकी सिद्ध अप्सरा।_
वास्तव में बड़ी विचित्र स्थिति थी भोलागिरिश्री की। यक्षिणी, किन्नरी, अप्सरा आदि अभौतिक आत्माएं मंत्रशक्ति से अविभूत होकर जब भौतिक वातावरण में एकबार आ जाती हैं तो उनका पृथ्वी के गुरुत्ववाकर्षण के बाहर निकल पाना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाता है।
भौतिक जगत में उनको कोई न कोई आश्रय चाहिए ही और आश्रय वही दे सकता है जिसको वे सिद्ध हों। सिद्ध अप्सरा को किसका आश्रय दें–ताकि प्राणांत हो सके। बिना सिद्धि को हटाये प्राणांत भी संभव नहीं-चाहे फिर वह कोई अप्सरा हो या फिर हो कोई यक्षिणी या किन्नरी आदि।
मुझ से उनका कष्ट देखा नहीं गया। एक विशेष तांत्रिक क्रिया द्वारा उनके द्वारा सिद्ध उस अप्सरा को अपनी अप्सरा स्वीकार कर लिया मैंने। पूर्णरूप से मुक्त हो गए थे अब वे अपनी विकट सिद्धि से। कुछ देर बाद उनकी आत्मा भी मुक्त हो गयी उनके पार्थिव शरीर के बन्धन से।
*अप्सरा का प्रकटीकरण :*
_मैंने अपने प्रशिक्षक जी की तरह उस अप्सरा का उपयोग नहीं किया कभी। लेकिन प्रत्येक पूर्णिमा की रात में स्वयं सामने प्रकट होने लगी वह अप्सरा।_
प्रकट होकर अपने आप लोक-परलोक की ही नहीं, वर्तमान, भूत, भविष्य की भी बतलाने लगी बातें वे जो अपने आप में अत्यन्त रहस्यमयी होती थीं।
अभी भी हर पूर्णिमा की रात को चंद्रमा के उदय के छः घंटे के बाद भौतिक काया में प्रकट होती है केवल मात्र 25 मिनट के लिए। फिर उसका अस्तित्व विलीन हो जाता है वायुमंडल मे. अप्सरा का प्रकटीकरण मेरे सामने एक बार पहले हो चुका था : जब वो मेरी नहीं बनी थी.
गिरिश्री के शरीरधारी रहने के दौरान एक दिन न जाने कैसे और क्यों पूछ बैठा मैं : क्या मेरा साक्षात्कार हो सकता है अप्सरा से ? क्या मैं उसे देख सकता हूँ ?
क्यों नहीं ? यदि मैं चाहूँ तो संभव हो सकता है। अगली पूर्णिमा की रात को आ जाना तुम।
यह सुनकर न जाने क्यों मेरा सारा शरीर सनसना उठा एकबारगी। परी, अप्सराओं के बारे में कथा-कहानियों में बहुत कुछ पढ़ा-सुना था पर प्रत्यक्ष रूप से कभी किसी अप्सरा को देखने का अवसर मिलेगा–यह तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
आखिर पूर्णिमा की रात आ ही गयी। एक विचित्र-सी बेचैनी थी। ऐसा लगता था कि जैसे कोई अनहोनी घटने वाली हो।
कार्तिक की पूर्णिमा। शाम का समय, पूरव का क्षितिज धीरे-धीरे सफ़ेद हो रहा था। थोड़ी ही देर में बादलों के पीछे से झांकने लगा पूर्णिमा का वह रुपहला चाँद। हाथ में फूल, माला, मिठाई और शराब की बोतल लिए पहुँच गया मैं। रोज़ की तरह तर्क पंचानन महाशय ने महाकाली की छवि पर माला चढ़ाई, अगरबत्ती और घी का दिया जलाया माँ महामाया के सम्मुख और फिर अन्त में मदिरा अर्पण की।
गंगा घाट की तरफ वाली खिड़कियां खुली हुई थीं। झांककर देखा–कोहरे की हल्की परत पर रुपहली चांदनी पसरी हुई थी। वातावरण में गहरी निस्तब्धता थी। काफी ऊपर तक आ गया था चाँद आकाश में।
रात का दूसरा पहर समाप्त होने ही वाला था कि तभी टन-टन कर बारह का घंटा बजा कहीं और उसी क्षण काँप उठी महामाया के सम्मुख प्रज्ज्वलित दीपक की लौ। कमरे का वातावरण बोझिल और रहस्यमय होने लगा। खिड़की के बाहर ही लगी हुई थीं महातंत्र साधक की बोझिल ऑंखें। अचानक चन्दन जैसी सुगन्ध फ़ैल गयी चारों और कमरे में.
उसी समय मेरी दृष्टि घूम गयी खिड़की के बाहर आकाश की ओर। घने कोहरे से बनी एक मानवाकृति धवल चांदनी में धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी खिड़की की ओर। लगा–जैसे तैर रही हो नीले आकाश में वह।
भय, आश्चर्य और कुतूहल से भर गया मेरा मन। उसी समय कमरे के रहस्यमय वातावरण में स्वर गूंज उठा तंत्र साधक का : “शान्त और स्थिर भाव से अपने स्थान पर बैठे रहो. वह आ रही है।”
कब वह मानवाकृति खिड़की से कमरे के भीतर आई और कब एक परम सुंदरी लावण्यमयी युवती के रूप में बदल गयी पलभर में–पता ही न चला।
_निश्चय ही सम्मोहित-सा हो गया था मैं उस समय। समझते देर न लगी। सिद्ध अप्सरा थी वह। सफ़ेद, पारदर्शी काया, अंग-अंग जैसे सांचे में ढले हुए हों। लम्बी गर्दन, गोल चेहरा, पतले रक्ताभ होंठ, बड़ी-बड़ी भौराली ऑंखें, ऊँचा मस्तक और मस्तक पर ध्रुव तारे जैसी चमकती हुई लाल बिंदिया।_
काफी लम्बे-काले रेशमी बाल, सिर पर रत्नजड़ित छोटा-सा मुकुट और गले में विभिन्न प्रकार के चमकते रत्नों की मालाएं, उभरे हुए उरोज, पतली कमर। पूरे पारदर्शी शरीर से प्रस्फुटित हो रही थी शुभ्र् आभा। मुस्कराते हुए त्रिभंगी मुद्रा में खड़ी हो गयी महासाधक के सामने वह सिद्ध अप्सरा।
कुछ क्षण रूककर मेरी और देखती हुई मधुर स्वर में उन से पूछा उसने : कौन है यह युवक ?
मेरे सम्बन्ध में उनका उत्तर सुनकर केवल मन्द-मन्द मुस्कराई। फिर सामने रखे हुए कारण (मदिरा)पात्र को हाथों में उठा कर गट-गट कर पीने लगी वह वारुणी।
_शायद पच्चीस मिनट का समय समाप्त होने वाला था। देखते-देखते कुहरे के रूप में परिवर्तित हो गयी वह विद्याधरी। दूसरे क्षण वह कोहरा भी बिखर गया कमरे के रहस्यमय वातावरण में।_
तब उस पूरी रात मैं सो न सका था। बार-बार मानस-पटल पर उभर आती थी उस अप्सरा की सम्मोहनभरी भौराली आँखेँ। क्या कहना चाहती थीं वे आँखेँ अपनी मूक भाषा में ?
*प्रशिक्षक के देहावसानकाल की घटना :*
उनकी ऑंखें बंद हो चुकी थीं। चेहरा भी हो गया था भावहीन उनका। कमरे का वातावरण एकाएक बोझिल हो उठा एकबारगी। रहस्य का धुआँ भर गया जैसे वहाँ। चन्दन की चिर-परिचित सुगन्ध बिखर गयी उस रहस्यमय कमरे में।
_सिर घुमा कर चारों ओर देखा मैंने। खिड़की के रास्ते आती हुई दिखलायी दी वह अप्सरा मुझे। भय और आतंक के मिले-जुले भाव से भर गया मन। सारा शरीर रोमांचित हो उठा मेरा। क्या चाहती है वह रहस्यमयी विद्याधरी ? किस यज्ञ की पूर्ण आहुति चाहती है वह ?_
अब तक वह अप्सरा उन के सिरहाने खड़ी हो गयी थी। अपलक निहारने लगी थी उनके चहरे की ओर. तब तक उनकी देखरेख करने वाली वृद्ध महिला भी आ गयी थी वहाँ। मगर वह उस अप्सरा के अस्तित्व को नहीं देख पायी थी।
मैं उसकी प्रत्येक गति-विधि को स्पष्ट देख रहा था। अचानक कमरे में हल्का नीला प्रकाश कौंध-सा गया एक पल के लिए और उसी क्षणिक प्रकाश में घट गया अघटित।
उस साधक की काया को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर चली गयी उसकी आत्मा। न जाने कब तक निहारता रहा अपलक मैं सामने जलती हुई चिता को और उसी अवस्था में ऐसा लगा मानो कोई अस्पष्ट स्वर में कह रहा हो–चिन्ता मत करो, तुम्हारी शोध-यात्रा पूर्ण होगी, प्रयास करते रहो..।
_किसका था वह स्वर ? कौन दे रहा था मुझे सांत्वना ? समझ में नहीं आया कुछ।_