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चिकत्सक भी झोला छाप?

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शशिकांत गुप्ते

नीम हकीम खतरे जान का शाब्दिक अर्थ होता है, जिसके पास चिकित्सा करने के लिए चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई ना होते हुए भी जो मरीजों का इलाज़ करता है,ऐसे व्यक्ति के लिए कहा जाता है “नीम हकीम खतरे जान”
सरल भाषा में समझने के लिए ऐसे ही लोगों को झोला छाप डाक्टर कहा जाता है।
उक्त विषय पर व्यंग्य लिखने के लिए और भी मुद्दे खोज रहा था।
मुझे मेरे व्यंग्यकार मित्र का सीतारामजी का स्मरण हुआ। तुरंत उनके पास पहुंचा।
सीतारामजी तो किसी भी विषय पर व्यंग्य लिख सकते हैं।
मेरी जिज्ञासा सुनते ही सीतारामजी ने क्षण मात्र भी देरी न करते मुझसे कहा लिखो।
नीम हकीम खतरे जान, सिर्फ चिकित्सा के क्षेत्र में ही पलते फूलते नहीं हैं, ऐसे लोगों की हर क्षेत्र में भरमार है।
प्रख्यात विचारक,चिंतक और व्यंग्यकार स्व.हरिशंकर परसाईजी का यह व्यंग्य साहित्य के झोला छाप लोगों पर है। परसाइजी ने लिखा है
एक अस्पताल के जनरल वार्ड में दस मरीज भर्ती थे,उनमें से एक मरीज के स्वास्थ्य की स्थिति को गंभीर होते देख वार्ड में कार्यरत नर्स जोर सी चिल्लाई डाक्टर,उस वार्ड में भर्ती दस मरीजों में से छः सात मरीज उठ कर बैठ गए वे सभी हिंदी के(हिंदी भाषा में पी एच डी किए हुए) डाक्टर थे।
यही स्थिति अर्थ शास्त्र की है। देश की आर्थिक स्थिति मृत्यु तुल्य कष्ट भोग रही है। बीमारी का स्थाई हल खोजने के बजाए उसे सिर्फ और सिर्फ “ऋण” का कृत्रिम शक्ति वर्धक डोज पिलाया जा रहा है।
इस डोज के कारण आर्थिक स्थिति स्वयं को सिर्फ विज्ञापनों में सुदृढ़ महसूस करती है,लेकिन वास्तव में वह है तो वेंटीलेटर पर ऐसे कुछ आर्थिक विषय के जानकारों का आरोप है?
फिल्मों के निर्माताओं की कल्पना शक्ति को प्रणाम ही करना चाहिए। ये निर्माता किसी भी युग की पौराणिक कथा पर फिल्म और धारावाहिक निर्मित कर लेते हैं और अपने कल्पनातीत कौशल से तात्कालिक युग के रहन सहन और वेशभूषा कैसी थी,यह भी कल्पना कर लेते हैं।
फिल्मों का अंधानुकरण करने वाले कथित “राज” नेता त्रेता युग की स्त्री निशाचर की वेशभूषा की तुलना वर्तमान में प्रचलित परिधान से कर देते हैं।
त्रेता युग में राम भगवान के अनुज लक्ष्मणजी ने रावण की बहन की उन्हे सिर्फ प्रपोज करने मात्र पर उसकी नाक काट दी थी।
आज समाज में किसकी नाक कट रही है,यह असफल खोज का ही विषय है?
केश सज्जा का तो क्या कहना? फैशन पर अमल करने वालों ने सिद्ध कर दिया है,वे स्त्री पुरुष समान अधिकार के पक्ष में सशक्त हैं,मानसिक रूप से भले ही वे अशक्त क्यों न हो?
सर्वांग को सुशोभित करने के लिए सौंदर्य प्रसाधनों की नित नई खोज अब पांव और हाथों के नाखून को रंगने तक पहुंच गई है।
संस्कार,सभ्यता,आदर्श,और भारतीय संस्कृति सिर्फ पुस्तको में कैद होकर रह है।
सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र पर सीतारामजी कुछ कहते उसी समय कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा प्रायोजित धार्मिक कार्य स्थल पर आयोजित भंडारा भंडारा की कर्कश ध्वनि ने हमारी एकाग्रता भंग कर दिया।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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