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पुरानी बर्बरताओं के साथ नई बर्बरताओं की कुटिल दुरभिसंधि का दस्तावेज  नव उदारवाद

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कात्यायनी

पिछली शताब्दी के अंतिम दशक से नव उदारवाद की भूमंडलीय व्याप्ति का जो नया ऐतिहासिक दौर शुरू हुआ है, तबसे शब्दों के सुनिश्चित अर्थों और ऐतिहासिक निहितार्थों का, स्मृतियों, स्वप्नों और कल्पनाओं की सर्जनात्मक ऊर्जस्विता का, बाजार की कृत्या ने पण्य-पूजा (कमोडिटी-फेटिशिज्म) के जादुई अनुष्ठान द्वारा अपहरण कर लिया है. यूं तो भारतीय सामाजिक जीवन में ह्रासमान, मानवद्रोही पूंजीवादी मूल्यों की मद्धम गति से, हवा में नामालूम तरीके से घुलते जहर जैसी पैठ गत आधी शताब्दी से जारी थी.

पुरानी बर्बरताओं के साथ नई बर्बरताओं की कुटिल दुरभिसंधि का दस्तावेज तो अरसे पहले लिखा जा चुका था लेकिन समाजवादी प्रयोगों के प्रथम चक्र की विफलता और पूंजी के भूमंडलीकरण के नए साम्राज्यवादी दौर ने हमारे समय में भविष्य-स्वप्नों पर राख-अंधेरे की बारिश-सी कर दी है. पूंजीतंत्र के देसी-विदेशी थिंक टैंकों ने नए संचार-माध्यमों के सहारे वैचारिक-सांस्कृतिक वर्चस्व की एक नई कुटिल परियोजना तैयार की है, जिसे लागू करने में जमीर और ईमान की बोली लगा चुके गंजी चमकती आत्माओं वाले घाघ बुद्धिजीवियों के साथ-साथ बहुतेरे शरीफ, भोले-भाले, किंतु कूपमंडूक नागरिक भी शामिल हैं.

किसी भी कुटिल परियोजना को अंजाम देने में ऐसे भद्र नागरिकों की अहम भूमिका होती है. सत्ता आज केवल अधिशेष-विनियोजन (सरप्लस-एप्रोप्रियेशन) के तंत्र के प्रबंधन और विनियमन का तथा इसके विरुद्ध विद्रोह करने वालों को काबू करने एवं कुचलने का ही काम नहीं कर रही है, वह वैचारिक वर्चस्व और बौद्धिक उपनिवेश के लिए सांस्कृतिक-शैक्षिक अधिरचना-विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बेहद प्रभावी इस्तेमाल कर रही है.

व्यवस्था में पैबंदसाजी

आज सत्ता यह काम स्वयं, या प्रत्यक्षत: सामने आकर बहुत कम कर रही है. सत्ताधारी वर्गों और प्रत्यक्ष उत्पादक वर्ग के बीच नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) की एक परत है, जो समाज के मुखर बौद्धिकों द्वारा संघटित हुई है. तमाम कथित रूप से स्वायत्त, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अकादमिक प्रतिष्ठान हैं, जो सरकारों से अधिक अनुदान देसी पूंजी-प्रतिष्ठानों के ट्रस्टों और अंतरराष्ट्रीय दाता एजेंसियों से पाते हैं.

हजारों स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो देसी-विदेशी पूंजी-प्रतिष्ठानों के अनुदानों पर पलती हैं. ये संस्थाएं विभिन्न प्रकार की सुधार और जनकल्याण की कार्रवाइयों द्वारा पूंजी की मार से बेहाल जनसमुदाय के आक्रोश पर पानी के छींटे मारती हैं, साथ ही इस विभ्रम को बढ़ावा देती हैं कि इसी व्यवस्था में पैबंदसाजी से समस्याओं का समाधान संभव है.

इसके अतिरिक्त ये तमाम स्वयंसेवी संस्थाएं और ऐसे ही वित्त पोषित अकादमिक संस्थान शोध-अध्ययन के नाम पर सामाजिक स्थितियों का जमीनी आकलन-विश्लेषण करते हुए देसी सत्ता-प्रतिष्ठान और साम्राज्यवादियों की नीति-निर्धारण के लिए सामग्री मुहैया कराते हैं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर (वैसे ही जैसे प्रिंट मीडिया पर) सत्ता प्रतिष्ठान के बजाय पूंजी प्रतिष्ठानों के स्वामित्व का हिस्सा बहुत बड़ा है. सत्ता की नीतियों और जनमत- दोनों को प्रभावित करने में इस माध्यम की भूमिका पूर्वापेक्षा बहुत बढ़ गई है.

स्वयंसेवी संस्थाओं, पूंजी के नीति-निर्धारक केंद्र के रूप में काम करने वाले अकादमिक संस्थानों, उच्च शिक्षा की संस्थाओं और मीडिया में बुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा लगा हुआ है, जो पूंजी और सत्ता से नाभिनालबद्ध विशेष सुविधाभोगी उच्च मध्यवर्ग है, जिसकी जिंदगी पोषणयुक्त भोजन और जिंदगी की न्यूनतम जरूरतें तक न जुटा पाने वाली देश की पचहत्तर फीसदी आबादी से बहुत दूर है। निम्न मध्यवर्गीय आबादी से भी काफी दूर है। नव उदारवाद की लगभग चौथाई सदी के दौरान इस उच्च मध्यवर्गीय सामाजिक परत का काफी विस्तार हुआ है और यह व्यवस्था का मजबूत सामाजिक अवलंब है।

साहित्य कला-संस्कृति के क्षेत्र में जो बौद्धिक समुदाय अधिक सक्रिय और अग्रणी भूमिका में है, वह ज्यादातर इस विशेष सुविधाभोगी उच्च मध्यवर्ग से ही आता है. इनमें जो कथित वामपंथी हैं, उनका चरित्र तो और घटिया अवसरवादी है. चूंकि ये शब्द-छल और मुद्रा-छल अधिक करते हैं, इसलिए ये और अधिक गिरे हुए हैं. दरअसल, ये सच्चे वामपंथी हैं ही नहीं. ये दुरंगे रीढ़विहीन, कायर, पद-पीठ-पुरस्कार-लोलुप सोशल डेमोक्रेट्स हैं, संशोधनवादी जड़वामन हैं.

वैसे भी हिंदी के ज्यादातर वामपंथी साहित्यकार मार्क्सवादी विज्ञान का ककहरा भी नहीं जानते या मात्र कुछ पल्लवग्राही ज्ञान रखते हैं. जनता के जीवन की जद्दो-जेहद और मशक्कतों से तो खैर वे कोसों दूर हैं. देश की अस्सी फीसदी ग्रामीण-शहरी सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी का जीवन, उत्पादन और विनिमय की प्रणाली में हाल के दशकों में हुए बदलाव उनकी रचनाओं में कहीं नहीं है. बस कुछ है, तो अस्मिता-राजनीति और भारतीय समाज की जड़सूत्रवादी समझ से पैदा हुआ अंधलोकवाद, रेटरिक, मध्यवर्ग के शोकगीत और ऐंद्रिक उल्लास-गान, कर्मकांड, अमूर्त क्रांतिवाद, जड़-जाहिल व्यक्तिवाद, कुछ स्टीरियो टाइप्स और कुछ अमौलिक ‘जादुई’ चौंक-चमत्कार.

साहित्य बरास्ता जी. बी. रोड

इतना सब कुछ के बावजूद 95 फीसदी कविताओं-कहानियों में कोई जान नहीं, क्योंकि वहां वैज्ञानिक दृष्टि और ‘जनसंग ऊष्मा’ दोनों की कमी है. नई पीढ़ी के ज्यादातर कवियों की कविताएं आकृतिहीन, रंग-गंधहीन हैं- वायवीय, अलौकिक या अतिनाटकीय, वाचाल और पाखंडी. हिंदी के ज्यादातर आलोचक दरअसल, अखबारी समीक्षक, ब्लर्ब लेखक या चकबंदी-गुटबंदी के हिसाब से आलोचना की राजनीति करने वाले कुटिल कपट-प्रपंची हैं. प्रणाली-विज्ञान या ज्ञान मीमांसीय प्रश्नों पर न उनका कोई अध्ययन है, न ही समझदारी.

साहित्य का रास्ता जी. बी. रोड बन गया है, जहां प्रतिष्ठानों के दल्ले पद-पीठ-पुरस्कार-शोधवृत्ति का सौदा करते घूम रहे हैं. गलाजत का आलम यह है कि मार्क्सवादी नामवर सिंह कभी आर.एस.एस. के विचारक तरुण विजय की किताब का विमोचन करते हैं, तो कभी बिहार के गुंडे राजनेता पप्पू यादव की आत्मकथा का. कभी शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे पूंजीपतियों की संस्था से पुरस्कार लेने वाले कवि केदारनाथ सिंह मुलायम सिंह के सैफई महोत्सव में जाकर ‘नेताजी’ का चारण-गान कर आते हैं. उदय प्रकाश कट्टर हिंदुत्ववादी योगी आदित्यनाथ के हाथों सम्मानित होते हैं.

पहले एक भारत भवन था, अब कई ऐसे प्रतिष्ठान हैं और म.गां.अं.हि.वि.वि. (महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय) भी है. बहुत सारे वामपंथियों सहित अपनी पूर्व पत्नी पर बर्बर पौरुष का प्रदर्शन करने वाले अग्निधर्मा क्रांतिकारी कवि आलोक धन्वा तत्कालीन कुलपति (धुर नारी-विरोधी उक्ति और व्यवहार के लिए कुख्यात) विभूतिनारायण राय के शरणागत होकर म.गां.अं.हि.वि.वि. में मलाई भी काट आते हैं और छत्तीसगढ़ के हत्यारे डी.जी.पी. विश्वरंजन द्वारा मुक्तिबोध के नाम पर किए जाने वाले साहित्यिक आयोजन में भी पहुंच जाते हैं. कभी भाजपाई मुख्यमंत्री को पितातुल्य बताने वाले लीलाधर जुगाड़ी आजकल कांग्रेसी सरकार के दुलारे बनकर हिमालय की विनाशकारी बांध परियोजनाओं की जमकर वकालत कर रहे हैं. कहां तक गिनाया जाए, रात के अंधेरे में डोमाजी उस्ताद के साथ जुलूस में शामिल कलावंतों की कतार खत्म होती नहीं दीखती.

नया जनशत्रु वर्ग

इस पतन की घृणित महागाथा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है. दरअसल, ज्यादातर उत्तर औपनिवेशिक समाजों में वर्गों की ऐतिहासिक भूमिका कमोबेश उसी प्रकार बदली है, जैसी केन्या के संदर्भ में विचारक-लेखक न्यूगी वा थ्योंगो ने बताई है. राष्ट्रीय आजादी मिलने के बाद एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरिका के देशों के मुक्ति संघर्षों के नायकों का राष्ट्रीय गौरव दशक-दो दशक का समय बीतते-बीतते विघटित हो चुका था.

नए सत्ताधारी वर्ग अब स्वयं अपने देशों की जनता के शोषक और उत्पीड़क थे. नए वैश्विक शक्ति-संतुलन में तीसरी दुनिया के देशों के पूंजीपति साम्राज्यवादियों के जूनियर पार्टनर बन गए और नव उदारवाद के भूमंडलीय दौर में यह स्थिति एकदम व्यवस्थित हो गई. इन देशों में पूंजीवादी विकास ने आम जनता से काफी ऊपर का जीवन बिताने वाला एक खुशहाल मध्यवर्ग पैदा किया, जिसमें बुद्धिजीवी तबके का बहुलांश शामिल है. नव उदारवाद के दो-ढाई दशकों के दौरान इस वर्ग का व्यापक विस्तार हुआ है.

यह नए पूंजीवादी भारत का नया जनशत्रु वर्ग है. इसी वर्ग से आने वाले बुद्धिजीवियों के लिए यदि समाजवादी की ‘अंतिम पराजय’ हो चुकी है, यदि क्रांतियों के ‘महाख्यानों का विसर्जन’ हो चुका है, यदि मार्क्सवाद ‘पुराना’ पड़ चुका है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं. ऐसे कुछ बुद्धिजीवी यदि लेखन में मार्क्सवाद की ऐसी-तैसी कर रहे हैं और जीवन में किसी अकादमिक या शासकीय प्रतिष्ठान में अथवा किसी एन.जी.ओ. में मलाई काट रहे हैं, तो आश्चर्य कैसा ? यह भारतीय खुशहाल मध्यवर्ग (विशेषकर बुद्धिजीवी समुदाय) के ऐतिहासिक विश्वासघात की त्रासद गाथा का ही एक सर्ग है.

दिशाहीन यूटोपिया के भंवर में

हम एक ऐसे विपर्यय और गतिरोध भरे ऐतिहासिक कालखंड से गुजर रहे हैं, जब क्रांति की लहर पर प्रतिक्रांति की लहर अभी पूरी तरह से हावी है. पूंजीवादी जनवाद की संभावनाएं लगभग नि:शेष हो चुकी हैं. असाध्य, अभूतपूर्व ढांचागत आर्थिक संकट से ग्रस्त पूंजीवादी समाज तमाम सांस्कृतिक-नैतिक रुग्णताओं, चरम अलगाव और विविधरूपा फासीवादी प्रवृत्तियों को जन्म दे रहा है. स्वयं पूंजीवादी जनवाद और फासीवाद के बीच का फासला भी बहुत सिकुड़ गया है.

हमारा समय इराक, लीबिया, अफगानिस्तान और सीरिया जैसे देशों में साम्राज्यवादी कहर और दुनिया के कई देशों में साम्राज्यवादी कुचक्र से जारी लंबे खूनी गृहयुद्धों का समय है. यह पिछड़े देशों में थोड़े से ऐश्वर्य द्वीपों और भुखमरी, अभाव के विस्तृत सागरों के निर्माण का समय है. यह भारत में बाबरी मस्जिद ध्वंस, गुजरात-2002 और नमो परिघटना का समय है. यह कठोर नव उदारवाद के बरअक्स एक लोकरंजक विचारधाराहीन आंदोलन द्वारा ‘साफ-सुथरा’ नव उदारवाद का विकल्प प्रस्तुत किए जाने का समय है. यह जनाकांक्षाओं को दिशाहीन मध्यवर्गीय यूटोपिया के भंवर में धकेल दिये जाने का समय है.

लेकिन गतिरोध का यह अंतराल स्थायी नहीं है. यह इतिहास का अंत नहीं है. भविष्य के पूर्व संकेत मिलने भी लगे हैं. पूर्व से लेकर पश्चिम तक जनता अन्याय, लूट, असमानता और भ्रष्टाचार के विरुद्ध विद्रोह कर रही है. फिलहाल एक विचारसंपन्न नेतृत्व के अभाव के चलते स्वत:स्फूर्त संघर्ष बिखर जा रहे हैं, या कोई नया मुखौटा नेतृत्व हड़पकर संघर्ष को फिर व्यवस्था की चौहद्दियों में गिरफ्तार कर ले रहा है पर, यह स्थिति बहुत दिनों तक नहीं बनी रहेगी. तमाम प्रयोगों और मंथनों से गुजर कर एक नई राह निकलनी ही है, क्योंकि धारा के विरुद्ध तैरने वाले पथ-संधानियों की नस्ल अभी भी विलुप्त नहीं हुई है.

ठोस खनिज कविता

यह मेरे लिए आत्मगौरव की बात है कि तमाम छद्म वामपंथी, एन.जी.ओ.-पंथी, संघर्ष के भगोड़े और भांति-भांति के छद्म-वामपंथी मुझसे घृणा करते हैं, मुझे अपने हमलों का निशाना बनाते हैं या मेरे विरुद्ध ‘चुप्पी का षड्यंत्र’ रचते हैं. मैं पद-पीठ-पुरस्कार के लिए नहीं लिखती. ऋषि-महर्षि आलोचकों के आशीर्वादों की मैं आकांक्षी नहीं. मेरे लिए लिखना संघर्ष के तमाम रूपों में से एक रूप है. जीने का तरीका है. तीन दशकों से जारी यह यात्रा आगे भी इसी रूप में जारी रहेगी.

वाष्पीय, लोकोत्तर, धवल-निर्मल, सुगढ़ तराश और बारीक कतान की कविताओं की दुनिया मेरी नहीं. मैं ठोस खनिजों जैसी, जिंदगी की ‘अकाव्यात्मक’ परेशानियों जैसी, धमन भट्ठी के सामने खड़े मजदूर के चेहरे पर चमकती आंच जैसी कविताएं लिखना चाहती हूं. बहुधा ऐसा होता है कि रोज-रोज की सामाजिक-राजनीतिक सरगर्मियों के बीच कविता लिखने का खयाल तक नहीं आता.

हर मार्मिक घटना पर कविता लिखने वाला कवि/दुनिया का सबसे हृदयहीन व्यक्ति होता है./कभी-कभी कविताएं न लिखना/पाखंडी और वाचाल होने से बचाता है./कविताएं न लिखना कभी-कभी/दुश्चरित्र होने से रोकता है./कभी-कभी संपादक की मांग पर कविता लिखने/और सुपारी लेने के बीच कोई बुनियादी फर्क/नहीं रह जाता./कविताएं न लिखने का निर्णय/कभी-कभी भाड़े के हत्यारों, दरबारियों,/भड़ुओं और मीरासियों के झुंड में/शामिल होने से बचने का निर्णय होता है.

(2014 ई. के नवभारत टाईम्स में प्रकाशित)

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