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सच मत झुठलाओ!  तुम मर रहे हो

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            कुमार चैतन्य 

मौत में होता क्या है? प्राणों की सारी ऊर्जा जो बाहर फैली हुई है, विस्तीर्ण है, वह वापस सिकुड़ती है, अपने केन्द्र पर पहुंचती है। 

    जो उर्जा प्राणों की सारे शरीर के कोने-कोने तक फैली हुई है, वह सारी उर्जा वापस सिकुड़ती है, बीज में वापस लौटती है।

     शरीर जैसे एक दीये को हम मंदा करते जाएं, धीमा करते जाएं, तो फैला हुआ प्रकाश सिकुड़ जाएगा, अंधकार घिरने लगेगा।

      प्रकाश सिकुड़कर फिर दीये के पास आ जाएगा। हम और धीमा करते जाएं, और धीमा; और फिर प्रकाश बीज -रूप में, अणुरूप में निहित हो जाएगा, अंधकार घेर लेगा।

प्राणों की जो ऊर्जा फैली हुई है जीवन की, वह सिकुड़ती है, वापस लौटती है अपने केन्द्र पर। 

    नई यात्रा के लिए फिर बीज बनती है, फिर अणु बनती है। यह जो सिकुडा़व है, इसी सिकुडा़व से, इसी संकोच से पता चलता है कि मरा! मैं मरा! क्योंकि जिसे मैं जीवन समझता था, वह जा रहा है, सब छूट रहा है।

     हाथ -पैर शिथिल होने लगे, श्वास खोने लगी, आंखों ने देखना बंद कर दिया, कानों ने सुनना बंद कर दिया।

      ये तो सारी इंद्रियां, यह सारा शरीर किसी ऊर्जा के साथ संयुक्त होने के कारण जीवंत था। वह उर्जा वापस लौटने लगी। देह तो मुर्दा है, वह फिर मुर्दा रह गई। घर का मालिक घर छोड़ने की तैयारी करने लगा, घर उदास हो गया, निर्जन हो गया। 

    लगता है : मरा मैं। मृत्यु के इस क्षण में पता चलता है कि जा रहा हूं, डूब रहा हूं, समाप्त हो रहा हूं।

बहुत बार हम मर चुके हैं, अनंत बार, लेकिन हम अभी तक मृत्यु को जान नहीं पाए। क्योंकि हर बार जब मरने की घड़ी आई है, तब फिर हम इतने विह्वल और बेचैन और परेशान हो गए है कि उस बेचैनी और परेशानी में कैसा जानना?

     कैसा ज्ञान? हर बार मौत आकर गुजर गई है हमारे आस-पास से और हम फिर भी अपरिचित रह गए हैं उससे। ऐसे जन्मों तक मरते रहते हो. अब भी ऐसे ही मर रहे हो. इस सच को मत झुठलाओ.

     मरना अर्थपूर्ण तभी होगा, जब जीना अर्थपूर्ण होगा. जीते जी खुद को मृतदेह अनुभव करके आत्मवत जीकर तृप्त नहीं हुए तो मोक्ष असंभव. मोक्ष ही वास्तविक मृत्यु है. सही अर्थो में मरने की कला सीखनी है तो स्वागत है.

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