चंद्रभूषण
गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों के अलग-अलग नतीजे एक साझा बात बता रहे हैं कि भारत में लोग सरकारों के कामकाज के आधार पर ही वोट डाल रहे हैं, किसी की हवा-बयार देखकर नहीं। वरना बीजेपी के लिए गढ़ बचाने का सवाल दोनों जगह था। केंद्र के सारे ताकतवर मंत्री गुजरात में ही नहीं, हिमाचल प्रदेश में भी डबल इंजन की सरकार और प्रधानमंत्री का चेहरा दिखाकर ही वोट मांगने गए थे। सत्तारूढ़ बीजेपी की रणनीति में सिर्फ एक फर्क दोनों राज्यों में था कि उसने हिमाचल प्रदेश में जयराम ठाकुर को अपना कार्यकाल पूरा करने का मौका दिया था जबकि गुजरात में कोरोना के दौरान दिखे कुप्रबंधन को ध्यान में रखते हुए चुनाव के साल भर पहले अपना मुख्यमंत्री बदल दिया था। नतीजे इतने अलग आए तो इसकी वजह इस एक फर्क तक सीमित नहीं मानी जा सकती।
वोट प्रतिशत का अंतर
गुजरात में बीजेपी ने 52.5 फीसदी वोटों के साथ क्लीन स्वीप किया है। इसके विपरीत हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के साथ आमने-सामने की टक्कर में वह 42 प्रतिशत वोट ही हासिल कर सकी, जबकि कांग्रेस उससे एक फीसदी ज्यादा वोट लेकर सरकार बनाने की तरफ बढ़ती दिख रही है। डबल इंजन सरकारें पिछले पांच वर्षों में जब दोनों ही जगह चल रही थीं तो दोनों राज्यों की रफ्तार इतनी अलग कैसे हो गई?
- बीते एक साल में कई बड़े औद्योगिक प्रॉजेक्ट गुजरात लाए गए हैं। इनमें कुछ तो दूसरे राज्यों से, खासकर महाराष्ट्र से उठाकर गुजरात में। इसका फायदा लाजमी तौर पर वहां की भूपेंद्र पटेल सरकार को मिला।
- गुजरात पहले से ही देश का अग्रणी राज्य है और बीजेपी की सरकार वहां एक बार और बन जाने पर स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में और आगे जाने का मौका उसे मिलेगा, यह कहानी बनाने में पार्टी को वहां खासी मदद मिली।
- आम आदमी पार्टी की ओर से उसकी इस कहानी को पंक्चर करने की कोशिश हुई। मसलन, यह कहकर कि इतना अमीर राज्य होने के बावजूद विकास के इंसानी मानकों पर गुजरात काफी पीछे है। स्कूलों और अस्पतालों की हालत वहां कुछ खास अच्छी नहीं है और ‘गुड गवर्नेंस’ का हाल ऐसा है कि मोरबी के झूला पुल का मेंटिनेंस देखने वाली कंपनी का कोई शीर्ष व्यक्ति भीषण दुर्घटना के बाद भी पकड़ा नहीं गया है।
- चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि खुद मोरबी में भी बीजेपी को जबर्दस्त जीत हासिल हुई है, यानी विपक्ष की यह जवाबी कहानी सत्तारूढ़ दल की ‘विकास गाथा’ का मुकाबला नहीं कर पाई।
हिमाचल में क्या हुआ
इसके उलट, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार में शुरू से अंत तक स्थानीय महत्व के कुछ मुद्दे पकड़कर रखे।
- सरकारी कर्मचारियों के दिल को छूने वाली ओल्ड पेंशन स्कीम, नौजवानों को परेशान करने वाली अग्निवीर योजना और सेब किसानों की बदहाली को उसके नेताओं ने अपने हर चुनावी भाषण में मजबूती के साथ उठाया।
- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहां अपने भाषणों में कहते रहे कि ‘आप मुझे देखें, आपका वोट स्थानीय प्रत्याशी को नहीं, सीधे मुझे मिलेगा।’ मगर लोगों ने मुद्दे देखे, खराब सड़कें देखीं और अपना मुख्यमंत्री देखा, जो अपनी कुर्सी को लेकर कुछ ज्यादा ही आश्वस्त दिखाई पड़ता है।
याद रहे, ये दोनों विधानसभा चुनाव कांग्रेस में नेतृत्व के स्तर पर भारी ऊहापोह की स्थिति में लड़े गए हैं। अर्से बाद गांधी-नेहरू परिवार से बाहर का कोई पार्टी अध्यक्ष मैदान में उतरा है, लेकिन मल्लिकार्जुन खरगे के हाथ में ताकत कितनी है, कोई नहीं जानता। गुजरात में एक-दो प्रतीकात्मक सभाओं को छोड़ दें तो राहुल गांधी भी इन चुनावों को एक तरफ रखकर अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में ही जुटे रहे। प्रियंका गांधी ने हिमाचल प्रदेश में कुछ सभाएं कीं, लेकिन संगठन की ओर से मिली किसी जिम्मेदारी के तहत नहीं। ऐसे में हिमाचल प्रदेश की जीत में कांग्रेस के शीर्ष परिवार की कोई बड़ी भूमिका नहीं मानी जाएगी। देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए एक लिहाज से यह अच्छा भी है।
कांग्रेस ने छोड़ा दावा?
गांधी के गुजरात में कमजोर तबकों के हितों और धर्मनिरपेक्षता के अजेंडे पर आधारित अपना दावा ही छोड़ देना यकीनन कांग्रेस के लिए बहुत बुरी खबर है। गुजरात का अपने लिए तमिलनाडु, आंध्र-तेलंगाना या दिल्ली हो जाना वह बिल्कुल अफोर्ड नहीं कर सकती।
- 2014 के आम चुनाव तक कांग्रेस के लिए गुजरात एक ऐसा राज्य माना जाता था, जिसमें एकाध अपवाद छोड़कर बीजेपी और उसकी बराबर की भागीदारी हुआ करती थी।
- खासकर पूर्वी गुजरात की आदिवासी बेल्ट उसके हाथ में मानी जाती थी और पिछले विधानसभा चुनाव में तो सौराष्ट्र-कच्छ में भी उसने बीजेपी को पीछे छोड़ दिया था।
- इस बार कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा धक्का यह कहा जाएगा कि बीजेपी ने आदिवासी बेल्ट भी उसके हाथ से छीन ली है।
- सामने कोई दावेदार ही न हो, सत्तारूढ़ दल के लिए ऐसा चुनाव किसी राज्य में शायद पहली बार देखा गया है। एक समय पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के सामने विपक्ष बिल्कुल थका हुआ नजर आता था, लेकिन कांग्रेस और तृणमूल ने इस तरह कभी उसके सामने हथियार नहीं डाले थे।
नए क्षत्रप
जिस तरह गांधी-नेहरू परिवार ने उत्तर प्रदेश में कभी कोई ताकतवर कांग्रेसी नेतृत्व नहीं खड़ा होने दिया, वैसी ही कोई कहानी एक अर्से से गुजरात में भी देखी जा रही है। मुख्यमंत्री की पगड़ी पहनाए जाने से पहले भूपेंद्र पटेल सिर्फ एक बार के विधायक थे और उनकी पहचान तब तक राजनेता से ज्यादा एक जातीय-धार्मिक नेता की ही थी। लेकिन अभी वे देश के सबसे ताकतवर राज्य की सबसे ताकतवर जाति के सेकंड टर्म सीएम बनने जा रहे हैं। एक मांद में दो (बल्कि तीन) शेर न रह पाने का मुहावरा जीवविज्ञान के लिए नहीं, राजनीति के लिए ही गढ़ा गया था।