-सुसंस्कृति परिहार
बुन्देलखंड के सागर नगर के एक दकियानूसी क्षत्रिय परिवार में जन्मे डॉ हरिसिंह गौर ने जीवन भर सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ विद्रोह किया और सफलताएं प्राप्त कीं ।जिसका स्वरूप हमें उनके लेखक, शिक्षाविद एवं विधिवेत्ता में साफ नजर आता है ।
भारत की आंतरिक कमजोरी का कारण डॉ गौर सामाजिक कुरीतियों को मानते हैं।उनका कहना था कि हमारी इसी रीति नीति के कारण हम लगातार गुलामी में जकड़े रहे । “इंडिया माई लैंड” कविता में उन्होंने हमारे समाज के इसी पक्ष को छुआ है देखें ये पंक्तियाँ —-
सदियों के अंध सपनों में
बंधा है आज जीवन
जाति पाशों में फंसा तू
काट दे ये तिमिर बंधन
वीर तेरे तीर के हों
लक्ष्य युग युग के अंधेरे
देश मेरे----
उन्होंने अपनी पुस्तक “लाइव –7” में लिखा है कि बचपन में वे जब जबलपुर में पढ़ते थे तब जातिप्रथा के कायल थे लेकिन शीघ्र ही वे इसके खिलाफ खड़े हो गये तथा जीवन पर्यन्त उसकी अमानुषिकता और अविवेक के विरूद्ध संघर्ष करते रहे।
सबसे पहले उनका ध्यान हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों की ओर गया और उन्होंने लिखा -‘हिन्दू समाज में सुधार करने की मेरी उत्कट अभिलाषा थी मैंने सोचा कि कोई भी हिन्दू तब तक सुधारक की बात नहीं सुनेगा जब तक उसे यह ज्ञात नहीं हो जाता है कि हिन्दू कानून आखिर है क्या?’
यह जानने के लिये उन्होंने विभिन्न धर्मग्रंथों और प्रथाओं में बिखरे हुये नियमों को हिन्दू कानून संहिता के अन्तर्गत एकत्र किया तथा उनका भाष्य करने जैसा दुष्कर कार्य भी किया महिलाओं को पुरुष की गुलामी से मुक्त करने और दीन-हीन स्थिति से बाहर लाने के लिये डॉ गौर ने केन्द्रीय धारा सभा में अनेक विधेयक प्रस्तुत किये । जब उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह विधेयक पेश किया तो अनुदार सदस्यों ने कदम कदम पर भीषण विरोध किया और केन्द्रीय धारा सभा ने उसे बार बार अस्वीकार किया किन्तु डॉ हरिसिंह गौर परास्त नहीं हुये बारम्बार विधेयक प्रस्तुत करते रहे और अंतत:सदस्यों को उसकी उपादेयता समझाने में समर्थ हुये तब कहीं जाकर सन 1923 में पुरुष दासता के खिलाफ अधिनियम बन सका ।
इतना ही नहीं उन्होंने अपने सतत् प्रयासों से उत्पीड़न और उपेक्षा की शिकार स्त्रियों को अपने पति से अलग रहने का अधिकार भी उपलब्ध कराया। सन् 1928 में हिन्दू मेरिज डिवेल्यूशन बिल पेश करते हुये प्रारंभिक भाषण में उन्होंने कहा था -‘मैं तो केवल न्याय कर रहा हूं ।यह विधेयक केवल सामाजिक सुधार का नहीं वरन मूलभूत मानवतावादी कदम है और इसे ना केवल स्मृतिकारों का बल्कि हजारों वर्ष की परम्पराओं का भी समर्थन प्राप्त है। स्मृतिकारों की भाषा स्पष्ट और मत निश्चित है ।विगत इतिहास के ऊषाकाल में इस देश में निवास करने आये लोगों द्वारा मनुसंहिता की रचना की गई जो कि कानून पर रचित ग्रंथों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जो वेदों का परिशिष्ट मानी जाती है उसमें तलाक का अधिकार नि:संदेह रूप से दिया गया है। मैं स्वीकार करता हूं कि बाद की त्रासोन्मुख अवधि में जबकि पुरूषों के अत्याचार की धार और तेज हो गई और स्त्रियों के अधिकार पैरों तले रौंदे जाने लगे ,कुरीतियों का बोलबाला हो गया और मैनें इस विधेयक से क्या चाहा -केवल यही कि यदि किसी स्त्री का पति यदि नपुंसक ,पागल या गलित कोढ़ी है तो अदालत को यह अधिकार हो कि वह ऐसे विवाह को समाप्त कर दे।’
विधेयक के पुरातन पंथी विरोधियों को उन्होंने लताड़ते हुये असेम्बली में कहा था-‘ कि आप दकियानूसी विचारों पर ध्यान दे रहे हैं इन विचारों ने सामाजिक सुधारों का सदैव विरोध किया है वे हमेशा मानवबलि ,बालविवाह तथा सती प्रथा आदि के पक्ष में रहे हैं। मैं आपसे पूछता हूं कि क्या आप यह बिना बिचारे कि यह विवेकपूर्ण अथवा आधुनिक समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप है कि नहीं ,घुटने टेक देंगे’
अपने जीवन के अंत तक वे जातिप्रथा को समाप्त करने के प्रयत्न में लगे रहे ।डॉ गौर ने सन् 1946 में हिन्दुस्तान रिव्यू में अन्तर्जातीय विवाह की सराहना करते हुये लिखा कि हिन्दू धर्म का प्रमुख सिद्धांत सहिष्णुता है और अन्तर्जातीय विवाह के माध्यम से ही एक दिन जाति प्रथा का अंत होगा तथा दलित जातियों का हिन्दू समाज में पूर्णरूपेण विलय होगा ।
अनेक वर्षों के अथक प्रयास के बाद डॉ गौर सन् 1928 में हिन्दू इन्हेरिटेन्स विधेयक को केन्द्रीय धारा सभा में स्वीकृत कराने में सफल रहे । इसके बड़े दूरगामी परिणाम हुये और हिन्दू महिलायें अपने निकट सम्बंधियों की सम्पत्तियों में हिस्सेदार बनने की अधिकारिणी बनीं । जब श्री हरिविलास शारदा ने हिन्दू चाईल्ड मेरिज बिल पेश किया तब डॉ गौर ने उसका ना केवल जोरदार समर्थन किया था बल्कि सहमति उम्र 12वर्ष से 14वर्ष कराने का श्रेय उन्हें ही जाता है।
पहले महिलाओं को वकालत करने का अधिकार भी नहीं था। इस अन्याय के विरुद्ध भी उन्होंने आवाज़ बुलंद की और एक विधेयक पेश कर महिलाओं को उनका हक हासिल कराया। वास्तव में डॉ हरिसिंह गौर अपने समय से बहुत आगे की सोच रखते थे जिन सामाजिक सुधारों की कल्पना उन्होंने कई दशकों पहले की थी उनको आजाद भारत में हिन्दू कोड विधेयक कानून बनाकर पूर्ण रूप प्रदान किया गया है।
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था-‘कि डॉ गौर का विवेक की शक्ति में विश्वास था उनकी अभिलाषा थी कि हम वैज्ञानिक दृष्टि अपनायें और जीवन के प्रति विवेकी बनें।’ तत्कालीन मंत्री हुमायूं कबीर का कहना है -‘कि डॉ गौर जानते थे कि जीवन कभी स्थिर नहीं हो सकता यहां तक कि संस्थान ,परम्पराऐं एवं सांस्कृतिक स्वरूप भी लगातार बदलते रहते है और उन्हें बदलना ही चाहिए।
अत: एक बात स्पष्ट हो जाती है कि डॉ हरिसिंह गौर देश और समाज में बड़े सामाजिक बदलाव के आकांक्षी थे उन्होंने अपना तमाम जीवन देश में असमानता दूर करने एवं सम्यक बदलाव लाने की खातिर अर्पित कर दिया ।ऐसे युग पुरुष को याद रखना ही काफ़ी नहीं उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब हम शिक्षार्जन करें और अपने नज़रिए को तंगख्याली से बदलें।
विदित हो इसी मंतव्य की आहूति में डॉ गौर ने अपनी सारी सम्पत्ति सागर विश्वविद्यालय हेतु दान कर दी थी तथा विश्वविद्यालय में अपने विषय में पारंगत मनीषियों को यहां पदस्थ कराया।सागर विश्वविद्यालय ही आजकल डॉ हरि सिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय के रूप में मौजूद है ।