अग्नि आलोक

*बुनियादी सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया डा.लोहिया ने*

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*डॉक्टर लोहिया की पुण्य तिथि 12 अक्टूबर पर विशेष लेख*

रामस्वरूप मंत्री

महापुरूषों की स्मृति और मूल्यांकन से ही कोई समाज ऊर्जा ग्रहण कर निखर सकता है.  हालांकि मौजूदा उपभोक्तावादी दौर में इन चीजों के प्रति अनास्था है. ऐसी परिस्थिति में डॉक्टर राममनोहर लोहिया के शब्दों में कहें तो ‘निराशा के कर्त्तव्य’ ही इस राष्ट्रीय-समाज को नयी राह दिखा सकते हैं।गांधी जी के बाद डॉक्टर राममनोहर लोहिया मुझे सबसे प्रखर विचारक-चिंतक लगते हैं. अपनी धरती-मिट्टी, उसकी सुगंध से जुड़े हुए है। लोहिया जी  ने दूसरे महान चिंतकों की तरह सुव्यवस्थित ढंग से अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए पुस्तकें नहीं लिखी. छिटपुट लेखन-भाषण, सभा-गोष्ठियों में दिये विचार, ‘जन’ ‘मेनकाइंड’ में लिखी चीजें, पार्टी अधिवेशनों में हुई बहसें, लोकसभा की बहसें ही, वे आधारभूत चीजें हैं, जिनसे लोहिया जी की वैचारिक मान्यताओं के बीच एक अटूट रिश्ता, श्रृंखला या तारतम्य की तलाश की जा सकती हैं, कोई सुव्यवस्थित-संपूर्ण विचारधारा उन्होंने नहीं दी. टुकड़े सूत्र या नारो में कहीं उनकी बातों में एक समग्र दृष्टि झलकती हैं। 

डॉ.राममनोहर लोहिया आधुनिक भारतीय राजनीति के मौलिक चिंतकों में से एक हैं. गाँधी, आंबेडकर, लोहिया यह त्रयी बनती है. लोहिया एक क्रांतिकारी और रचनात्मक विचारों वाले नेता थे. उनकी सोच हमेशा ही अग्रगामी रही, वह प्रतिगामी सोच-विचार वाले नेता नहीं थे. हाँ, यह जरूर है कि उन्होंने बुनियादी सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया. वह भारत में समाजवादी राजनीति के सिद्धान्त, व्यवहार, आंदोलन सब एक साथ थे लोहिया अपनी बेबाकी, निडर स्वभाव और निष्कवच आचरण के लिए जाने जाते हैं. इस संबंध में उनके साथी ही नहीं बल्कि उनके विरोधी भी उनके कायल थे

रा जनीति में वैचारिकता के लगातार बढ़ते ह्रासके दौर में आने वाले दौर के लोग हैरत करेंगे कि दुनिया में एक ऐसा फक्कड़ राजनेता भी पैदा हुआ था, जिनकी वैचारिकता की परिधि में समाज, धर्म, राजनीति और अर्थ नीति जैसे तमाम विषय शामिल हैं। निधन के लंबे बाद भी लोहिया के विचार का प्रासंगिक बने रहना अहम है। लोहिया अनेक सिद्धान्तों, कार्यक्रमोंऔर क्रांतियों के जनक हैं। वे सभी अन्यायों के विरुद्ध एक साथ जेहाद बोलने के पक्षधर थे। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। वह इन क्रांतियों केबारे में बताते हैं कि सातों क्रांतियां संसार में एक साथ चल रही हैं।

ग़ैर-कांग्रेसवाद की रणनीति के तहत सभी विपक्षी दलों का एक साझा मंच बनाने में लोहिया कामयाब रहे. इसका नतीजा यह हुआ कि 1967 के आम चुनावों न केवल संसद में बड़ी तादाद में विपक्षी सदस्य चुनकर आए बल्कि उत्तर भारत के नौ राज्यों में विपक्षी संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनीं जिनमें समाजवादियों से लेकर वामपंथी दल और भारतीय जनसंघ से लेकर रिपब्लिकन पार्टी जैसे दलित आधार वाले दल भी शामिल हुए. ग़ैर-कांग्रेसी सरकारों के लिए जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया गया उसमें समाजवादी विचारधारा और नीतियों-रीतियों का प्रभाव अधिक था. इसी कार्यक्रम में पिछड़ों को 60 प्रतिशत आरक्षण देने, ग़रीब किसानों का लगान माफ़ करने, महिलाओं को आगे लाने और उन्हें ज़्यादा प्रतिनिधित्व देने, मजदूरों के श्रम के बदले दाम बांधने और जाति तोड़ने जैसी बातें सामने आयीं.

बहुआयामी सोच था उनका, वशिष्ठ, बाल्मीकि, रामायण, कृष्ण, राम, शिव, रामायण मेला जैसे विषयों पर मौलिक अवधारणाएं-व्याख्याएं कृष्ण पर जिस ढंग से उन्होंने विचार किया है, वैसा किसी संत, साधक या महान बुद्धिजीवी ने भी नहीं सोचा डॉ लोहिया की राजनीति इन्हीं मौलिक विचारों-बिंदुओं की बुनियाद पर खड़ी थी. राजनीति के उस भवन में कई चिंदिया आज लग गयी है. झाड़-झंखाड़ भी हैं, पर वह बुनियाद स्रोत जिनसे उनकी राजनीतिक विचारधारा प्रस्फुटित हुई थी, आज और अधिक प्रासंगिक है।

आज गैर कांग्रेसवाद का सपना कहां है ? या इससे देश को क्या मिला ? कुछ राजनीतिक विश्लेषक आरोप लगाते हैं कि आज भाजपा इस गैर कांग्रेसवाद की सीढ़ी पर चढ़ कर ही शीर्ष पर पहुंची है. वह पूर्णतया असत्य भी नहीं हैं. हालांकि जनतंत्र में डॉ लोहिया रोटी (सत्ता) पलटने की अनिवार्यता पर बार-बार जोर देते थे. वह निराश रहने और काम करने (निराशा के कर्तव्य) के पैरोकार थे।

लोहिया की राजनीतिक दृष्टि जितनी पैनी थी, उनका सामाजिक दृष्टिकोण उतना ही स्पष्ट. हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता की बात हो, ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ में सुधार की बात हो या फिर नदियों, तीर्थ-स्थानों, इबादत की जगहों, मकबरों आदि की सफ़ाई का मुद्दा हो, जाति-प्रथा और स्त्रियों की दशा और अधिकार का मामला हो, आरक्षण का मुद्दा हो, इन सब मुद्दों पर लोहिया ने बहुत ही स्पष्ट योजना के साथ अपनी बात रखी है. लोहिया-“मनुष्य को उसके अतीत से काटकर देखने के हिमायती थे. मनुष्य अपने अतीत की निर्मिति है, यह विचार उनके लिए असह्य रहा होगा क्योंकि इसी विचार से जाति-व्यवस्था, रंग-भेद और लिंगभेद की व्यवस्थाएं पैदा हुईं, जिन्हें लोहिया बेहद नफरत करते थे. अतीत से मिले गुणों अथवा अवगुणों के आधार पर किसी के व्यक्तित्व का आकलन करना जातिवाद, नस्लवाद और लिंगवाद को खाद-पानी देने के समान है. इसलिए लोहिया व्यक्ति को उसके कामों और इरादों से जानने-समझने के पक्ष में थे.

वे आधुनिकतम विद्रोही और क्रांतिकारी थे, लेकिनशांति व अहिंसा के भी अनूठे उपासक थे। इतना नहीं, लोहिया मानते थे कि पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों एक-दूसरे के विरोधीहोकर भी दोनों एकांगी और हेय हैं। इसलिए इन दोनों से समाजवाद ही छुटकारा दिला सकताहै। डॉ.लोहिया समाजवाद को प्रजातंत्र के बिना अधूरा मानते थे। उनकी दृष्टि में प्रजातंत्रऔर समाजवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लोहिया की नजर में समाजवाद और प्रजातंत्र एक-दूसरे के बिना अधूरे तथा बेमतलब हैं। उनके जाति तोड़ो व परिवारवाद के विरोधी विचार को किनारे कर रखा है। बावजूद इसके अगर नए भारत की राह की खोज की जाती है, तो उसमें लोहिया के विचार आज भी प्रासंगिक नजर आते हैं। 

दबाव, अनुरोध और उदाहरण. ये ही तीन काल सिद्ध और लोक सिद्ध तरीके हैं. लोहिया जीवन भर अपने चिंतन और अपनी कार्यवाहियों में इन्हीं तरीकों से लोकतान्त्रिक समाजवाद को जमीन पर उतारने का संघर्ष करते रहे. भारतीय राजनीति में उनके जितना ईमानदार और तेजस्वी नेता आज दुर्लभ हैं.

सत्याग्रह, सिविल नाफरमानी, घेरा डालो, दाम बांधो, सप्तक्रांति, नर-नारी समता, रंगभेद, चमड़ी सौंदर्य, जाति प्रथा के खिलाफ, मानसिक गुलामी, सांस्कृतिक गुलामी, दामों की लूट, शासक वर्ग की विलासिता, खर्च पर सीमा, 10 हजार बनाम 3 आने, संगठन सरकार के बीच का रिश्ता, जैसे असंख्य सवाल-मुद्दे कार्यक्रम उन्होंने उठाये और लड़े-पहली बार केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. धारा के खिलाफ चलने की राजनीति की परंपरा डाली और अपने निकट के लोगों को सही मुद्दे उठा कर चुनाव हारने के लिए खड़ा किया. उन्हें शानदार हार पर बधाई दी।

आज लोहिया की प्रासंगिकता गांधी के बाद सबसे अधिक है. तीसरे विकल्प की तलाश में बेचैन उनकी पूरी राजनीति और विचार-यात्रा, इस नये विकल्प, नये मनुष्य, नयी व्यवस्था और नये सपने के ईद-गिर्द हो रही.और इस भटकती दुनिया, (सिर्फ भारत में नहीं) साम्यवाद और पूंजीवाद के विफल होने के बाद की बेचैन दुनिया को आज सबसे अधिक एक नये विकल्प, नयी सभ्यता और पूंजीवाद के विफल होने के बाद की बेचैन दुनिया को आज सबसे अधिक एक नये विकल्प, नयी सभ्यता और संस्कृति की तलाश है. अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए और इसी कारण आज लोहिया बहुत प्रासंगिक है।

लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार और समाजवादी आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता है

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