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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी:सत्ता छोड़ देश की एकता पर हो गए कुर्बान

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तरुण चुघ
स्वतंत्रता के पश्चात देश में जिस तरीके से तुष्टीकरण की नीति चली, उससे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी खासे चिंतित थे। उन्हें दिख रहा था कि पूरे बंगाल को पाकिस्तान में ले जाने की रणनीति बन रही है। उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और तुष्टीकरण की राजनीति के विरोध में जुट गए। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाकर राष्ट्रीय एकता स्थापित करना उनके जीवन का ध्येय था। इसे हासिल करने की कोशिशों में आज ही के दिन (23 जून 1953 को) उन्होंने अपने प्राणों की आहुति भी दे दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने साल 2019 में अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त कर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की।

6 जुलाई 1901 को कलकत्ता के प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी 1926 में ब्रिटेन से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे, तो स्वेच्छा से राजनीति में प्रवेश किया। विचारों के प्रवाह में बढ़ते-बढ़ते वह सावरकर के संपर्क में आए और हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी बने। उनके हिंदू महासभा का अध्यक्ष बनने पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के बाद हिंदू विषय को लेकर कोई दृष्टि दे सकता है तो वह हैं श्यामा प्रसाद मुखर्जी।

गांधीजी के निमंत्रण पर वह नेहरू की कैबिनेट में पहले गैर-कांग्रेसी मंत्री बने। उनको उद्योग और सप्लाई, दो मंत्रालय दिए गए। वहां भी उन्होंने अमिट छाप छोड़ी। चितरंजन लोकोमोटिव फैक्ट्री उन्होंने स्थापित की। सिंदरी में उन्होंने फर्टिलाइजर कॉरपोरेशन स्थापित किया। बेंगलुरु में उन्होंने एयरक्राफ्ट के प्रोग्राम को स्थापित किया। लेकिन उन्होंने अधिक समय तक मंत्रिपरिषद में रहना स्वीकार नहीं किया। जब विचार नहीं मिले तो उन्होंने अपने आप को नेहरू कैबिनेट से अलग कर लिया। कारण था, जवाहरलाल नेहरू और लियाकत अली का पैक्ट। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि आपने जो भारत में तुष्टीकरण की राजनीति चलाई है, उसके माध्यम से आप तो सर्वस्व लुटाने में लगे हैं, लेकिन पाकिस्तान में माइनॉरिटी अपनी रक्षा करने में असमर्थ है।

हिंदू महासभा से आगे की यात्रा में उन्होंने 1951 में जनसंघ की स्थापना की और पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 1952 में पहली बार पहली लोकसभा में जनसंघ के नाम पर जीतकर भी आए। तब तीन सीटें जीती थीं। उनकी क्षमता और लोकप्रियता ऐसी थी कि विपक्ष के लोकतांत्रिक मोर्चा के वह प्रवक्ता भी बने और नेता भी। जनसंघ के 1952 में कानपुर के अधिवेशन में उन्होंने यह विषय रख दिया कि जम्मू-कश्मीर का देश में विलय संपूर्ण होना चाहिए। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अनुच्छेद 370 के माध्यम से जम्मू-कश्मीर को विशेष अधिकार क्यों दिया जा रहा है? लोगों ने नारा लगाया, एक देश में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान नहीं चलेगा।

1953 में उन्होंने पटना में प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि अगर 35 करोड़ के देश में चार करोड़ मुसलमान शांति से रह सकते हैं तो क्या जम्मू-कश्मीर के 25 लाख मुसलमान शांति से नहीं रह सकते? यह जो परमिट राज है, लाइसेंस राज है, जम्मू-कश्मीर में जाने का जो राज है, इसके खिलाफ मैं आंदोलन करूंगा। मैं बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर की धरती पर जाऊंगा, वहां तिरंगा भी फहराऊंगा। जब वह दिल्ली से निकले तो जगह-जगह उनका भव्य स्वागत हुआ। उन्होंने जालंधर से बलराज मधोक को वापस दिल्ली भेज दिया और कहा कि ‘मेरी लड़ाई जम्मू-कश्मीर की है, लेकिन देश तुमको संभालना है। तुम मेरी आवाज को देश के कोने-कोने तक पहुंचाओ।’ फिर वह अमृतसर के लिए रवाना हो गए। जम्मू-कश्मीर और पंजाब के बॉर्डर लखनपुर पहुंचे।

1953 में भारत का एक प्रखर नेता देश को जोड़ने के लिए किस तरीके से निकला होगा? किस तरीके से वहां पर गया होगा? जब वह जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश कर रहे थे तो उन्होंने भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी से कहा कि ‘अब तुम यहां से वापस हो जाओ और दुनिया को बताओ। यह आवाज चलाए रखना। यह लड़ाई लड़ते रहना।’ यह थी उनकी राष्ट्रभक्ति। उनको गिरफ्तार कर लिया गया और श्रीनगर की जेल में रखा गया। 44 दिन तक जेल में रहे। वहां उनकी तबीयत बिगड़ी। 23 जून को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रहस्यमय तरीके से हम सबको अलविदा कह गए, लेकिन उनके बताए हुए रास्ते पर चलना हमारा कर्तव्य है।

(लेखक बीजेपी के राष्ट्रीय महामंत्री हैं)

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