श्रीकृष्ण भगवान ने अपने सखा अर्जुन को गीता का सन्देश देते हुए जीवन एवं मृत्यु के संबंधों को बहुत ही अच्छी तरह समझाया है। गीता का यह ज्ञान हमारे लिए भी काफी लाभकारी है।
नैनं छिन्दन्ति शास्त्रिाणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्तापो न शोषयति मारूतः।।
भावार्थ - हे अर्जुन, आत्मा को न शस्त्र भेद सकते हैं न अग्नि जला सकती है, न ही इसे वायु सुखा सकती है, न ही इसे दुःख-सुख, क्लेश आदि प्रभावित कर सकते हैं। अतः तू भली-भांति समझ ले कि आत्मा अजर अमर है।
‘‘पार्थ ! भयभीत न हो। मृत्यु से भयभीत न हो। तू बड़ी भ्रान्ति में पड़ा हुआ है। मृत्यु से कैसा भय। मृत्यु है क्या? जिस प्रकार शरीर को बचपन, यौवन और वृद्धावस्था के परिवर्तन एक के बाद एक भोगने पड़ते हैं उसी प्रकार आत्मा भी पुराने शरीर रूपी वस्त्र उतारकर नए शरीर के वस्त्रधारण कर लेती है। मृत्यु कोई चिन्तनीय विषय नहीं है, पार्थ यह तो आत्मा का चोला बदलना मात्र है। एक शरीर को छोड़कर जब आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश करती है तब उसे हम मृत्यु कहते हैं। मृत्यु को देहान्त भी कहते हैं क्योंकि मृत्यु केवल देह अथवा ऊपरी आवरण अथवा चोला का ही अन्त करती हैं, आत्मा का नहीं।
बहाई पवित्र लेखों के अनुसार मृत्यु प्रसन्नता का सन्देशवाहक है। जब एक व्यक्ति मर जाता है तो वह अपने सृजनहार के पास वापिस लौट जाता है तथा उसका अपने प्यारे प्रभु से पुनर्मिलन हो जाता है। मृत्यु के पश्चात इंसान की आत्मा इस संसार के दुःखों से आजाद होकर जैसा कि बहाई मानते है कि ईश्वर के सुन्दर साम्राज्य में चली जाती है।
विश्व के सभी महान धर्म हमें बताते हंै कि आत्मा और शरीर में एक अत्यन्त विशेष सम्बन्ध होता है इन दोनों के मिलने से मानव की संरचना होती है। आत्मा और शरीर का यह सम्बन्ध केवल एक नाशवान जीवन की अवधि तक ही सीमित रहता है। जब यह समाप्त हो जाता है तो दोनों अपने-अपने उद्गम स्थान को वापस चले जाते हैं, शरीर मिट्टी में मिल जाता है और आत्मा ईश्वर के आध्यात्मिक लोक में। आत्मा आध्यात्मिक लोक से निकली हुई, ईश्वर की छवि से सृजित होकर दिव्य गुणों और स्वर्गिक विशेषताओं को धारण करने की क्षमता लिए हुए शरीर से अलग होने के बाद शाश्वत रूप से प्रगति की ओर बढ़ती रहती है।
हम आत्मा को एक पक्षी रूप में तथा मानव शरीर को एक पिजड़े के समान मान सकते है। इस संसार में रहते हुए हम शारीरिक सीमाओं में बंधे रहते हैं। हमें बीमारियों तथा दुःखों को सहना पड़ता है। मृत्यु के समय जब यह मानव शरीर रूपी पिजड़ा टूट जाता है। तब आत्मा मानव शरीर की सीमाओं से स्वतंत्र होकर प्रभु के संसार की ओर उड़ जाती है। क्या अपने सृजनहार से पुनर्मिलन के इस विचार के पीछे किसी प्रकार का दुःख या डर है? इसलिए हमंे मृत्यु से डरना नही चाहिए। मृत्यु एक शाश्वत एवं सुन्दर सत्य है जिसका सामना प्रत्येक को करना है।