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स्वप्न, संसार, पुनरुक्ति और मुक्ति

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          डॉ. विकास मानव

दुनिया में किसी ने भी कहने की ठीक-ठीक हिम्मत नहीं की है कि जगत स्वप्‍नवत है—जस्ट ए ड्रीम। कहना मुश्किल भी है। कोई भी बता सकता है कि गलत कह रहे हैं आप।

     एक पत्थर उठाकर आपकी खोपड़ी पर मार दे, तो पता चल जाएगा कि जगत स्वप्‍नवत नहीं है। इसके लिए कोई बहुत तर्क देने की जरूरत नहीं है। एक पत्थर उठाकर खोपड़ी पर मार देना जरूरी है, जो आदमी कह रहा था जगत स्वप्‍नवत है, वह लट्ठ लेकर आ जाएगा। खून बहने लगेगा, खोपड़ी में दर्द शुरू हो जाएगा। अगर जगत स्वप्‍नवत है, तो क्यों परेशान हो रहे हैं?

     बड़े हिम्मतवर लोग थे, जिन्होंने कहा, जगत स्वप्‍नवत है। और कहा तो कुछ जानकर कहा।

*दों—तीन बातें खयाल में लें :*

    पहली बात तो यह कि स्वप्‍नवत  जब हम किसी चीज को कहते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि जो नहीं है।

    यह गलत है। स्वप्न भी है—ऐज मच प्ले एनीथिग। स्वप्न भी है, स्वप्‍न का भी अस्तित्व है, स्वप्‍न एक्सिस्टेंशियल है।

    स्वप्न नहीं है, ऐसा नहीं, स्वप्‍न भी है। स्वप्न का भी स्थान है। स्वप्न का भी होना है। स्वप्‍न  का नान—एक्सिस्टेंस नहीं है, उसका अन—अस्तित्व नहीं है, वह भी है।

    स्वप्‍न  की एक खूबी है कि जब वह होता है, तो प्रतीत होता है कि सत्य है। स्वप्‍न  का स्वभाव है कि जब होता है, तो प्रतीत होता है कि सत्य है। कभी आपको स्वप्‍न  में पता चला कि जो मैं देख रहा हूं वह स्वप्न है?

    अगर किसी दिन आपको पता चल जाए, तो आप ऋषि हो गए। स्वप्न में पता चलता है कि जो मैं देख रहा हूं वह सत्य है। ही, स्वप्‍न टूट जाता है, तब पता चलता है कि वह स्वप्न था। स्वप्न के भीतर कभी पता नहीं चलता कि वह स्वप्न है। अगर पता चल जाए, तो स्वप्‍न  उसी वक्त टूट जाएगा। अगर पता चल जाए, तो स्वप्न उसी वक्त टूट जाएगा।

    स्वप्न के चलने की अनिवार्य शर्त यही है कि आपको पता चले कि जो आप देख रहे हैं, वह सत्य है। नहीं तो स्वप्‍न  नहीं चल सकता। स्वप्न का प्राण इसमें है कि जो है, वह सत्य है।

     जब आप रात स्वप्न देखते हैं—बड़े एब्सर्ड सपने आदमी देखते हैं—बड़े बेहूदे स्वप्न, लेकिन फिर भी शक नहीं आता।

       लियो टाल्सटाय कहते हैं :

मैं एक ही सपना हजार दफे कम से कम देख चुका। जागता हूं तब मैं कहता हूं कैसा बेहूदा! यह हो कैसे सकता है! लेकिन जब मैं फिर सोता हूं फिर किसी दिन वही सपना देखता हूं र तो सपने में बिलकुल याद नहीं रहता। सपने में बिलकुल ठीक मालूम पड़ता है।

     लियो टाल्सटाय ने लिखा है कि मैं एक सपना देखता हूं कि एक बड़ा रेगिस्तान है। और यही सपना बार—बार दोहरता है। उस रेगिस्तान में दो जूते चलते चले जा रहे हैं—सिर्फ जूते! पैर नहीं हैं, आदमी नहीं है! और टाल्सटाय कहता है, मैं इतनी दफे देख चुका हूं यह, फिर भी जब देखता हूं तो वह शक भी नहीं पैदा होता, नो डाउट—बिलकुल ठीक लगता है कि जूते चल रहे हैं। सुबह जागकर बड़ी बेचैनी होती है कि ये जूते चल कैसे सकते हैं, जब आदमी भीतर नहीं है।

    मन में बहुत घबड़ाहट भी होती है कि यह मामला क्या है? यह स्वप्न बार—बार दोहरता क्यों है? और वे चलते ही चले जाते हैं, और अंतहीन रेगिस्तान है और वे दो जूते हैं, और कोई भी नहीं है। और वे चलते ही चले जाते हैं। तो टाल्सटाय जब बिलकुल घबड़ा जाता है, घबड़ा जाता है उनको देख—देखकर, तो नींद टूट जाती है। बहुत बार देखने के बाद भी जब फिर देखता है, तो फिर वह सत्य ही मालूम होता है।

    जब स्वप्न में आप होते हैं, तो स्वप्‍न  नहीं होता वह, वह सत्य ही होता है। और अगर आपको स्मरण आ जाए कि यह स्वप्न है, उसी क्षण फिल्म टूट जाएगी। सफेद पर्दा हो जाएगा। आप बाहर आ गए। जागकर सुबह पता चलता है कि वह स्वप्‍न  था। लेकिन~

हमारे ऋषि पूर्वज कहते हैं :

 वह छोड़ो, वह तो स्वप्‍न  था ही—जागकर सुबह जो दिखाई पड़ता है, वह भी स्वप्‍नवत  है। हम कहते हैं, यह तो कम से कम मत कहो। यह तो काफी सच मालूम पड़ता है। यह मकान, यह परिवार, यह मित्र, यह पत्नी, यह बेटे, यह धन—यह सब एकदम सत्य मालूम पड़ता है। इसको तो स्वप्न मत कहो!

     ऋषि कहते हैं, एक और जागरण है—विवेक लभ्यम्—वह जो विवेक से उपलब्ध होता है। एनादर अवेकनिंग; एक और जागरण है। जब तुम उसमें जागोगे, तब तुम पाओगे कि वह जो तुम जागकर देख रहे थे, वह भी एक स्वप्‍न  था।

    यह जो हम जाल फैला लेते हैं चित्त का, यही हमारा स्वप्‍नवत  संसार है। मन संसार है। मन के पार उठ जाना संसार के पार उठ जाना है। मन स्वप्न है। मन के पार उठ जाना स्वप्‍न  के पार उठ जाना है।

*पुनरुक्ति और मुक्ति :*

    जीवन तुम्हारा एक पुनरुक्ति है..एक अंधी पुनरुक्ति! उठते हो, चलते हो, काम-धाम करते हो; लेकिन कहां हो, क्या कर रहे हो..इसका कोई भी होश नहीं। कौन हो..इसका भी कोई पता नहीं। क्यों है तुम्हारा होना यहां..इसका कोई उत्तर नहीं।

     फिर दिन आते हैं, रातें आती हैं, समय बीतता चला जाता है..और जीवन ऐसे ही उजड़ जाता है, बिना किसी फूलों को उपलब्ध हुए। जीवन में हाथ कुछ भी नहीं लग पाता, जिसको तुम संपदा कह सको; जिसको तुम कह सको कि आना व्यर्थ न हुआ।

     खाली हाथ आदमी पैदा होता है और खाली हाथ ही मर जाता है। लेकिन कुछ हैं जो खाली हाथ पैदा होते हैं और भरे हाथ मरतेे हैं। कबीर, नानक, फरीद ऐसे कुछ लोग हैं जो आए तो तुम्हारी ही तरह थे; आते समय कोई भेद न था; तुम्हारे हाथ जैसे खाली थे, उनके भी हाथ खाली थे..लेकिन जाते समय तुम भिखारी की तरह जाओगे; वे सम्राट की तरह गए। उन्होंने जीवन का कोई उपयोग कर लिया।

    जीवन बीत ही न गया; ऐसे ही न बीत गया; ऐसे ही न चला गया..उन्होंने जीवन की धारा का नियोजन कर लिया; जीवन की उर्जा का सृजनात्मक उपयोग कर लिया।

      जीवन दो ढंग के हो सकते हैं। एक तो ऐसा ही बहता चला जाए, परिणाम कुछ भी न हो, निष्पत्ति कोई न मिले, पहुंचना कहीं न हो, कोई मंजिल पास न आए। और एक जीवन, कि प्रतिपल माला के बिखरे हुए फूलों की भांति न हो, बल्कि किसी लक्ष्य, किसी गहरे प्रयोजन, किसी गहरी प्रार्थना के धागे में पिरोया हुआ हो। ऐसे फूलों का ढेर भी लगता है; उन्हीं फूलों की माला भी बन जाती है।

    अधिक लोगों का समय जीवन समय का एक ढेर है। उसमें कोई संगति नहीं है। उसमें कोई रेखाबद्ध विकास नहीं है। उसमें कोई सोपान नहीं है।

     कुछ लोगों का जीवन धागे में पिरोए हुए फूलों की भांति है; प्रत्येक फूल एक सीढ़ी है, और हर फूल एक नया द्वार है, और जीवन एकशृंखला हैः कहीं पहंुचता हुआ मालूम होता है; कहीं पहुंच जाता है।

      समय रहते जाग जाओ तो ठीक। क्योंकि जो समय हाथ से चला गया उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता। जो क्षण बीत गए, वे बीत ही गए; उन्हें फिर से जीने की कोई सुविधा नहीं है। समय कोई ऐसी संपत्ति नहीं है जिसे तुम खोकर फिर पा सकोगे। इस संसार में सभी चीजें खो कर पाई जा सकती हैं, समय नहीं पाया जा सकता। इसलिए समय इस संसार में सबसे ज्यादा बहुमूल्य हैः गया, तो गया। और उसी के संबंध में हम सबसे ज्यादा लापरवाह हैं।

    लापरवाह ही नहीं हैं; लोग बैठ कर ताश खेल रहे हैं, शराब पी रहे हैं। पूछो, क्या कर रहे हो; वे कहते हैं, समय काट रहे हैं, समय काटे नहीं कटता।

     समय तुम्हें काट रहा है, पागलो! तुम समय को न काट सकोगे। समय को तुम क्या काटोगे? तुम समय को कैसे काटोगे? समय पर तो तुम्हारी कोई पकड़ ही नहीं है। समय तुम्हें काट रहा है; तुम सोचते हो तुम समय को काट रहे हो। अखीर में पाओगे, समय तो नहीं कटा, तुम ही कट गए। अखीर में पाओगे, समय तो नहीं मरा, तुम्हीं मर गए।

     ध्यान रखना, समय नहीं बीत रहा है, तुम ही बीत रहे हो। समय नहीं जा रहा है, तुम ही बहे जा रहे हो। समय तो एक अर्थ में वहीं का वहीं हैः लेकिन तुम आते हो, चले जाते हो; तुम्हारी सुबह होती है, तुम्हारी सांझ होती है; तुम्हारा जन्म होता है, तुम्हारी मृत्यु होती है।

*इसे ठीक से समझ लें :*

    समय को काटना अपने को ही काटना है। और समय का सम्यक उपयोग कर लेना, अपने को जन्म देने का आयोजन कर लेना है। स्वयं को जन्माना होगा, तो ही तुम्हारा नया रूप, तुम्हारा परमात्म-रूप, तुम्हारा भगवत-रूप प्रकट होगा। वह समय के पार है।

      तुम्हारा वास्तविक स्वरूप समय के पार है। समय तो सिर्फ एक स्थिति है जिसमें समयातीत को जानना है। समय तो एक परिस्थिति है जिसमें अपने भीतर कालातीत को पहचानना है।

     भारत में समय और मृत्यु के लिए हमने एक ही शब्द का प्रयोग किया है, वह हैः काल। अगर तुम ठीक से पहचानो तो समय तुम्हारी मौत है। अगर तुम ठीक से न पहचानो तो समय को तुम अपनी जिंदगी समझते हो।

     अगर तुम ठीक से पहचान लो तो समय मृत्यु हो जाती है, और तुम उस जीवन की खोज में लग जाते हो जो कालातीत है। क्योंकि उसे पाए बिना तो कुछ भी पाया, पाया सिद्ध न होगा।

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