शशिकांत गुप्ते
लेखक को स्व रचित लघुकथा का स्मरण हुआ।
मैने एक वृक्ष पर गिरगिट देखा। थोड़ी देर के लिए वहीं खड़ा हो गया। कौतुहल था यह जानने का, गिरगिट रंग कैसे बदलता है। मेरी जिज्ञासा को भांप कर एक उम्र और बुद्धि में अनुभवी व्यक्ति मेरे पास आए और मुझे समझाने लगे। यह गिरगिट जब चाहे तब रंग नहीं बदलता है। कुदरत के द्वारा निश्चित मौसम में ही रंग बदलता है। फितरत इसके स्वभाव में नहीं है, कारण ये अवसरवादी नहीं हैं। मानव में और इन जीव-जंतुओं में यही फर्क है।
उक्त लघुकथा तो महज़ एक उदाहरण है। असल में मुद्दा यह है कि,इनदिनों सियासत में लोग सिर्फ रंग ही नहीं बदल रहें हैं।अपने स्वार्थपूर्ति के लिए परिभाषाएं,विशेषण,और प्रतीक,बदल रहें हैं।
जिन लोगों ने भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध आंदोलन कर एक राजनैतिक दल का गठन किया। बिल्ली के भाग से छींका टूटा वाली कहावत चरितार्थ हुई। आज उन लोगों पर भ्रष्ट्राचार के आरोप लग रहें हैं।
ऐसे लोग स्वयं को ईमानदार होने के दावा करते हुए ईमानदार के साथ कट्टर शब्द का विशेषण लग रहें हैं।
कट्टर शब्द से साम्प्रदायिकता का बोध होता है। कट्टरता, का पर्यावाची शब्द होता है, अमानवीयता।
बहरहाल स्वयं के द्वारा स्वयं को ईमानदार घोषित करने के लिए भ्रष्ट्राचार विरोधी लोग कट्टर विशेषण से खुद को विभूषित कर रहें हैं।
अहम सवाल है कि, परस्पर विरोधी लोग एक दूसरें पर मदिरा की बिक्री को लेकर आरोप,प्रत्यारोप लगा रहें है।
एक सूबे में नशाबंदी है,फिरभी मद्यपान उपलब्ध है। सिर्फ उपलब्ध ही नहीं है,मंदिर के साथ ज़हरीली विशेषण भी लगा हुआ है।
स्वयं को सबसे अलग बताने वाले मदिरा की ऐसी ‘अ’नीति बनातें है कि, मदिरा की उपलब्धता सूबे के हर गली कूचे में सुगम हो जाता है।
वैसे मदिरा ही ऐसा पेय है जो सबसे अधिक राजस्व दिलाता है।
मामाजी के सूबे में भांजों को प्रत्येक सौ मीटर पर उपलब्धता है।
कोई कितना भी निपुण जादूगर भी ऐसा करिश्मा न भूतों न भविष्यती दिखा सकता जिस तरह सियासतदान दिखा सकते हैं।
जिस सूबे में वर्षो से नशाबंदी हैं उस सूबे में चमत्कारिक तरीके से मदिरा की उपलब्धता होना।
आरोप,प्रत्यारोप करने वाले सियासत के नशे में चूर हैं।
दोनों ही विज्ञापनों के द्वारा अपनी उपलब्धियों का बखान करने में प्रतिस्पर्धी है। इनके विज्ञापनों को देख,पढ़ और सुन इन कहावतों का स्मरण होता है, अधजल गगरी छलकत जाए। थोथा चना बाजे घना
लेखक को यकायक कुछ फिल्मों के नामों का स्मरण हुआ।
‘हम किसी से कम नहीं”, “हम है कमाल के” वगैराह।
उपर्युक्त सभी तरह के कमालो का मुख्य कारण है सत्ता का नशा।
यह नशा बगैर किसी नशे के पदार्थ के सेवन से चढ़ता है।
इस तरह के नशे पर प्रसिद्ध शायर बशीर बद्रजी फरमातें हैं।
न तुम होश में न, हम होश में
चलो मय-कदे में बात होगी
एक और शायर फ़रहत शहजाद का ये शेर भी मौजु हैं।
इतनी पी जाए कि,मिट जाए मै और तू की तमीज़
यानी ये होश की दीवार गिरा दी जाए
ये गुरुर का सुरूर है। मय के नशे से ज्यादा मदहोश कर देता है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर