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पूर्वी उत्तर प्रदेश ….. दलित-बहुजनों में भी उहापोह की स्थिति

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इतिहास के स्याह पन्नों में झांकने से हमें भान होता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश वही क्षेत्र है, जहां 1990 के दशक में मंडल को कमंडल से दबाने की भरपूर कोशिश की गई, लेकिन मुलायम सिंह यादव, कांशीराम जैसे नेताओं ने सामाजिक न्याय की लौ को बुझने नही दिया। इसके इतर आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर जायजा ले रहे हैं देवी प्रसाद

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तिथि घोषित होने में अब बस चंद दिनों की देरी है। ऐसे में राजनीतिक धुरंधरों द्वारा जोर आजमाइश और तोड़फोड़ की राजनीति भी चरम पर है। सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पिछले पांच वर्षों में किये गए विकास के कार्यों को गिनाने के बजाय आतंकवाद, औरंगजेब, पाकिस्तान, बाबर जैसे शब्दों का प्रयोग करके आगामी चुनाव को सांप्रदायिक रंग में रंगती नजर आ रही है। छुटभैया नेताओं से लेकर बड़ी पार्टियों के आलाकमान सियासी दांव और सोशल इंजीनियरिंग में कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाह रहे हैं तथा राजनीतिक हितों को सर्वोपरि रखते हुए उनमें राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है।

क्या सोंचते हैं युवा मतदाता?

विधानसभा चुनाव के मद्देनजर वर्तमान सरकार की नीतियों की जमीनी हकीकत जानने के लिए मैंने पूर्व उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर, प्रयागराज (पूर्व में इलाहाबाद) और अयोध्या के कई गावों का भ्रमण किया। इस कड़ी में सबसे पहले सुल्तानपुर जिले के टडवा गाँव के कई युवा मतदाताओं से बात की, जिनमें से अधिकतर युवा शिक्षा और रोजगार सृजन के सवाल पर मायूसी प्रकट की। इस गांव के दलित परिवार से ताल्लुक रखने वाले राम नारायण ने बताया कि ‘दो वर्ष पूर्व उन्होंने मास्टर इन एजुकेशन (एम.एड.) में दाखिला लिया था तथा उनका छोटा भाई रामनाथ एक स्थानीय डिग्री कालेज से बैचलर इन बिजनेस मैनेजमेंट (बी.बी.ए.) कर रहा है। राम नारायण की आंखें यह बताते हुए नम हो गयीं कि घर में आर्थिक तंगी के चलते एम.एड. की फीस भरने लिए कर्ज लेना पड़ा। पिछले वर्ष उनकी छोटी बहन कंचन ने बारहवीं की परीक्षा पास की, लेकिन पैसे के आभाव में उसे कहीं दाखिला नहीं दिला सके। दलित समाज के लिए मिलने वाली मुख्यमंत्री सहायताकोष से राम नारायण ने मदद की गुहार भी लगाई, लेकिन उन्हें यह कहते हुए मना कर दिया गया कि “मुख्यमंत्री सहायताकोष में फंड की कमी है।” 

कोरोना काल में दलित-पिछड़े वर्ग के कई अन्य विद्यार्थी भी वर्तमान सरकार की शैक्षिक नीतियों से मायूस नजर आये, क्योंकि उन्हें भी राम नारायण की तरह ही आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। कई युवाओं का मानना था कि अखिलेश यादव और मायावती के कार्यकाल में दलित समाज के बच्चों को एडमीशन लेने के दौरान फीस नहीं जमा करना पड़ती थी। जबकि आज कोई भी दलित-पिछड़े समाज के बच्चों की सुधि लेने वाला नही है।

राम नारायण ने बताया कि टडवा गांव में कुम्हार, कहार, बढई, बनिया, गड़ेरिया आदि पिछड़ी जातियों के लोग रहते हैं। पिछले विधानसभा के चुनाव में सभी ने भाजपा को वोट किया था। मगर इस बार ज्यादातर लोग समाजवादी पार्टी की तरफ़ अपना रुख कर चुके हैं। भाजपा के प्रति आकर्षण ख़त्म होने के पीछे कुछ लोग मंहगाई को मानते हैं, तो कुछ लोग बेरोजगारी को। यूरिया, डीजल, पेट्रोल तथा खाद्य तेल आदि की बढ़ी कीमतों को लेकर भी ग्रामीण मतदाता सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। 

ऐतिहासिक राजनीतिक फ़साने

इतिहास के स्याह पन्नों में झांकने से हमें भान होता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश वही क्षेत्र है, जहां 1990 के दशक में मंडल को कमंडल से दबाने की भरपूर कोशिश की गई, लेकिन मुलायम सिंह यादव, कांशीराम जैसे नेताओं ने सामाजिक न्याय की लौ को बुझने नही दिया। जनता ने इन दोनों नेताओं को अपने प्रतिनिधित्व का जिम्मा सौंपा, जिसे व्यंगात्मक लहजे में कहा गया कि “मिले मुलायम और कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम”। 

पूर्वी प्रदेश आज़ादी के बाद से ही विकास की राह टोह रहा था। ऊपर से बाबरी मस्जिद के विध्वंस (1992) के बाद से इस क्षेत्र में सांप्रदायिक धुर्वीकरण की प्रक्रिया तेज हुई थी, जिसके फलस्वरूप पूर्वांचल सांप्रदायिक व जातीय राजनीति की भेंट चढ़ गया। इस संदर्भ में दलित-पिछड़ों की वकालत करने वाले डॉ. लक्षमण यादव कहते हैं कि जब आप सरकार से अपने हक़ के लिए सत्ताधीशों को कटघरे में खड़ा करेंगे तथा उनसे किसानों की आय दुगनी होने, 70 लाख नौकरियों, काला धन, मंहगाई, आदि पर प्रश्न करेंगे, तो वे चालाकी से इन महत्वपूर्ण मुद्दों से आपका ध्यान भटकाते हुए कहेंगे, “अयोध्या तो एक झांकी है, मथुरा और काशी अभी बांकी है। इसी तरह, बजरंग दल, हिन्दू युवा वाहिनी, विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्रीय सेवक संघ, हिन्दू रक्षा दल, आदि संगठन मतदाताओं को बेरोजगारी, शिक्षा और संरचनात्मक विकास के महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों से भटकाते रहते हैं। आपको कभी भी यह सोंचने का मैका नही देते कि देश की 80 करोड़ आबादी दलित-पिछड़ों की है, फिर भी भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के महत्वपूर्ण पदों उनका प्रतिनिधित्व क्यों नही है। भारत के केंदीय विश्विद्यालयों और भारतीय प्रद्योगिकी संस्थानों में पिछड़े वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण होने के बाद भी उनका प्रतिनिधित्व प्रोफ़ेसर जैसे पदों पर मात्र 2-3 प्रतिशत के आस-पास ही क्यों है?”

पूर्वांचल को अच्छे शासन का है इंतजार

पीएचडी के शोध प्रबंध हेतु मैंने पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई गांवों का विस्तृत अध्ययन किया, जिसके उपरांत यह ज्ञात हुआ कि दलित-पिछड़ी जातियों के 95 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी स्थानीय डिग्री कालेज में बड़ी मुश्किल से एडमिशन ले पाते हैं तथा उनमें से अधिकतर लोग एडमिशन लेने के पश्चात दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में आजीविका की तलाश में पलायन कर जाते हैं, जिसका प्रमुख कारण स्थानीय स्तर पर रोजगार का व्यापक आभाव है और ऊपर से गरीबी का दंश उन्हें उच्च शिक्षा से महरूम कर देती है। हैरत तब हुई जब सैकड़ों युवाओं ने शिक्षा और बेरोजगारी पर खुलकर बातें भी की और उनमें से अधिकतर जागरूकता के आभाव में भारत के पांच अच्छे केन्द्रीय विश्वविद्यालय के नाम भी गिना नही सके। उन्हें शासन-प्रशासन में समुचित भागीदारी जैसे मुद्दे प्रभावित नहीं करते। यही कारण है स्थानीय नेता दलित-पिछड़े वर्ग की जनता को लोकलुभावने वादे करके उनका वोट (अपने पक्ष में) डलवाने में सफल हो जाते हैं तथा कालांतर में उन्हें अपना वोट बैंक मानने लगते हैं।   

बताते चलें कि उत्तर-मध्य भारत में पूर्वांचल एक अति पिछड़ा क्षेत्र है, जिसमें अगर अवध क्षेत्र को शामिल कर लें तो उत्तर प्रदेश के लगभग दो दर्जन जिले आते हैं। इस क्षेत्र को मुख्यतः तीन भागों में बांट सकते हैं– पश्चिम में पूर्वी अवधी क्षेत्र, पूर्व में पश्चिमी-भोजपुरी क्षेत्र और उत्तर में नेपाल क्षेत्र। गोरखपुर, प्रयागराज, मिर्जापुर, अयोध्या तथा वाराणसी जैसे धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण जिले भी इसी क्षेत्र में आते हैं। इन स्थानों का धार्मिक व राजनीतिक दोहन सत्ताधारी लोग हमेशा से करते आए हैं, जिसका खामियाजा दलित-पिछड़े वर्ग को भुगतना पड़ता है। उदाहरणस्वरूप, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 2021-2022 के बजट में समग्र शिक्षा अभियान के लिए 18,172 करोड़ रुपये के बजट की व्यवस्था की गई है। हालांकि 2020-21 के बजट के मुकाबले इस बार समग्र शिक्षा के बजट में 191 करोड़ की कटौती की गई है। यदि हम सरकार की प्राथमिकताओं का तुलनात्मक अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होता है कि वर्ष 2013 के महाकुंभ में अखिलेश यादव की सरकार ने 1300 करोड़ रुपये खर्च किए थे और 2019 में योगी सरकार ने इस मद में 4200 करोड़ रुपये का आवंटन किया, जो कि अखिलेश यादव की हुकूमत द्वारा किए गए आवंटन से तीन गुना अधिक है। इतना ही नहीं, 400 करोड़ रूपये तो विश्वनाथ कोरिडोर पर खर्च किया गया तथा इसी तरह अयोध्या से लेकर मथुरा तक करोड़ों रूपये खर्च किये जा रहे हैं, लेकिन गरीब विद्यार्थियों फीस माफ़ करने के लिए सरकार के पास फंड की कमी हो जाती है। 

राजनीतिक पंडितों के लिए एक उर्वरक जमींन

अगर हम चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो पातें हैं कि वर्ष 2007 के चुनावी समर में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सबसे ज्यादा सीट (85 सीटें) पूर्वांचल से जीतने में सफल रही। फलस्वरूप, उसे सत्ता में आने का मौका भी मिला, लेकिन 2012 में उसे मात्र 22 तथा 2017 में 14 सीटें ही मिल सकीं और बसपा सत्ता से बेदखल हो गई।

समाजवादी पार्टी (सपा) यह भलीभांति समझ चुकी थी कि ‘सत्ता की चाबी’ पूर्वांचल को फतह किये बिना नही हासिल किया जा सकता। इसलिए इस पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव ने आजमगढ़ में अपना डेरा डाला तथा वर्ष 2012 के विधान सभा चुनाव में 102 सीटें जीतकर पुनः सत्ता में वापसी की और अखिलेश यादव को प्रदेश का सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने का अवसर प्राप्त हुआ। 

अपने राजनीतिक कैरियर को आगे बढ़ाने के लिए नरेंद्र मोदी ने भी 2014 में गुजरात छोड़कर पूर्वांचल को चुना। उन्होंने ‘काशी’ को अपना संसदीय क्षेत्र चुना और कहा कि ‘माँ गंगा ने मुझे बुलाया है’, जिसका मतलब राजनीतिक पंडितों द्वारा निकला गया कि अब पूर्वांचल ही भाजपा की डूबती नैया को पार लगा सकता है। एक हदतक यही हुआ भी। भाजपा ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ तथा ‘गुजरात मॅडल’ जैसे राजनीतिक नारों के सहारे वर्ष 2014 के आम चुनाव में पूर्ण बहुमत हाशिल किया। प्रधानमंत्री मोदी ने वाराणसी तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के विकास के लिए अनेक योजनाओं की सौगातें दीं, जिनका फायदा भाजपा को वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश के विधान सभा के चुनाव में मिला।

हालांकि वर्ष 2017 के विधान सभा में अखिलेश यादव ने भी ‘विकास’ का नारा जोर-शोर से चलाया था, मगर भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सामने वह टिक नहीं सके तथा उनकी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। इस चुनाव में पूर्वांचल के लोगों को समाजवादी पार्टी द्वारा दिए गए विकास के मंत्र को नकार दिया तथा समाजवादी पार्टी के झोली में सिर्फ 17 सीटें ही आयीं। हालांकि, लोगों का मानना है कि इस हार के पीछे पारिवारिक कलह भी काफ़ी हद तक जिम्मेदार थी। लगभग चार साल बाद, अखिलेश यादव और शिवपाल यादव अगला विधान सभा का चुनाव एक साथ लड़ने का मन बना चुके हैं।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरण

पूर्वी उत्तर प्रदेश की सामाजिक संरचना पर दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि दलित (22 प्रतिशत), मुस्लिम (17 प्रतिशत), यादव (13 प्रतिशत), ब्राह्मण (12 प्रतिशत), राजपूत (6 प्रतिशत), निषाद (4 प्रतिशत), राजभर (4 प्रतिशत), सोनकर (1.5 प्रतिशत), कुर्मी (4.5 प्रतिशत) आदि जातियों का प्रतिनिधित्व है। इसलिए इन जातियों के समुचित प्रतिनिधित्व को लेकर सोशल इंजीनियरिंग होना लाजमी है। जहां एक तरफ़, भाजपा ब्राह्मण बाहुल्य जिलों – बलरामपुर, बस्ती, संत कबीर नगर, महाराजगंज, जौनपुर, गोरखपुर, देवरिया, अमेठी, वाराणसी, चंदौली आदि – में वोटरों को रिझाने के लिए दिनेश शर्मा (उप-मुख्य मंत्री, उत्तर प्रदेश) तथा श्रीकांत शर्मा, जितिन प्रसाद, और बृजेश पाठक को कैबिनेट मंत्री का पद दिया तथा साथ ही सतीश चन्द्र मिश्र, नीलकंठ तिवारी और चन्द्रिका प्रसाद उपाध्याय को राज्य मंत्री के पद पर सुशोभित किया। वहीं दूसरी तरफ़, पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखते हुए केशव प्रसाद मौर्या को उप-मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश), अनुप्रिया पटेल तथा पंकज चौधरी को नरेंद्र मोदी कैबिनेट में जगह मिली। 

हालांकि, इस बार सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के संस्थापक ओमप्रकाश राजभर भाजपा का साथ छोड़कर अखिलेश यादव के साथ हो गए है और अक्सर पिछड़ी जातियों के हितों की वकालत करते हुए कहते हैं कि ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नही चलेगा, नही चलेगा’। इस पार्टी का पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों के पिछड़ी जातियों में व्यापक जनाधार है, जिसका फायदा सपा को सीधे मिल सकता है। 

पूर्वी उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण समुदाय में गहरी पैठ रखने वाले गणेश पाण्डेय, माता प्रसाद पाण्डेय, शिवाकांत ओझा आदि लोकप्रिय नेता भी साईकिल पर सवार होकर भाजपा द्वारा ब्राह्मण समाज पर की गई ज्यादतियों को याद दिलाना नहीं भूलते तथा अखिलेश यादव को ब्राह्मणों का सच्चा साथी बताते हैं। इसी दिशा में बसपा ने भी ब्राह्मण सम्मलेन की शुरुआत अयोध्या से की तथा सतीश चन्द्र द्विवेदी, नीलकंठ तिवारी, चन्द्रिका प्रसाद उपाध्याय को ब्राह्मण समाज का रूख बीएसपी की तरफ़ मोड़ने कार्यभार सौंपा गया। 

योगी सरकार द्वारा 2017 में ‘सबका साथ, सबका विकास’ तथा ‘रामराज्य’ की परिकल्पना गढ़ी गई, जो जमीनी हकीकत से कोसों दूर नजर आती है। गोरखपुर, हाथरस और उन्नाव की घटनाएं इसकी पुष्टि करती नजर आती हैं। कोरोना महामारी की दूसरी लहर में यह क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ और गरीबों की लाशें गंगा में तैरती हुई नजर आयीं। आज पूर्वांचल में कोई भी ऐसा गाँव ऐसा नहीं मिल सकता, जहां लोग स्वास्थ्य सुविधाओं के आभाव में अपने परिजनों को खोया न हो। इसलिए अब विभिन्न जनसभाओं में योगी आदित्यनाथ सांप्रदायिक नारों के साथ-साथ अस्पताल और पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे की बात करना नही भूलते। 

यदि हम पूर्वी उत्तर प्रदेश में विकास की बात करें, तब हमारा ध्यान हाल ही में बनी पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे पर जाता है। समाजवादी पार्टी का मानना है कि जमीन अधिग्रहण का अधिकतर कार्य पूर्व मुख्यमंत्री के कार्यकाल में ही हो गया था, लेकिन जानबूझकर लेट-लतीफी की गई। वर्तमान योगी आदित्यनाथ की सरकार भी इस एक्सप्रेस-वे को अपनी उपलब्धि के तौर पर आगामी विधानसभा चुनाव में पेश करेगी। इस सड़क के किनारे 9 जिले पड़ते हैं, जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से इस सड़क का लाभ मिलने वाला है। इन 9 जिलों में उत्तर प्रदेश विधानसभा की 55 सीटें पड़ती हैं, जिस पर दोनों पार्टियों की पैनी नजर है। स्थानीय निवासियों का मानना है कि आने वाले समय में गंगा एक्सप्रेस-वे, गोरखपुर लिंक एक्सप्रेस-वे, प्रयागराज लिंक एक्सप्रेस-वे, आदि महत्वाकांक्षी परियोजनाएं पूर्वी उत्तर प्रदेश को एक नई दिशा दे सकते हैं । 

पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे के किनारे पड़ने वाली विधानसभा सीटों पर सबसे ज्यादा 34 विधायक भाजपा के हैं। इसलिए एक सुस्पष्ट संदेश देने के लिए तथा सत्ता की बागडोर पुनः प्राप्त करने के लिए उसे बचाए रखना योगी आदित्यनाथ के लिए यह बेहद जरूरी होगा। वहीं सपा के 11 विधायक इस क्षेत्र से आते हैं और आगामी चुनाव में वह अन्य 44 सीटों में भी सेंधमारी करने का प्रयास करेगी।  

अयोध्या तथा वाराणसी में मंदिरों के निर्माण के साथ-साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रत्येक जिले में मेडिकल कालेज बनवाने की प्रक्रिया जोरों से चल रही है, जिसे भाजपा अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रस्तुत कर रही है। सुल्तानपुर जिले के गाँव टडवा के निवासी दुर्गा प्रसाद यादव कहते हैं कि “मैं काशी विश्वनाथ और अयोध्या के राम मंदिर में दर्शन हेतु लगभग 12 वर्ष पहले गया था। मंदिर में लम्बी कतारें और अव्यवस्था से जूझते हुए बड़ी मुश्किल से दर्शन कर पाया था। उसके बाद कभी जाने का मन नहीं हुआ। मैं उस समय सोचता था कि काश! दक्षिण भारत के मंदिरों की तरह की सुविधाएँ इन दोनों मंदिरों में विकसित हो पाती, क्योंकि पर्यटन की दृष्टि से ये दोनों मंदिर पूर्वांचल के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।” वाराणसी के स्थानीय निवासी भी काशी विश्वनाथ कोरिडोर को बहुत ही सकारात्मक तरीके से लेते हैं तथा इस प्रोजेक्ट को विकास की दृष्टि से मील का पत्थर मानते हैं। हालांकि, कई लोगों का मानना है कि इन मंदिरों से दलित-बहुजन समाज को कोई आर्थिक लाभ मिलने वाला नही है। 

हालांकि, अब उत्तर प्रदेश में भाजपा की लोकप्रियता धीरे-धीरे घटती नजर आ रही है, जिसके पीछे मुख्यता तीन कारण हैं– बेरोजगारी, सरकारी परीक्षाओं व भर्तियों में हुए घोटाले तथा किसान आंदोलन से उपजा जनाक्रोश। उदाहरणस्वरूप, पूर्वी उत्तर प्रदेश में संसाधनों की भारी कमी है, जिसके कारण युवा सरकारी नौकरियों में जाना चाहता है। लेकिन अनेक शिक्षा संस्थानों में आरक्षित सीटें भी किसी जाति विशेष को प्रदान कर दी गई तथा कई संस्थानों में दलित-पिछड़े वर्ग को एनएफएस (अयोग्य) घोषित करके भी हकमारी की गईतो कभी संविधान प्रदत्त आरक्षण में हेराफेरी की गई। 

बहरहाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपना पांव पसारने के लिए सामाजिक न्याय को ध्यान में रखते हुए विकास की प्रक्रिया को तेज करना अब सभी राजनीतिक दलों केनेतृत्व की मजबूरी हो गई है तथा उन्हें इस बात का आभास भी है कि जो पूर्वांचलवासियों के हितों की बात करेगा, वही उत्तर प्रदेश में राज करेगा। हालांकि यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि क्या पूर्वांचल के विकास का लाभ दलित-बंचित समाज के चौखट तक पहुँच पा रहा है या विकास की बातें सिर्फ एक जुमला बन कर रह गई हैं?

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