जो ईडी को देश की बाकी सभी जांच एजेंसियों से पूरी तरह निरंकुश बनाती है, वह है अभियुक्तों के द्वारा सबूत के तौर पर दिए गए बयानों की स्वीकार्यता पर पीएमएलए के तहत प्रावधान और बेहद कड़े जमानत के प्रावधान, जो इसे सर्वाधिक विवादास्पद बना देता है। पूरे देश में यह एकमात्र ऐसा कानून ईडी के अधिकार क्षेत्र में है, जिसमें जांच अधिकारी के समक्ष दर्ज कराया गया बयान कोर्ट में साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है। पूर्व में टाडा और पोटा के तहत इन खूंखार कानूनों के लिए स्थान था, जिसे पहले ही निरस्त किया जा चुका है। लेकिन टाडा और पोटा के तहत आतंकी या गैंगस्टर को ही इसके दायरे में लिया जा सकता था, पर ईडी के लिए तो किसी भी सम्मानित मुख्यमंत्री या विपक्षी राष्ट्रीय नेता तक को दो मिनट में अपराधी साबित किया जा सकता है।
ईडी का मतलब ही पहले तो समझ नहीं आता। ईडी को हिंदी में प्रवर्तन निदेशालय (एन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट) कहा जाता है। लेकिन इससे तो कुछ भी अंदाजा लगा पाना कठिन काम है। मोदी राज से पूर्व तक आम लोग और राजनेता यदि किसी नाम से घबराते थे तो वो थी सीबीआई। सीबीआई को यूपीए के जमाने में पिंजरे में बंद तोते के नाम से मशहूरियत हासिल हुई थी। लेकिन मोदी राज में तो हर जुबान पर बस एक ही नाम है ईडी।
धिकारों के बारे में देश में बहुत कम लोगों को ही जानकारी है, और जो जानते हैं उनमें भी मुख्यतया कानूनविद, राजनीतिज्ञ और उद्योगपति ही प्रमुख हैं। जब भी किसी औद्योगिक घराने, विपक्षी नेता के घर पर ईडी की छापेमारी होती है, जनसाधारण मान लेती है कि अब तो इन साहब के लिए जेल की चक्की तो कम से कम 1 से डेढ़ साल तक पक्की हो गई है। दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार में ही वित्त मंत्री सत्येंद्र जैन, उप-मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री रहे मनीष सिसोदिया, राज्य सभा सांसद संजय सिंह और अब स्वयं आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ईडी के लपेटे में आ चुके हैं।
दिल्ली और देश के लोग जानते हैं कि दिल्ली में आप पार्टी ने लगातार तीसरी बार बड़े अंतर से भाजपा को हराकर केंद्र सरकार की ठीक नाक के नीचे एक ऐसा जख्म बनाये रखा था, जिसके खिलाफ भाजपा-आरएसएस सहित तमाम तरह की हिंदुत्ववादी शक्तियों ने एक अथक अभियान चला रखा था। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र होने के चलते दिल्ली सरकार के पास वैसे भी बेहद सीमित अधिकार थे, ऊपर से कानून-व्यवस्था, डीडीए सहित तमाम विभाग केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्य में लेफ्टिनेंट गवर्नर के माध्यम से अपने हाथ में रखता है। राज्य सरकार के पास देश के अन्य राज्यों की तरह प्रभावी अधिकार नहीं हैं।
इसके बावजूद दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र सहित मुफ्त पानी और बिजली जैसे कुछ ऐसे बुनियादी कामों को अपना प्रमुख एजेंडा बनाया था, जिसके दबाव में कहीं न कहीं केंद्र सरकार सहित तमाम राज्य सरकारों को जनोन्मुखी योजनाओं को लागू करने के लिए बाध्य होना पड़ा। बिग-कॉर्पोरेट और नई आर्थिक नीति के विपरीत जाने वाली ये नीतियां जहां पूरे देश के निम्न-मध्यम और गरीबों के लिए आकर्षण का केंद्र बनी हुई थीं, वहीं बड़ी पूंजी की राह में बड़ा रोड़ा साबित हो रही थी।
लेकिन ईडी वह बला है जिसके असर ने कहीं न कहीं महाराष्ट्र जैसे स्वाभिमानी समझे जाने वाले राज्य में कांग्रेस-शिवसेना-एनसीपी की संयुक्त सरकार को ढेर कर डाला, बल्कि विभिन्न राज्यों में तोड़-फोड़, पाला बदल, इस्तीफे की पेशकश सहित केंद्र सरकार के साथ समझौते वाली नीति पर चलने को विवश किया है। कल रात जब अरविंद केजरीवाल के साथ उनके आवास पर एक घंटे तक ईडी के अफसरान पूछताछ कर रहे थे, तभी देश में अधिकांश लोग मान चुके थे कि दिल्ली के मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी अब निश्चित हो चुकी है। यही हुआ भी।
ईडी ने इससे पहले 9 बार अरविंद केजरीवाल को समन (पूछताछ) के लिए तारीख दी थी, और हर बार उन्होंने इसकी कोई न कोई बहाना बनाकर अवहेलना की। ऐसा लगा जैसे यह ईडी की अवहेलना नहीं बल्कि सीधे सत्ता के शीर्ष पर विराजमान शख्सियत को चुनौती दी जा रही है। ऐसा कैसे हो सकता है? भाजपा समर्थकों के व्हाट्सअप ग्रुपों में तो पिछले कई वर्षों से सबसे बड़ी मांग यही थी, केजरीवाल को अंदर करो। कल रात ही कई लोगों को सोशल मीडिया पर दीवाली मनाते देखा गया है।
लेकिन फिर सवाल उठता है कि ईडी के पास ऐसी कौन सी देवीय शक्तियां हैं, जिसका विपक्ष के किसी नेता के पास कोई काट नहीं है? आइये इस मूल विषय पर लौटते हैं।
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) एक बहु-विषयक संगठन है जिसे मनी लॉन्ड्रिंग के अपराधों सहित विदेशी मुद्रा कानूनों के उल्लंघन की जांच का अधिकार हासिल है। ईडी का कामकाज वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग के अधीन आता है। भारत सरकार के एक प्रमुख वित्तीय जांच एजेंसी के तौर पर ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) भारत के संविधान और कानूनों का कड़ाई से अनुपालन के निमित्त कार्य करता है।
ईडी की ईजाद कब और कहां से हुई?
1 मई, 1956 से इसकी शुरुआत हुई, जब विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम (FERA), 1947 के तहत विनिमय नियंत्रण कानूनों के उल्लंघन से निपटने के लिए आर्थिक मामलों के विभाग में एक ‘प्रवर्तन इकाई’ का गठन किया गया था। इसका मुख्यालय दिल्ली में था, और इसकी दो शाखाएं मुंबई और कलकत्ता में हुआ करती थीं। बाद के दौर में अन्य शाखाओं को खोलने की जरूरत पड़ी और 1 जून 2000 को इसमें परिवर्तन कर इसे विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 (फेमा) के तौर पर अधिनियमित किया गया।
2002 के बाद से पीएमएलए अनुसूची में 6 की बजाय 30 तरह के अपराधों की जांच का अधिकार मिल गया। ईडी अब आतंकवाद से लेकर वन्यजीव के शिकार सहित कॉपीराइट उल्लंघन जैसे अनेकों अपराधों की जांच के लिए अधिकार संपन्न है। 2009 के संशोधन में ‘आपराधिक साजिश’ को जोड़ा गया, जिससे ईडी को साजिश के मामलों की जांच करने का अधिकार हासिल हो गया था। 2015 और 2018 में ईडी को विदेशों में अर्जित धन शोधन से जुड़ी भारतीय संपत्तियों को जब्त करने की शक्तियां प्रदान कर दी गई थीं। 2019 के संशोधनों ने आपराधिक गतिविधि के माध्यम से अर्जित संपत्तियों को (अटैच) संलग्न करने के लिए ईडी के अधिकार का दायरा बढ़ा दिया।
ईडी अर्थात प्रवर्तन निदेशालय, का मुख्यालय नई दिल्ली में है, जिसकी अगुआई प्रवर्तन निदेशक करता है। इसके पांच क्षेत्रीय कार्यालय मुंबई, चेन्नई, चंडीगढ़, कोलकाता और दिल्ली में हैं जिनकी अध्यक्षता विशेष प्रवर्तन निदेशक करते हैं। इसके अलावा 10 क्षेत्रीय कार्यालय हैं, जिनमें से प्रत्येक का नेतृत्व एक उप निदेशक करता है और 11 उप क्षेत्रीय कार्यालय हैं, जिनमें से प्रत्येक का नेतृत्व एक सहायक निदेशक करता है। नवंबर 2021 में भारत के राष्ट्रपति के द्वारा दो अध्यादेश जारी कर केंद्र की मोदी सरकार को सीबीआई और ईडी के निदेशकों के कार्यकाल को दो साल से बढ़ाकर पांच साल तक करने की अनुमति दे दी गई थी।
अप्रैल 2023 में, वित्त मंत्रालय ने वर्चुअल डिजिटल एसेट्स (वीडीए) और क्रिप्टो मुद्रा से संबंधित गतिविधियों को पीएमएलए के दायरे में डाल दिया। जुलाई 2023 में जीएसटी को पीएमएलए में शामिल कर लिया गया, जिससे धारा 66 प्रावधानों को संशोधित करते हुए जीएसटीएन, ईडी और अन्य एजेंसियों के बीच सूचना साझा करने की अनुमति मिल गई। आज ईडी के पास देश में किसी को भी संज्ञेय अपराध के लिए समन करने का अधिकार हासिल है, जो सीबीआई या एनआईए तक को हासिल नहीं है। पीएमएलए कानून के तहत ईडी राज्य सरकारों की सहमति के बिना भी देश भर में किसी भी अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार रखता है।
किसी राज्य में यदि पुलिस बल ने किसी राजनेता के खिलाफ एफआईआर दर्ज की हुई है, तो ईडी इसे आधार बनाकर राजनेताओं या कार्यकर्ताओं के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का मामला दर्ज करने में सक्षम है, जो सीबीआई के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। सीबीआई तब तक यह काम नहीं कर सकती, जब तक राज्य सरकार के द्वारा इसके लिए अनुरोध न किया जाए, या अदालत या केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) द्वारा इस बारे में आदेश जारी न किया जाए।
लेकिन इससे भी बड़ी चीज जो ईडी को देश की बाकी सभी जांच एजेंसियों से पूरी तरह निरंकुश बनाती है, वह है अभियुक्तों के द्वारा सबूत के तौर पर दिए गए बयानों की स्वीकार्यता पर पीएमएलए के तहत प्रावधान और बेहद कड़े जमानत के प्रावधान, जो इसे सर्वाधिक विवादास्पद बना देता है। पूरे देश में यह एकमात्र ऐसा कानून ईडी के अधिकार क्षेत्र में है, जिसमें जांच अधिकारी के समक्ष दर्ज कराया गया बयान कोर्ट में साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है। पूर्व में टाडा और पोटा के तहत इन खूंखार कानूनों के लिए स्थान था, जिसे पहले ही निरस्त किया जा चुका है। लेकिन टाडा और पोटा के तहत आतंकी या गैंगस्टर को ही इसके दायरे में लिया जा सकता था, पर ईडी के लिए तो किसी भी सम्मानित मुख्यमंत्री या विपक्षी राष्ट्रीय नेता तक को दो मिनट में अपराधी साबित किया जा सकता है।
इसमें जमानत का प्रावधान यह है कि मजिस्ट्रेट तब तक किसी आरोपी को जमानत नहीं देगा जब तक कि वह इस बारे में आश्वस्त न हो जाए कि प्रथम दृष्टया आरोपी पर कोई मामला नहीं बनता। इस प्रावधान को सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर खारिज कर दिया था कि इसमें जमानत के चरण में ही सुनवाई की बात कही गई थी। लेकिन अब तो ईडी के द्वारा हर नई सुनवाई पर एक नई चार्जशीट दायर कर किसी खास आरोपी को लंबे समय तक बिना जमानत के जेल के सींखचों के भीतर रखना बेहद आसान हो गया है।
मोदी राज में ईडी का अधिकार क्षेत्र और असीमित अधिकार में इजाफा
साल 2022 में जब संसद में विपक्ष की ओर से ईडी के केस दर्ज किये जाने की संख्या के बारे में जानकारी मांगी गई तो इसके लिखित उत्तर में केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी का जवाब था कि “पिछले 10 वर्षों के दौरान प्रवर्तन निदेशालय ने विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, 1999 (फेमा) के प्रावधानों के तहत जांच के लिए करीब 24,893 मामले दर्ज किये हैं, जबकि धन शोधन (मनी लांड्रिंग) निवारण अधिनियम, 2002 (पीएमएलए) के तहत लगभग 3,985 मामले दर्ज किये गये हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए के 10 वर्षों की तुलना में इन मामलों में पांच गुना वृद्धि देखने को मिली थी।
इसमें फेमा के मामलों को लें तो 2014-15 में जहां 915 मामले देखने को मिलते हैं, वह 2021-22 में बढ़कर 5,313 हो चुके थे। इसी प्रकार पीएमएलए के केस में भी 2014-15 में 178 मामलों की तुलना में 2021-22 में यह संख्या बढ़कर 1,180 हो चुकी थी। इसमें नरेंद्र मोदी कार्यकाल 1 और 2 में भी बड़ा फेरबदल देखने को मिलता है। फेमा के तहत वर्ष 2018-19 में 2,659 मामले दर्ज किये गये थे, जबकि दूसरे कार्यकाल में 2021-22 में यह बढ़कर 5,313 हो चुके थे। पीएमएलए के तहत भी 2018-19 के 195 मामलों की तुलना में 2021-22 में इसमें छह गुना उछाल के साथ संख्या बढ़कर 1,180 जा पहुंची थी।
मोदी सरकार की मंशा को अगर एक तरफ रख दें, तो भी ईडी को प्राप्त असीमित अधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट एकमत नहीं बन पाया है। यह कमी आज इतने बड़े संकट को जन्म दे चुकी है कि इसकी फायरिंग रेंज में आज समूचा विपक्ष ही नहीं बल्कि देश के प्रबुद्ध नागरिक, स्वंयसेवी कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि ईमानदारी से काम करने वाले व्यवसायी और औद्योगिक घराने तक आ चुके हैं।
वरिष्ठ अधिवक्ता और राज्य सभा सांसद कपिल सिब्बल इस बारे में दो टूक राय रखते हैं। उनके अनुसार, यह सब तो होना ही था। जो भी दल इनके मुकाबले में चुनाव लड़ने की मंशा रखता है, उसे ये लोग अरेस्ट करेंगे। आज केजरीवाल को गिरफ्तार किया गया है, अब राघव चड्ढा की बारी है। अगर नीतीश कुमार इनके साथ नहीं गये होते, तो उनके खिलाफ भी गिरफ्तारी की तलवार लटक रही होती। कोर्ट अगर अब भी खामोश रहेंगे तो यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहने वाला है। इस सरकार में ईडी भी वास्तव में एक मंत्रालय की भूमिका के तौर पर कार्य कर रहा है। उसे इस ख़िताब से नवाजा जाना चाहिए। इंडिया गठबंधन को मैं शुरू से कह रहा हूं कि इकट्ठा होकर इस लड़ाई को लड़ें।
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार करने के मौके ईडी के लिए पहले ही बन चुके थे। अगर आज विपक्ष संयुक्त ताकत के साथ मजबूत लड़ाई नहीं लड़ता तो यकीन मानिये कोई भी राष्ट्रीय नेता किसी भी दिन पीएमएलए कानून के तहत ईडी को हासिल असीमित अधिकार के चंगुल में खुद को बचा नहीं सकता। इसके तहत बचाव का एक ही रास्ता बचता है, जिसे तमाम कांग्रेसी और विपक्षी नेता अपना चुके है। चूहेदानी में जाने के बजाय लड़ने की मंशा रखने वाले चंद नेताओं पर देश की निगाहें टिकी हैं, सवाल है ऐन 2024 आम चुनाव की बेला में भी क्या उन्हें जगाने की जरूरत बची है?