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हिन्दी राष्ट्रवाद: भाषाई जड़ों की शिनाख्त कराने की कोशिश

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न्दी राष्ट्रवाद:किताब काफी मेहनत, लगन और सरोकार के साथ तैयार की गयी है। सभी ऐतिहासिक प्रसंग सन्दर्भ के साथ उद्धृत हैं। अन्त में लम्बी सन्दर्भ सूची भी दी गयी है। हिन्दी के अध्येताओं और अध्यापकों के साथ ही उन सभी लोगों के लिए भी यह एक जरूरी किताब है, जो हिन्दी ही खाते, पीते, पहनते, ओढ़ते और जीते हैं; उनके लिए भी, जो भाषा और समाज तथा राजनीति के रिश्ते को समझना चाहते हैं; उनके लिए भी, जो हिन्दी को एक अधूरी राजभाषा की त्रिशंकु वाली अवस्था में लटका दिये जाने से खिन्न हैं; और सबसे बढ़कर उनके लिए, जो इस देश में लोकतंत्र के नाम पर क़ाबिज हो चुके अल्पतन्त्र की भाषाई जड़ों की सच्चे दिल से शिनाख्त करना चाहते हैं।

हिन्दी के आज के संकट को समझने के लिए आलोक राय की किताब ‘हिन्दी राष्ट्रवाद’ एक बहुत जरूरी किताब है। यह उनकी सन् 2000 में आयी, अंग्रेजी में ‘हिन्दी नेशनलिज्म’, का हिन्दी अनुवाद मात्र न होकर पुनर्लेखन भी है, जो न केवल पिछले बीस सालों में विकसित हालात, और दृष्टि को समेटती है, बल्कि आलोक राय के साथ दो जरूरी साक्षात्कार भी इसमें शामिल हैं। इनमें से एक साक्षात्कार शाहिद अमीन और संजय शर्मा ने, और दूसरा शाहिद अमीन और पलाश कृष्ण मेहरोत्रा ने किया है।

इस किताब के अंग्रेजी संस्करण ने अपने समय में एक विचारोत्तेजक विमर्श शुरू कर दिया था, फिर भी, वे पाठक, जो इसे अंग्रेजी में नहीं पढ़ पाये थे, या नहीं पढ़ सकते थे, इस विमर्श में शामिल होने से महरूम रह गये थे।

हर साल हिन्दी दिवस और पखवाड़े के दौरान पूरे देश के सरकारी कार्यालयों में राजभाषा विभाग के निर्देश पर करोड़ों रुपये फूँक कर हिन्दी की दुर्दशा का रोना रोया जाता है। यह एक सालाना अनुष्ठान बन चुका है। उसका समस्या को समझने या हल करने की वास्तविक चिन्ता से कोई लेना-देना नहीं है।

लेकिन यह किताब इसी दुर्दशा की जड़ों को समझने की खास चिंता और सरोकार से पैदा हुई है। आख़िर ऐसा क्या घटित हुआ कि जो हिन्दी एक समय बिना किसी के सचेत प्रयास किये ही, अपनी आन्तरिक ऊर्जा से अखिल भारतीय स्वीकार्यता पाने लगी थी, वही आज गतिरोध की शिकार हो चुकी है; अंग्रेजी की जगह भारतीय बोलियों-भाषाओं के साथ एक अन्तहीन टकराव और कलह में फँस चुकी है; जिस हिन्दी ने भारत के सामाजिक और क्षेत्रीय विस्तार में अपनी जिस सर्वग्राही और समावेशी क्षमता के कारण अपनी जगह बनायी थी, और जिसके कारण एक अखिल भारतीय संपर्क भाषा बनने की ऊर्जा रखती थी और बिना किसी बाहरी प्रयास के स्वीकार्यता रखती थी, उसे किसके द्वारा अपहृत कर लिया गया।

इस हालात से परेशान लेखक का कहना है कि “मेरी समझ में मेरी कोशिश हिन्दी को उसके अपने इतिहास के कुप्रभाव से उबारने की है-यूँ कहें कि इस इतिहास को चिन्ता और चिन्तन के लिए उपलब्ध कराना, ताकि हिन्दी उस दूषित-प्रदूषित भूत से मुक्ति पा सके-और यूँ, फिर एक बार अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने में सक्षम हो सके।”

समस्या की जड़ों की पड़ताल करते हुए हम स्वाभाविक तौर पर कचहरी में नागरी लिपि की मांग के दौर तक पहुँचते हैं। वहाँ से शुरू हुए इस सफर ने कब-कब, कौन-कौन से रूप अख्तियार किये, इसकी दिलचस्प कथाएँ-अन्तर्कथाएँ संदर्भ सहित उद्धृत हैं।

लिपि की मांग का आंदोलन किस तरह से भाषायी विभाजन में परिणत हुआ, जो कालान्तर में साम्प्रदायिक विभाजन के अनेक कारणों में से एक बन गया, इसका भी विवरण है। इस क्रम में खुद हिन्दी ही हिन्दी नहीं रह गयी। और इस सिलसिले में क़ाबिज हुआ नया हिन्दी राष्ट्रवाद किस तरह से खुद अपनी उन्हीं संगिनी बोलियों-भाषाओं, उनके शब्दों, प्रयोगों, मुहावरों, लोकोक्तियों, अभिव्यक्तियों के खिलाफ काम करने लगा, जिनका प्रतिनिधित्व करते हुए हिन्दी ने किसी समय अपनी ऊर्जा और क्षमता अर्जित की थी।

हिन्दी ने अपने व्याकरण के ढाँचे में न केवल अरबी और फारसी के शब्दों को पचा लिया था, बल्कि अपने व्यवहार क्षेत्र और उसकी सीमाओं की सभी भाषाओं-बोलियों का समावेश करते हुए समृद्ध हुई थी और समृद्ध होती जा रही थी। अपने व्याकरण भेद के कारण हिन्दी, संस्कृत की बजाय अन्य भारतीय भाषाओं बोलियों के ज्यादा क़रीब थी। लेकिन अब इस नयी हिन्दी के आन्दोलन की बागडोर जिन शक्तियों के हाथों में आ गयी, उन्होंने उसे संस्कृत की बड़ी बेटी बनाने, संस्कृतनिष्ठ बनाने और खास करके अरबी-फारसी मूल के शब्दों तथा अन्य बोलियों के तद्भव शब्दों को पराया बनाने और बाहर निकालने के अभियान में हिन्दी के हिन्दीपन की हत्या कर दी।

यह अभियान न केवल एक साम्प्रदायिक अभियान की पूर्वपीठिका बना, बल्कि इसने पहले से ही जाति-वर्ण विभाजित समाज में हिन्दी को भी उच्च-जातीय, खास करके ब्राह्मणवादी अभिजात वर्ग के हाथों की कठपुतली बनाकर इसकी जीवन्तता और सम्भावनाओं को छीन करके इसे मोहताज बना दिया और खुद अपनी ही पूरक और सहयोगी भाषाओं के बीच भाषायी कलह का बायस बना कर रख दिया।

आज सरकारी हिन्दी अपने हिन्दीपन से बहुत दूर जा चुकी है, आमजन के लिए दूसरी अंग्रेजी बन चुकी है, दुरूह बन चुकी है, अंग्रेजी से टकराव करने और उसे हटाने की जगह अंग्रेजी की तरह ही अन्य भारतीय भाषाओं से टकराने और उन्हें विस्थापित करने में लगी हुई है। लेखक का मानना है कि “जब तक यह कृत्रिम ‘हिन्दी’ जनभाषा का पर्याय रहेगी या ऐसी समझी जाती रहेगी, हमारे राष्ट्रवाद के साथ गहरी समस्या रहेगी। इसके नाम पर लोगों का छलपूर्वक प्रतिनिधित्व किया जा रहा है।”

हिन्दी के सर्वग्राही और समावेशी स्वरूप ने इसे भारतीय भाषाओं-बोलियों का प्रतिनिधित्व करते हुए यहां के ग़रीबों, कमजोरों, मजदूरों, किसानों, कामगारों की लोकतान्त्रिक आशाओं-आकांक्षाओं की आवाज बनने का जो सुनहरा अवसर दिया था, इसके आन्दोलनकारियों और उनके द्वारा हासिल की गयी सरकारी हिन्दी ने उसे खो दिया और जिस तरह से ऐसे नेतृत्व के हाथों हासिल किया गया लोकतंत्र अन्ततः एक अल्पतन्त्र में बदल गया है, उसी तरह यह नयी हिन्दी भी अंग्रेजी की ही तरह एक वर्चस्व की भाषा बन कर रह गयी है।

आलोक राय प्रेमचंद के पौत्र और अमृत राय के पुत्र हैं। वे ताउम्र देश-विदेश में अंग्रेजी भाषा और साहित्य पढ़ते-पढ़ाते रहे हैं। उनका अकादमिक क्षेत्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन, आईआईटी दिल्ली तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययन-अध्यापन से लेकर नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी तथा आईसीएसएसआर की फेलोशिप तक विस्तृत है।

यह किताब काफी मेहनत, लगन और सरोकार के साथ तैयार की गयी है। सभी ऐतिहासिक प्रसंग सन्दर्भ के साथ उद्धृत हैं। अन्त में लम्बी सन्दर्भ सूची भी दी गयी है। हिन्दी के अध्येताओं और अध्यापकों के साथ ही उन सभी लोगों के लिए भी यह एक जरूरी किताब है, जो हिन्दी ही खाते, पीते, पहनते, ओढ़ते और जीते हैं; उनके लिए भी, जो भाषा और समाज तथा राजनीति के रिश्ते को समझना चाहते हैं; उनके लिए भी, जो हिन्दी को एक अधूरी राजभाषा की त्रिशंकु वाली अवस्था में लटका दिये जाने से खिन्न हैं; और सबसे बढ़कर उनके लिए, जो इस देश में लोकतंत्र के नाम पर क़ाबिज हो चुके अल्पतन्त्र की भाषाई जड़ों की सच्चे दिल से शिनाख्त करना चाहते हैं।

पुस्तक परिचय : हिन्दी राष्ट्रवाद (लेखक- आलोक राय)

(समीक्षक: शैलेश)

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