अग्नि आलोक

बांग्लादेश में हुई बगावत को भारत में ‘हिंदू-मुस्लिम’ के नजरिये से देखने और दिखाने की कोशिशें जारी

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अंजनी कुमार 

हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में पिछले दो महीने से छात्रों का जो आंदोलन चल रहा था उसका पटाक्षेप वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना के पद त्याग और देश छोड़ने के रूप में सामने आया। छात्रों और आम लोगों की बगावत ने एक तानाशाह शासन का अंत किया। इसके बाद वहां के लोगों ने देश के नेतृत्व के लिए प्रो. मोहम्मद यूनुस को चुना। जिस समय उनके नाम की बात चली उस समय वह पेरिस में थे।

वह अपने देश लौटने के बाद और अंतरिम सरकार का नेतृत्वकारी पद संभालने के बाद सबसे पहली अपील हिंसा को रोकने और अल्पसंख्यक समुदाय की सुरक्षा और संरक्षा को लेकर दिया। बांग्लादेश तानाशाही शासन अंत करने वाली बगावत के जुनून में है। भारत का मीडिया उसे हिंदू-मुसलमान बनाने पर तुली हुई है। यह राग वह देश नीति और विदेश नीति दोनों में ही अख्तियार किये हुए है जबकि दुनिया की राजनीति और अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से बदलती और आगे बढ़ती जा रही है।

भारत का बौद्धिक वर्ग और मीडिया का प्रगतिशील माने जाने वाला समूह भारत और बांग्लादेश के बीच की समानताओं को कई बिदुओं में बता रहा है। दोनों ही देश दक्षिण एशियाई देश हैं और दोनों ही 1947 तक एक ही शासन के अधीन रहे हैं। दोनों ही जगहों पर एक ही तरह की भूमि बंदोबस्ती, सिंचाई की व्यवस्था और सामाजिक सरंचना एक जैसी रही है। सबसे बड़ी समानता 1947 तक जूट की औद्योगिक व्यवस्था की थी लेकिन बंटवारे के बाद जूट की अधिकांश मिलें तो भारत के हिस्से आ गईं। लेकिन इसके लिए कच्चे माल की आपूर्ति की व्यवस्था बांग्लादेश के हिस्से में चली गई।

उस समय के बंटवारे को देखकर कई बार लगता है कि हमारे गांवों में आज भी होने वाले परिवार के बंटवारे की तरह ही थे। लेकिन, सच् इससे बड़ा है और समय की गति ने इसे आने वाले समय में नई भौगोलिक संरचना और राजनीति ने गुणात्मक फर्क ला खड़ा किया। भारत की सबसे पुरानी विकसित राष्ट्रीयता जिसे अंग्रेजों ने 1905 में तोड़ने का सारा प्रयास किया अंततः 1970-71 में पूरे वेग के साथ उठ खड़ा हुआ और दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश अवतरित हुआ।

बांग्ला पहचान के साथ खड़े हुए इस देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक अवस्था उपनिवेशिक धारा से अलग नहीं थी। जिस समय वह आजाद हो रहा था, उस समय पूरी दुनिया में मंदी छाई हुई थी। खेती और उद्योग की बजाय अब सरंचनागत विकास का नया रास्ता अख्तियार किया जा रहा था। विश्वबैंक और मुद्राकोष एशियाई देशों में खेती को अपने नियंत्रण में लेने के लिए उतावले थे और उद्योगों के विकास में नीजी क्षेत्र पर जोर दे रहे थे।

एक नये आजाद हुए देश के जो विकल्प थे, वे आसान नहीं थे। बांग्लादेश में नई स्थिरता आई। तख्तापलट और हत्याओं से गुजरते हुए यह दुनिया के सबसे गरीब देशों में शुमार हुआ। विशाल आबादी, बाढ़ और चक्रवातों में बर्बाद और मरने के लिए विवश थी। शहर का विकास इतना कम था कि उस पर और कर लादा नहीं जा सकता था। सरकार अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्त संस्थानों की ओर देखने लगी और उन पर निर्भरता बढ़ती गई थी।

1990 के दशक में जब दुनिया के विकसित देशों में ऑटोमोबाइल और सरंचनागत विकास का दम टूटने लगा तो एशियाई और गरीब देशों में कुशल मजदूरों, टैक्टनोक्रेटों की एक बड़ी खेप पैदा होकर, नौकरी के इंतजार में खड़ी दिखने लगी तब वहां की पूंजी ने इन देशों की ओर रुख किया।

जिसकी जितनी हैसियत थी उसी अनुसार विदेशी पूंजी के निवेश का नया दौर शुरू हुआ। बांग्लादेश परम्परागत तौर पर कपड़ा उद्योग में महारत रखता था। इससे जुड़ी कंपनियों ने चीन के बाद बांग्लादेश में सबसे ज्यादा निवेश किया; भारत से भी ज्यादा। यह एक नये तरह का बदलाव था, जिसने बांग्लादेश में राजनीति की नई बयार चला दिया। लंबे प्रवास के बाद शेख हसीना की देश वापसी हुई और उनके प्रधानमंत्रित्व का लंबा दौर चला था।

उनकी लोकप्रियता पूंजी की अंधी हवस में डूबने लगी। वहां शहरों में काम के हालात बेहद खराब थे, हर साल कई मंजिला मकानों में सिलाई मशीनों पर काम कर रहे सैकड़ों मजदूर ज्यादातर मामलों में आग से जलकर मर रहे थे। कई बार तो पूरी बिल्डिंग ही गिर गई। लंबी श्रम-अवधि, दशकों से स्थिर और बेहद कम वेतन, बढ़ती मंहगाई और आवास की भीषण समस्या थी। वहां अधिकतम पूंजी निवेश के लिए उन पर न्यूनतम नियंत्रण की पद्धति लागू थी। (विस्तार के लिए देखेंः सांग ऑफ शर्ट्स- जेरेमी शेरबुक, नवयाना प्रकाशन)।

इस बुरे हालात को ठीक करने के लिए सरंचनात्मक विकास की जरूरत थी। सरकार किसानों पर और अधिक भार लादने की नीति और भी अधिक बल दिया और सार्वजनिक खर्चों, खासकर शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण को और भी कम कर दिया। इसका नतीजा यह था एक ओर बाढ़ से तबाह हुए किसानों के लिए कोई विकल्प नहीं बच रहा था और दूसरी ओर उत्पादन का लाभकारी मूल्य भी हासिल नहीं हो रहा था। ऐसे में वहां बड़े बैंक निवेश करने से बच रहे थे। ऐसे में खेती में महिला श्रमिकों की निरंतरता और गांव में बने रहने की परिघटना सामने आ रही थी।

यही वह पृष्ठिभूमि थी जहां से प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस का पदार्पण हुआ था। भारत में अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह का पदार्पण कारपोरेट समूहों के पक्ष में हुआ था। बांग्लादेश में इस नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफसर युनुस का पदार्पण गांव के लोगों के पक्ष में हुआ था। दोनों ही विश्वबैंक की पसंद हैं और उनके निर्देशों के प्रति वफादार रहे हैं, लेकिन अलग-अलग धरातल पर। इसका बड़ा कारण भारत के गांवों का बैंकों के साथ 1980 में ही सीधा संपर्क में आना था। जबकि बांग्लादेश की स्थिति बेहद अलग थी।

28 जून, 1940 को जन्मे मोहम्मद यूनुस बंगाल के सबसे पिछड़े लेकिन राजनीतिक तौर पर बेहद गौरवशाली इतिहास रखने वाले चिटगांव में पैदा हुए थे। वह व्यापारी खानदान में पैदा हुए थे। ढाका विश्वविद्यालाय से अर्थशास्त्र की पढ़ाई और अमेरीका में जाकर इसी विषय में शोध किया।

1970 के दशक में जब बांग्लादेश आजादी का तराना गा रहा था वह चिटगांव विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ाते हुए वहां की गरीबी देख रहे थे। उनके लिए अर्थशास्त्र का अर्थ अब भूख से बेहाल लोगों की दो जून की रोटी हो गया। उनका मन टूट चुका था और उन्होंने विभाग छोड़ दिया। उन्होंने गांवों में भटकना शुरू किया जहां सूदखोरों का राज था। उन्होंने इसी पक्ष पर काम करना शुरू किया और माइक्रो-फाइनेंस का रास्ता लिया।

वह खुद कहीं और से पैसा उठाते और गांव की महिलाओं को बेहद छोटा सा ऋण उपलब्ध कराते, जिससे कि वे सूदखोरों की लूट से आजाद हो सकें और उनकी बचत में वृद्धि हो सके। 1983 में उन्होंने इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए ग्रामीण बैंक बनाया। 2000 तक आते-आते उन्होंने गांव और बैंक के बीच मोबाईल संचार का पुल बनाया। इसे ग्रामीण फोन कहा जाता है। आज बांग्लादेश में ग्रामीण बैंक गांव का सबसे बड़े वित्त संस्थानों में से है और ग्रामीण फोन सबसे बड़ा नेटवर्क है।

2005 तक प्रो. मोहम्मद यूनुस बांग्लादेश में ‘गरीबों का दोस्त’ और ‘गरीबों का बैंकर’ बन चुका था। 2006 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। 2007 में उन्होंने ‘नागरिक शक्ति’ नाम से एक राजनीतिक पार्टी बनाया जिसकी सदस्यता के लिए जरूरी था कि वह साफ-सुथरी छवि वाला हो। इसमें प्रोफसर, पत्रकार, सामाजिक कर्मी, छात्र आदि शामिल हुए। यह एक नए तरह का उभार था। यह दुनिया के स्तर पर ‘लोकप्रिय आंदोलनों’ का शुरूआती दौर था।

भारत में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और साफ-सुथरी छवि वाली पार्टी की स्थापना के संदर्भ में इसे सामानांतर तौर पर देख सकते हैं। उस समय की प्रधानमंत्री ने छुपे तौर पर इस पहलकदमी पर धमकी भरे बयान दिये। मोहम्मद यूनुस की पार्टी चुनाव में नहीं उतरी। लेकिन, शेख हसीना ने उन पर और उनके सारे प्रोजेक्ट पर हमला करना शुरू किया। मीडिया में जो खबरें आई उससे पता चलता है कि इस साल के शुरूआत तक उन पर 100 से अधिक केस लाद दिये गये थे।

आजाद बांग्लादेश का कट्टर समर्थक, शेख मुजीबुर्रहमान को मसीहा मानने वाले मोहम्मद यूनुस, जिन्होंने गांव के गरीबों के लिए एक नया रास्ता खोला, उसे ही प्रधानमंत्री शेख हसीना देश के लिए खतरा बताने लगीं। उन्हें नहीं मालूम था कि बांग्लादेश में उनका आधार भूमि, थोड़े से कारपोरेट और उच्च-मध्यवर्ग के बीच ही बचा रह गया है। जबकि बांग्लादेश एक नये तरह के नेतृत्व का रास्ता खोल रहा था। यह बगावत एक देश के भीतर चल रही नीतियों और उससे बनने वाली व्यवस्थाओं के बीच की टकराहट का नतीजा है।

एशियाई देशों, खासकर बांग्लादेश में अर्थव्यवस्था का केंद्र हमेशा ही कृषि रहा। औद्योगिक विकास की सीमाएं हैं और यह अपने विस्तार के लिए मुख्यतः कृषि से पैदा हुई अतिरिक्त आय पर निर्भर रही है। खेती का संकट उद्योगों के संकट में प्रकट होता रहा है और चंद अपवादों को छोड़ दिया जाये तो उद्योग कभी भी खेती के संकट, खासकर अतिरिक्त आबादी को कभी भी हल नहीं कर पाया है। भारत में तो बकायदा मनरेगा जैसी योजनाएं लानी पड़ी।

इसका बड़ा कारण इन शहरों पर आधारित उद्योगों की मुख्य सीमा साम्राज्यवाद की पकड़ से तय होती रही है। दक्षिण एशियाई देशों में साम्राज्यवाद, खेती और उद्योग दोनों पर पकड़ बनाकर रखा हुए है, ऐसे में मंदी के दौर में भयावह स्थितियों का बनना तय होता है।

प्रो. मोहम्मद यूनुस की नीतियां इन दोनों ही स्तर पर सुधारवादी हैं। लेकिन, यह भी सच है कि उनकी इन नीतियों ने गांव के गरीबों और शहर में बेजार हो रहे लोगों को सांस लेने की जगह दी। उनसे लोगों में उम्मीद पैदा हुई है। बांग्लादेश में आया बदलाव और इससे पैदा हुई उम्मीद को प्रो. मोहम्मद यूनुस कितना पूरा कर सकेंगे, आगे देखना है। उम्मीदें हमेशा ही समाज को आगे ले जाती हैं। बांग्लादेश में आगे ले जाने वाली ताकत यही उम्मीद ही होगी।

राजनीतिक-अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्था के बीच निर्णायक तत्व हमेशा ही निर्णय की क्षमता के पक्ष में रहता है। बांग्लादेश में प्रो. मोहम्मद यूनुस का उभार भारतीय उपमहाद्वीप में, और खासकर भारत के संदर्भ में गांधी जी ग्राम-स्वराज की कल्पना की याद दिलाती है और साथ ही 1970 के दशक में नक्सलबाड़ी किसान क्रांतिकारी आंदोलन के उस उभार को रेखांकित करता है जिसने ‘गांव चलो अभियान’ का नारा दिया था।

आज गांधीवादी आंदोलन बेहद कमजोर अवस्था में चला गया है। हाल के दिनों में न सिर्फ गांधी के व्यक्तित्व पर, बल्कि उनसे जुड़े संस्थानों पर भी काफी हमला किया गया है। नक्सलबाड़ी आंदोलन से पैदा हुई 90 प्रतिशत पार्टियां सर्वहारा क्रांति की नीतियों में बदलाव करते हुए गांव की धुरी से बाहर जा चुकी हैं। जो पार्टियां आज भी गांव को ही क्रांति की धुरी मानते हुए टिकी हुई हैं, उन पर पिछले 25 सालों से भयावह दमन चलाया जा रहा है।

इसके सामानान्तर हम पिछले 30 सालों में शहर आधारित औद्योगिक विकास वैश्वीकरण की नीतियों और साम्राज्यवादी संस्थानों के साथ जुड़कर क्रोनीकैपिटलिज्म में बदल गया है। यह सिर्फ उद्योग में ही नहीं वित्त संस्थानों पर कब्जा करने की ओर चला गया है। बाजार एक ऐसे संहारक तत्व में बदल गया है, जो सिर्फ लोगों की बचत की क्षमता को ही खत्म नहीं कर रहा है, यह भारत की पूरी अर्थव्यवस्था में मुद्रा के एक नियंता की तरह उभरकर आया है। यह देश में मुद्रास्फिति और मुद्रा विनिमय की दरों को जिस तरह प्रभावित कर रहा है, उससे भले ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था खड़ी हो जाये, उसमें आम इंसान के लिए कोई जगह नहीं बचेगी।

बांग्लादेश में शेख हसीना और उनकी सरकार के खिलाफ हुई आम जन की बगावत को भारत में ‘हिंदू-मुस्लिम’ के नजरिये से देखने और दिखाने की कोशिशें जारी हैं। यह बेहद आसान है और इस आसानी को और भी सरल बनाने में हमारे देश की मीडिया ने खूब काम भी किया। इस नजरिये का राजनीतिक प्रशिक्षण भी पिछले दो दशकों में हमारे देश की राजनीतिक पार्टी, खासकर भाजपा ने खूब किया है। यह नजरिया न सिर्फ अपने पड़ोसी देश को समझने और उसके साथ रिश्ते को सामान्य बनाने में एक बड़ी बाधा बन गई, उससे भी अधिक एक भयावह स्तर की कूपमंडूकता भी पैदा हुई है।

यह नजरिया यूरोप या अमेरीका में उठ रहे राजनीतिक भूचाल को भी समझने में एक दीवार की तरह खड़ा हो गया है। ऐसे में जरूरी है कि हम अपने पड़ोसी मुल्क में हो रहे बदलाव को उसकी राजनीति, उसके अर्थशास्त्र, उसकी सामाजिक संरचना और उसमें आये उबाल, उसकी सांस्कृतिक आकांक्षा और नेतृत्कारी व्यक्तित्वों और शक्तियों का समझे और उसे अपने देश के संदर्भ में देखें। हम सिर्फ एक दुनिया में ही नहीं रहते, हमारा एक साझा इतिहास भी है और हम साथ-साथ ही चल रहे हैं।

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