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यूरोप का फेंका हुआ कूड़ा खाकर, हमारा च्यवनप्राश बताने की कोशिश जोरो पर

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सावरकर की किताब हिंदुत्व 1923 में आई। 

हिन्दू वही है, तो भारत को फादरलैंड मानता है। ड्यूशलैण्ड, पितृभूमि। 

भारत, माता होती है। इटली, जर्मनी पापा होते है। इसे समझ गए तो बस सारा दा विंची कोड यहीं है। 

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सावरकर की पहली किताब इंडियन वॉर ऑन इंडिपेंडेंस 1909 में आई। दूसरी 1925 में। इन किताबो में लेखक के ख्यालों में साफ अंतर दिखाई देता है। 

इंडियन वॉर ऑन इंडिपेंडेंस, एक भारतीय की निगाह से 1857 के ग़दर को देखने की कोशिश है। यह किताब, हिन्दू मुसलमान के बीच खाई नही देखती। यह आक्रामक और आक्रांता के बीच संघर्ष और प्रतिरोध की सहज कहानी है। 

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1925 तक दुनिया बदल चुकी है। मॉडल बदल चुका है। पहला विश्वयुद्ध सम्पन्न हो चुका है। रूस में क्रांति हो चुकी है, वहां से निकला रहा मॉडल,  इम्पीरियलिज्म के लिए खतरा है।

इसके साथ, मुसोलिनी का उभार हो चुका है। वो नया सूरज है, नई रौशनी, दुनिया को चुंधियाता हुआ। वह सक्सेसफुल है, राष्ट्रवादी है। 

अपने लेखन के जरिये, बिना खूनी क्रांति, सत्ता में आया है। जर्मनी, स्पेन, जापान, ब्राजील, चीन, ग्रीस में बहुत से फ्यूचर एस्पिरेन्ट्स उसे अचंभे और एडमैरेशन से देख रहे हैं। दुनिया चमत्कृत हैं। 

सभी मुसोलिनी जैसा सक्सेसफुल, फासिस्ट देश बनाना चाहते हैं। भारत में भी ऐसे लोग हैं। 

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वो दौर था, जब फासीवाद, नाजीवाद, बुरा नही था। एक वक्त, वह मजबूत देश बनाने की नई रेसीपी था। 

वो बुरा, घृणित तो काफी बाद में होता है। जब फासिस्ट खुले हाथ से भयंकर युद्ध अपराध करते हैं। नफरत, लिंचिंग, सरकारी गुंडागर्दी हाथ पैर दौड़ने या धमकाने तक सीमित नही रहती। वह अंततः खिलकर गैस चेम्बर बनती है। 

फाइनल सॉल्यूशन, फासिज्म की तार्किक परिणति है। लाखों मौतों का दोषी बनकर फासीवाद, अभिशापित होता है। घृणित बन जाता है। पर यह 1945 के बाद होता है। 

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1942 तक तो फासिज्म उरूज पर था। सफलता की अनंत सम्भावनाओ का चमकदार द्वार था। इस दौर में गोलवरकर “वी, एंड अवर नेशनहुड डिफाइंड” लिखते हैं।

किताब 1939 में आती।अभी वे सरसंघचालक बने नहीं है, 1940 में बनेंगे। लेकिन आंखे उस फासिज्म से चुंधिआई हुई है, जो उरूज पर है। 

अंग्रेजो का दुश्मन भी है, जो हमारे दुश्मन है, उन्हें हरा रहा है। ये कॉमन ग्राउण्ड है, एस्पिरेशन है। 

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मुसोलिनी की माई ऑटोबायोग्राफी 1928 में छपी। हिटलर की “मैंन काम्फ” 1925 में छपी, और 1933 में उसकी सत्ता में आने के बाद बेस्ट सेलर बनी। 

दुनिया के पोलिटीशयन इन किताबो को पढ़ रहे हैं। जाहिर है, इन किताबो की झलक वी एंड अवर नेशनहुड डिफाइंड में मिलती है। 

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आरएसएस की स्थापना 1925 की विजयादशमी कही जाती है। दरअसल ये छोटी सी बैठक भर थी। इसमें गांधी द्वारा कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षकरण से दुखी कांग्रेसियों ने शिरकत की। 

और कुछ खास नही हुआ। संगठन का नाम भी अप्रेल 1926 में तय हुआ करना क्या और कैसे है, अब भी तय नही था। 

तब प्रेरणा के लिए इटली की तरफ देखा गया। 

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चूंकि सोनिया गांधी को पैदा होने में 20 साल बचे थे। तो इटली खराब जगह नही थी। संघ के असल कर्ताधर्ता, और DNA मेकर, प. पू. बीएस मुंजे, 1930 में इटली पहुचे। 

उन्होंने फासिस्ट सिस्टम का बाकायदा अध्ययन किया। फासिस्ट पार्टी की विचारधारा, उसकी शाखाएं, उसके मिलिट्री स्कूल, वहां के क्युरिकुलम, उनकी फिजिकल ट्रेनिंग, वर्दी, टोपी सबकुछ देखा। 

मुसोलिनी से उनकी मुलाकात कराई गई। कृतार्थ होकर वे भारत लौटे। यहां भारत मे उनके लेख छपे, जिसमे फासिज्म के कसीदे कसे गए थे। 

भारत को, भारतीयों को इससे सीखने की सलाह दी गयी थी। इंटरनेट खँगालिये, विस्फोटक सलाहें मिलेंगी। 

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और जाहिर है, कोई और सीखे या नही, उन्होंने खुद बढ़िया सीख ली थी। पूना में उन्होंने भोसले मिलिट्री स्कूल की स्थापना की। बाद में एक देशव्यापी स्कूल श्रृंखला भी खुली। 

आरएसएस का साँचा, उस 1930 के इटली भ्रमण की सीखो पर ढला। 

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फासिज्म को यूरोप ने उखाड़कर, इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया। भारत मे भी इनके सुर बदले। 

अब इन किताबो के बाद के वर्जन में कई हिस्से एडिट, ओमिट किये जाते हैं। तो लिखावट नर्म पड़ जाती है, आवाज नर्म हो जाती है। इतनी, कि ये गांधीवादी समाजवाद के नारे के साथ चुनाव लड़ते हैं। 

लेकिन जल्द ही “राम, रोटी और इंसाफ” के नारे पर लौट आते हैं। ताकत में आते ही वापस, वही सोचवही फ़लसफ़े, वो अतृप्त इच्छाएं जागृत हो जाती है, जो 1925 से 1948 तक बीच जागी थी। 

लेकिन तब अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई। 

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इसलिए आम संघी की सोच, आम संघी विचारधारा, आपको उसी वक्त में थमा, रुका हुआ मिलेगा। 

यूरोप का फेंका हुआ कूड़ा खाकर, हमारा च्यवनप्राश बताने की कोशिश जोरो पर है। अफसोस, आपके मेरे गिर्द बड़ी संख्या में हमारे अपने, इस नशे की गिरफ्त में हैं।

जय हिन्द जय भारत

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