डॉ. अभय कुमार
मुख्यधारा के मीडिया की मदद से, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने भारत के चुनावी इतिहास का एक बड़ा प्रचार अभियान चलाया, जिसमें यह दावा किया गया कि विपक्ष कहीं भी रेस में नहीं है और 2024 के आम चुनावों में एनडीए 400 से अधिक सीटें जीतने जा रही है। लेकिन जब 4 जून को नतीजे घोषित किए गए, तो भाजपा का प्रचार और उसका अहंकार दोनों के टुकड़े हो गए और भाजपा बहुमत से 32 सीटों से पीछे रह गई। हालांकि मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी ने टीडीपी, जेडीयू और अन्य सहयोगियों के समर्थन से गठबंधन की सरकार बना ली है, लेकिन सच पूछिए तो यह मोदी की नैतिक हार है, क्योंकि पार्टी के अंदर उन्हीं के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ा गया था। हाल के चुनावी नतीजे मोदी की ढलती हुई मक़बूलियत की तरफ़ इशारा करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो भाजपा को इस बार 63 सीटों का भारी नुक़सान नहीं होता।
यही वजह है कि केंद्र में एक बार फिर गठबंधन की सरकार दिख रही है। पिछले दस सालों से केंद्र सरकार पर एक ही पार्टी और एक ही नेता का दबदबा रहा है। हालांकि, हाल के सकारात्मक बदलावों पर मुख्यधारा के मीडिया में शोक व्यक्त किया जा रहा है। अगर मीडिया में सत्ता से पोषित लेखकों और कॉलम्निस्ट के लेखों को पढ़ा जाए, तो यह धारणा बनाई जा रही है कि गठबंधन राजनीति का दौर विकास दर को बाधित कर सकता है और “मजबूत” आर्थिक सुधारों में बाधा बन सकता है। उनकी माने तो गठबंधन की सरकार देश के विकास के लिए प्रतिकूल है।
मगर इस तरह की दलीलों के पीछे कोई ठोस सबूत नहीं हैं और यह विचार सत्ता वर्ग के हितों की वकालत कर रहा है। बड़ी सच्चाई तो यह है कि भारत जैसे बहुसंस्कृति और जाति पर आधारित समाज के लिए गठबंधन की सरकार ज़्यादा बेहतर है। इतना ही नहीं, गठबंधन की सरकार लोकतंत्र के लिए भी अच्छी है क्योंकि यह लोगों, ख़ासकर वंचितों के अधिकारों को मजबूत करने में ज़्यादा सहायक है। गठबंधन की सरकार की खूबी यह है कि यह सत्ता के अनेक केन्द्र बनाती है तथा किसी एक पार्टी या व्यक्ति को आसानी से राजनीतिक क्षेत्र पर हावी नहीं होने देती। अर्थात् गठबंधन की सरकार सत्ता के केंद्रीकरण को रोकने का काम करती है और एक वर्ग समूह को सत्ता को ख़ुद के स्वार्थ के लिए हड़पने से रोकने का प्रयास करती है।
लेकिन सबसे पहले, हमें लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद पर आधारित सरकार के बीच अंतर समझना होगा। आरएसएस और भाजपा धार्मिक आधार पर बहुसंख्यक हिंदुओं को एकजुट करने और “कम्युनल मेजोरिटी” बहुमत बनाने के लिए बेताब हैं। लेकिन ऐसी प्रवृत्ति लोकतांत्रिक भावना के बिलकुल ही विपरीत है। इसे समझने के लिए हमें बाबासाहेब डॉ. बी.आर. अंबेडकर के पास जाना होगा।
लगभग एक सदी पहले जब डॉ. अंबेडकर राजनीति में सक्रिय थे, उन्होंने हिंदू दक्षिणपंथ से भारत के लोकतंत्र पर मंडराते खतरे का अनुमान लगाया था। 6 मई, 1945 को बॉम्बे में आयोजित अखिल भारतीय अनुसूचित जाति परिसंघ के वार्षिक सत्र को संबोधित करते हुए, अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा: “सांप्रदायिक प्रश्न हमारे सामने एक समस्या बनी हुई है क्योंकि हिंदुओं की यह ज़िद है कि बहुसंख्यकों का शासन पवित्र है और इस व्यवस्था को हर कीमत पर बनाए रखा जाना चाहिए।”
जिस बहुसंख्यकवाद का डॉ. अंबेडकर ने पूरी ज़िंदगी विरोध किया था, उसी सिद्धांत को भाजपा ने पिछले दस सालों में अपनाया है। तभी तो मोदी सरकार की गलत नीतियों की किसी भी आलोचना को देश की आलोचना कह कर ख़ारिज करने का प्रयास हुआ। आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए भाजपा के समर्थक अलग-अलग ढंग से यही बात दुहराते रहे हैं कि भाजपा चुनाव जीत कर आई है और उसके पास संख्याबल है, जबकि विपक्ष चुनाव हारकर अपनी वैधता खो चुका है।
हालांकि आरएसएस और बीजेपी के समर्थकों का बहुसंख्यकवादी तर्क बाबासाहेब अंबेडकर के लोकतांत्रिक सिद्धांत से क़तई भी मेल नहीं खाता है। अंबेडकर को इस बात में कोई भी शंका नहीं थी कि लोकतंत्र में सरकार बहुमत के वोटों से बनती है, लेकिन इसका यह हरगिज़ भी मतलब यह नहीं है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों को बहुसंख्यकवाद के नुकीले जूतों के नीचे कुचल दिया जाएगा। डॉ. अंबेडकर ने कहा कि “किसी भी समुदाय को अपनी संख्या के आधार पर दूसरों पर हावी होने का अधिकार नहीं है।”
अंबेडकर लोकतंत्र की सच्ची भावना को परिभाषित करने में बिल्कुल सटीक थे। उन्होंने ने साफ़ तौर पर कहा कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता है। याद रहे कि बाबासाहेब के नज़दीक अल्पसंख्यक की परिभाषा संकीर्ण नहीं है। उनके मुताबिक़ माइनॉरिटी धार्मिक अल्पसंख्यक के साथ-साथ ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से उत्पीड़ित और हाशिए पर धकेले गये लोग शामिल हैं। तभी तो बाबासाहेब ने उच्च-जाति के नेतृत्व वाले सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद के खतरे से अवगत कराया, जो खुद के स्वार्थ को “राष्ट्रवाद” के रूप में पेश करता है। वहीं दूसरी तरफ़ हाशिए पर पड़े कमजोरों और दबे कुचलों की वैध मांगों और उनके राजनीतिक एकता को “सांप्रदायिक” कह कर ख़ारिज करता है। जिस तरह से ए.आई.एम.आई.एम. के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी पर हिंदू दक्षिणपंथी हर दिन हमला करते हैं, वह अंबेडकर के शब्दों को सही साबित करते हैं।
बॉम्बे में आयोजित अखिल भारतीय अनुसूचित जाति परिसंघ के वार्षिक सत्र के दो साल बाद, अंबेडकर ने एक छोटा सा पैम्फलेट लिखा, जो “स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज” नाम से जाना जाता है। यह छोटी सी किताब ज़रूर है, मगर यह माइनॉरिटी के लिए बहुत बड़ा दस्तावेज है। “स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज” में अंबेडकर ने सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद के मिथक को उजागर किया, जो राष्ट्रवाद और लोकतंत्र के रूप में खुद को वैध बनाता है। उनके शब्दों पर गौर करें, “अल्पसंख्यकों द्वारा सत्ता में हिस्सेदारी के किसी भी दावे को सांप्रदायिकता कहा जाता है जबकि बहुसंख्यकों द्वारा संपूर्ण सत्ता पर एकाधिकार को राष्ट्रवाद कहा जाता है।”
अगर हम अंबेडकर के विचारों को ध्यान में रखें, तो हम गठबंधन की राजनीति से हिंदू दक्षिणपंथी और उनके कैडर-लेखकों की बेचैनी और चिंताओं को आसानी से समझ सकते हैं। लोकतांत्रिक भावना के विपरीत, हिंदू दक्षिणपंथी “जिसकी भैंस उसकी लाठी” के सिद्धांत में विश्वास करते हैं और उसी पर काम भी करते हैं। इसी तरह, दलितों, आदिवासियों, ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ सत्ता साझा करने के विचार से भगवा ताक़तों को बड़ी एलर्जी है। वे इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि अधिनायकवाद और लोकतंत्र के बीच बुनियादी अंतर सत्ता में हिस्सेदारी का सवाल है। उदाहरण के लिए, एक अधिनायकवादी शासन इस लिए गैर-लोकतांत्रिक होता है, क्योंकि यह लोकतंत्र के विपरीत, हाशिए के समूहों के साथ सत्ता साझा करने से बचता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो, एक अधिनायकवादी शासक ख़ुद ही सब कुछ तय करता है। पूरी सत्ता उसी की जेब में है। तभी तो वह आलोचना और असहमति को सुनने को तैयार नहीं है। उसके शासन में, सत्ता में हिस्सेदारी के अवसर ख़त्म कर दिए जाते हैं। शक्ति के संतुलन की संस्थाएं ध्वस्त कर दी जाती हैं। कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं होता है। संवाद और आम सहमति से फ़ैसले नहीं लिए जाते हैं। प्रेस और न्यायपालिका की स्वतंत्रता ख़त्म हो जाती है। अल्पसंख्यकों का आनुपातिक और प्रभावी प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता। एक बात और ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि कई बार लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी बहुत सारी अधिनायकवादी प्रवृत्तियां देखी जाती हैं।
इसके विपरीत, लोकतांत्रिक व्यवस्था केवल चुनावों का नाम नहीं है। हालांकि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। लोकतंत्र सिर्फ़ सरकार के गठन का ही नाम नहीं है। विकास दर में बढ़ोतरी भी लोकतंत्र की असली पहचान नहीं है। वास्तव में, सच्चा लोकतंत्र वह है जहां कमजोर वर्गों और हाशिए पर पड़े लोगों के अधिकारों और हितों की रक्षा की जाती है। उदाहरण के लिए, भारत जैसे जाति-आधारित समाज में, किसी एक वर्ग के नेताओं के हाथों में सभी के हितों की रक्षा करने की जिम्मेदारी नहीं सौंपी जा सकती है। भले ही नीतियां और कानून कितने भी अच्छे हों, लेकिन जब तक हाशिए पर पड़े वंचित समुदाय के लोगों को उन्हें लागू करने की स्थिति में नहीं लाया जाता, तब तक ये “अच्छे” कानून अपने आप में कमजोरों के अधिकारों को सुनिश्चित करने में कारगर नहीं हो सकते।
इस प्रकार, लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहचान सत्ता में भागीदारी और सत्ता का विकेंद्रीकरण है। इसलिए देखा गया है कि जिस भी लोकतंत्र में गठबंधन की सरकार बनती है, वहां अधिनायकवादी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखा जाता है। चुनावी व्यवस्था में जहां कई दल प्रतिस्पर्धा में होते हैं, वहां संभावना है कि राजनीतिक दल मतदाताओं को ज्यादा से ज्यादा कल्याणकारी योजनाएं प्रदान करेंगे।
दुर्भाग्य से, भारतीय राजनीति के पिछले दशकों में, विशेष रूप से केंद्र में, एक पार्टी और एक नेता का वर्चस्व रहा है। यही वजह है कि केंद्र में मोदी के नेतृत्व वाली पिछली सरकारों ने संघवाद की सच्ची भावनाओं का पालन नहीं किया है। हाल ही में, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने अपनी निराशा व्यक्त की कि बांग्लादेश के साथ जल-विवाद पर चर्चा करते समय केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल की सरकार को शामिल नहीं किया। अगर यह मान भी लिया जाए कि केंद्र सरकार भारत के हितों की रक्षा करने में सक्षम थी, फिर भी क्षेत्रीय सरकार को संवाद से बाहर रखना अलोकतांत्रिक है।
आज की समस्याएं हों या माज़ी के झगड़े, सब का तार इस बात से जुड़ा हुआ है कि सत्ता में सब को समान हिस्सेदारी मिली। अल्पसंख्यकों के साथ सत्ता साझा करने और आम सहमति के आधार पर निर्णय लेने में विफलता ने भारत में कई संकट पैदा किए। मिसाल के तौर पर, पंजाब संकट, पूर्वोत्तर, जम्मू-कश्मीर और दक्षिणी राज्यों की समस्याएं, सत्ता से वंचितों की बेदखली से जुड़ा हुआ मामला है। वही जब भी गठबंधन की राजनीति का दौर आया है, सत्ता में भागीदारी बढ़ी है और देश मजबूत हुआ है।
गठबंधन राजनीति के आलोचकों से मेरी यही अपील है कि वे मोदी सरकार के नए कार्यकाल के कामकाज पर नजर डालें। उनको बहुत सारे सकारात्मक बदलाव दिख जाएंगे। भाजपा को बहुमत न मिलने और विपक्षी दलों को मिली महत्वपूर्ण बढ़त ने सरकार के कामकाज को कुछ हद तक लोकतांत्रिक बना दिया है। दस साल के अंतराल के बाद, लोकसभा में आज विपक्ष का नेता है, जो सरकार की विफलता पर सवाल उठा रहा है। कानून सिर्फ यही कहता है कि सबसे ज्यादा सांसद वाली विपक्षी पार्टी को सदन को आमंत्रित किया जाना चाहिए कि वह सदन को नेता प्रतिपक्ष दे। लेकिन गलत तर्क का बहाना बनाकर पिछले दस सालों से सदन को लीडर ऑफ अपोजीशन से वंचित रखा गया है। कहीं भी यह कानून की किताब में नहीं है कि जब तक विपक्षी दल के पास सदन की कुल संख्या का कम से कम 10 प्रतिशत सांसद नहीं होगा, तब तक उसे नेता प्रतिपक्ष भेजने का अधिकार नहीं है।
यह चिंता की बात नहीं बल्कि खुशी की बात होनी चाहिए कि देश में फिर से गठबंधन की सरकार बनी है और संसद में विपक्षी नेताओं की आवाज अब बुलंद हो गई है। गठबंधन की सरकार की वजह से ही अब भाजपा के सहयोगी दल, जो कल तक फोटो-फ्रेम में कहीं नहीं थे, अब मोदी के करीब बैठे नजर आ रहे हैं। ये सारे सकारात्मक बदलाव गठबंधन की राजनीति की वापसी के कारण हैं। हालांकि, यह तर्क नहीं दिया जा रहा है कि सब कुछ ठीक हो गया है। लेकिन इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि 4 जून 2024 के बाद का राजनीतिक मंच, 2014 से 2024 के दृश्यों से कहीं ज्यादा खूबसूरत नजर आ रहा है।