प्रफुल्ल कोलख्यान
भाग्य विधाता बनने की हैसियत के भ्रम के शिकार नरेंद्र मोदी अपनी औकात पर इतराते हुए कह गये कि इलेक्टोरल बांड की अभेद्य गोपनीयता के सार्वजनिक व्यवस्था में आ जाने पर खुश होने वाले के भविष्य में पछताने की बात कह दी। प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी जब भी मुंह खोलते हैं बहुआयामी बात बोलते हैं। उनकी बातों में बहुत तीव्र आकर्षण होता है। वे अन्य नेताओं की तरह अक्कड़-बक्कड़ तो बिल्कुल नहीं बोलते हैं। प्रधानमंत्री की बात पर गहराई से गौर कर लेना हर नागरिक के लिए जरूरी होता है। एक बात साफ-साफ समझ में आती है कि प्रधानमंत्री कभी पछतानेवाला काम नहीं करते हैं।
प्रधानमंत्री इलेक्टोरल बांड के सार्वजनिक व्यवस्था में आने से बस इतना खुश हैं कि उन्होंने ऐसा कमाल का कानून बनवाया था। इस कानून के चलते आज सब कुछ साफ-साफ पता चल रहा है। पहले का तो किसी को पता ही नहीं चलता था! जिन्हें इलेक्टोरल बांड की जानकारी से अब खुशी हो रही है, वे पछतायेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पहले से ही सब पता है, इसलिए उन्हें पछताने की क्या जरूरत। खैर अब तो जानकारी आम हो चुकी है, जो जो होना है, होगा! 2024 के आम चुनाव के बाद यह तूफान गुजर जायेगा। 04 जून तक सारा माल और मलबा ठिकाने लग चुका होगा। पछतावों का अटूट सिलसिला उफान पर होगा। अभी तो लगते-लगाते बस 04 जून 2024 के ऐतिहासिक दिन का इंतजार है।
इलेक्टोरल बांड की अभेद्य गोपनीयता के समाप्त एवं जानकारी के सार्वजनिक होने के पहले और बाद की राजनीति और रणनीति में गुणात्मक अंतर आने की उम्मीद है। यह अंतर सकारात्मक भी हो सकता है या फिर नकारात्मक भी हो सकता है। यह मानकर चलना ठीक नहीं है कि विपक्षी गठबंधन, जिसे अब कांग्रेस जनबंधन कह रहा है, के नेताओं में नागरिक अधिकार को तरजीह देने की होड़ लग जायेगी। लेकिन इतनी तो उम्मीद की ही जा सकती है कि कुछ-न-कुछ सकारात्मक बदलाव अवश्य होगा। झूठ के पुलिंदों का वजन कुछ-न-कुछ कम जरूर होगा।
ऐसा लगता है कि यह दुर्भाग्यजनक समय जनता के ठगे जाने के समय के रूप में विख्यात होगा। राजनीति में ‘सत्य के साथ प्रयोग’ का युग तो महात्मा गांधी के साथ अपनी परिणति को प्राप्त हो गया था। ‘झूठ के साथ प्रयोग’ मोदी अवतार के युग की समाप्ति के साथ अपनी तार्किक परिणति को प्राप्त कर लेगा। संवैधानिक न्याय को ठगना जितना आसान होता है, सृष्टि चक्र में स्वचालित प्राकृतिक न्याय को झुठलाना उतना आसान नहीं होता है।
1950 में गठित योजना आयोग को समाप्त करते हुए 1 जनवरी 2015 को राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्था अर्थात नीति आयोग (NITI नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया) का गठन किया गया। नीति आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उपाध्यक्ष सुमन बेरी और मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत हैं। डॉ. राजीव कुमार मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के पहले नीति आयोग के उपाध्यक्ष थे। बड़े धूमधाम से नीति आयोग (NITI) का गठन किया गया था। प्रमुख उद्देश्य था शक्तिशाली भारत का निर्माण और इसके लिए उपलब्ध संसाधनों के दक्ष आकलन के आधार पर भारत सरकार को ‘उच्च कोटि’ की तकनीकी और रणनीतिक सलाह देना।
NITI आयोग भारत सरकार को ऐसी उच्च कोटि’ की तकनीकी और रणनीतिक सलाह दी। इस सलाह के चलते अद्भुत तेजी से गरीबों की आबादी के कम होने का पक्का विश्वास भारत सरकार को हो गया है। गरीबों की आबादी की कमी की यह रफ्तार बरकरार रही तो चुनाव के बाद गरीबी रेखा को ही समाप्त कर देने की घोषणा की जा सकती है। गरीबों को नगण्य, अर्थात गिनने लायक नहीं माना जायेगा; न तीन में, न तेरह में।
गरीब कब और कैसे ‘गरीब’ नहीं रहे, गरीबों को इसका पता ही नहीं चला! लेकिन, बाकी लोगों की समझ में यह नहीं समा रहा है कि फिर 80-82 करोड़ या पता नहीं कितने करोड़ को पचकेजिया मोटरी-गठरी थमाने का पुण्य क्यों लूटे चले जा रहे हैं! क्या उन्हें पता नहीं है कि इस से ईमानदार करदाताओं की अंतरात्मा कितनी छिल जाती है! मोदी जी को असलियत का पता तो जरूर होगा! फिर पुण्य का भी सवाल अपनी जगह है ही। पुण्य का पण्य हो जाना इसी युग में संभव हुआ है, यह भी तो समझना होगा। सीधे-सीधे न समझ में आये तो बाकी बची क्रिया करके भक्त समझा देंगे। यह सब चुनाव परिणाम के बाद की बात है। अभी तो कहते हैं, मौसम बदल रहा है। कुछ-कुछ लोग यह भी कहते हैं कि मौसम बदल रहा नहीं, बल्कि बदल गया है। फिर भी ’बिन मौसम की बरसात’ के अपने अनुभवों को याद जरूर कर लेना चाहिए।
बेरोजगारों की क्षतिग्रस्त सामाजिक हैसियत और ‘अग्निवीरों’ की राजनीतिक स्थिति की बात, शिक्षा-स्वास्थ्य की निरंतर हो रही दुर्गति, बढ़ती हुई बहुमुखी यौन-हिंसा, दुराचार आदि, यानी कुल मिलाकर परिदृश्य बहुत भयावह है। नौकरी न मिलने और नौकरी से बिना किसी मुआवजे के निकाल दिये जाने की व्यथा-कथा विज्ञापनों की चकाचौंध में लपेटकर सरकारी योजनाओं के ब्लेकहोल में ‘सफलतापूर्वक’ संस्थापित या संस्थार्पित कर दी जाती है।
अधिकतर मामलों में, युवाओं की हालत ‘विलासी बाप’ की बदहाल संतान जैसी होकर रह गई है तो बूढ़ों की दुर्दशा ‘परदेसीपूत’ के लावारिस बूढ़े मां-बाप जैसी होकर रह गई है। रोजगार और बेगार का अंतर तो रहा ही नहीं। एक तरफ ‘वन-वन’ की सदाबहार ललकार तो दूसरी तरफ बहुआयामी महंगाई (Multidimensional inflation) का कमाल-ही-कमाल और उस कमाल के साथ कमल-ही-कमल! क्या महान दृश्य है, क्या भूत है, क्या भविष्य है!
पेपर लीक (leak) होने का मामला अपनी जगह। पेपर लीक (lick) करने की परिस्थिति में फंस जाने का दुख अपनी जगह। leak और lick दोनों अपनी जगह। lateral का जमाना है, lateral की बात कीजिए। सिविल सेवाओं में लैटरल एंट्री की योजना 2019 में शुरू की गई थी। केंद्र सरकार ने सिविल सेवा परीक्षा की नियमित प्रक्रिया के बाहर से भारत सरकार में मध्यम और वरिष्ठ स्तर के पदों पर ‘बड़े कर्मठ अधिकारियों’ की भर्ती की प्रक्रिया शुरू की गई थी। ‘Lateral Entry’ यानी बगल प्रवेश से ‘बड़े कर्मठ अधिकारियों’ की नियुक्ति का मजाल और मजा अपनी जगह है तो ‘Lateral Exit’ यानी बगल निकास का कोई प्रावधान हो तो उसका मलाल अपनी जगह होगा!
फिलहाल, माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आम आदमी पार्टी के नेता और राज्य सभा सदस्य संजय सिंह का जेल से जमानत निकास दुधारी खबर की तरह मीडिया में उछल रही है। मीडिया की बात! यह ठीक है कि मीडिया पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। न मीडिया की भक्ति भावना का सवाल उठाना ठीक है। लेकिन, चुनाव में Level Playing Field के दायरे में मीडिया का योगदान कुछ-न-कुछ तो होना ही चाहिए, खासकर तब जबकि प्रचार, कुप्रचार और समाचार का फर्क लगभग मिट ही गया है। केंद्रीय चुनाव आयोग इस मामले में अपनी ‘स्वस्फूर्त राय’ भी रख ही सकता है, Level Playing Field तो आखिर केंद्रीय चुनाव आयोग का ही संवैधानिक दायित्व है। क्या पता कहीं मीडिया ‘स्वस्फूर्त आत्मावलोकन’ कर ले! आत्मावलोकन मतलब अपनी आत्मा के आईने में अपना चेहरा देखना।
ईवीएम (EVM) मतदान और मतगणना पद्धति और प्रक्रिया में शतप्रतिशत VVPAT मतपर्ची को शामिल करने पर माननीय सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला सुनानेवाला है। इधर, खबर है कि द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी ने आगामी विधानसभा चुनाव 2024 से पहले तीसरी पीढ़ी के एम3 इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के डिजाइन पर सवाल उठाते हुए मद्रास उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। सकारात्मक फैसला अपेक्षित और प्रतीक्षित है।
1757 में भ्रष्टाचार के कमाल को बहुत नजदीक से देखने के बाद अंग्रेजों के मिजाज में राजनीतिक दुराचार का जो साहस बढ़ता चला गया था वह सौ साल में इतना बेपरवाह हो गया कि 1857 की क्रांति हो गई। 1857 की क्रांति न हुई होती तो अंग्रेजों को महात्मा गांधी की ‘अहिंसा’ का महत्व समझने में शायद बहुत वक्त लगता। 30 दिसंबर 1922 में पहली साम्यवादी (Communist) राज्य व्यवस्था के विश्व पटल पर आने और 25 दिसंबर 1991 में जाने के बीच और बाद क्या हुआ!
मतलब यह है कि किसी बड़ी घटना के बाद और पहले की राजनीतिक परिस्थिति में अंतर तो होता ही है। क्या अंतर! अनुमान का विषय है। सोवियत न हुआ होता तो पूंजीवाद को लोकतंत्र प्रेम और लोक-कल्याण का मर्म समझने में कितना वक्त लगता! कौन बता सकता है? इतिहास बता सकता है! इतिहास का अनुभव है कि उसका अनुभव ज्ञान का नहीं अनुमान का विषय बनकर रह जाता है, वह भी उच्छृंखल अनुमान का! क्या मुश्किल है! इतिहास भी अनुमान का विषय है और भविष्य भी। उच्छृंखलता का कमाल दोनों जगह!
लोकतंत्र क्रांति के महत्व का निषेध नहीं करता, क्रांति के तात्पर्य का अपने अंदर समाविष्ट कर लेता है। क्रांति के तात्पर्य को अपने मूल्य-बोध में संजोकर सच्चा लोकतंत्र फासीवाद और गर्हित पूंजीवाद को समाप्त करने में सफल होता है। सच्चा लोकतंत्र पूंजीवाद को स्वस्थ और राज्य व्यवस्था को मानव सक्षम बनाता है। इलेक्टोरल बांड के पहले और बाद की राजनीति एवं रणनीति में चाहे जो बदलाव हो, यह तो तय है कि इलेक्टोरल बांड के पर्दाफाश होने के बाद भारत के लोकतंत्र पर लगे धन-ग्रहण के समाप्त होने का समय आ गया है। क्या यह उच्छृंखल अनुमान का निष्कर्ष है? नहीं, मानव प्रवृत्ति के ऐतिहासिक व्यवहार के अनुमान का अनुशासित निष्कर्ष है। सादा हो या काला धन उसका लोकतंत्र का ग्रहण बन जाना बहुत अशुभ होता है। इसलिए फिर कहें, इलेक्टोरल बांड के पर्दाफाश होने के बाद भारत के लोकतंत्र पर लगे धन-ग्रहण के समाप्त होने का समय आ गया है।