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*भावनात्मक मसले सबसे ज्यादा असरकारक*

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अमिता नीरव

कुछ साल पहले हमारे शहर में फ्रॉड की एक ही जैसी घटनाओं की हर दिन खबर आया करती थी। कोई महिला अकेली मंदिर जा रही है, कोई साथ-साथ चलने लगता है और कहता है कि आगे कुछ लुटेरे हैं आपके सोने की चेन लूट लेंगे। आप मुझ दे दें मंदिर से आते हुए वापस दे दूँगा।

या कि आपके पास जो सोना है, उसे डबल करके दूँगा। हर दिन इसी तरह की घटनाएँ पढ़ने में आती थी तो कोफ्त होने लगती थी कि हर दिन इस तरह की घटनाएँ अखबार में पढ़ने को मिलती है, फिर भी महिलाएँ इस तरह के झाँसे में आती रहती हैं। 

हम पहले जिस घर में रहते थे, वहाँ पास ही में आसाराम का आश्रम था। उसी आश्रम से आसाराम की रेप केस में गिरफ्तारी हुई थी। जब ये खबर चल रही थी कि आसाराम गिरफ्तार होगा, तब आश्रम के भीतर बड़ी संख्या में भक्तों को इकट्ठा किया गया था। हम भी तमाशा देखने गए थे। 

आश्रम के पास उसके भक्तों ने बड़ी संख्या में जमीन ली औऱ घर बनाए हुए हैं। जब गिरफ्तारी हो गई तो आसपास की महिलाएँ बाकायदा रोईं। कई भक्तों को यह कहते सुना कि ये तो गुरुजी की लीला है। जैसे कंस के कारगार में जन्मे कृष्ण ने की थी, ठीक वैसी ही। 

बाद में भी आश्रम में भक्तों की आवाजाही हुआ करती थी, आज भी होती ही होगी। मैं सोचती थी कि जो चीज हमारे सामने इतने स्पष्ट तरीके से घट रही हो, उसे ओवरलुक करके भी लोग इतनी आस्था और श्रद्धा कैसे रख पाते हैं?

एक घनघोर दक्षिणपंथी मित्र हैं। खासी बड़ी सेलिब्रिटी हैं। परिचय के शुरुआती साल में संघ की शाखा के बारे में राय जाहिर करते हुए कहा था कि ‘पिताजी के कहने पर एक बार मैं शाखा गया और पाया कि वहाँ फॉलोवर्स की जरूरत है। यदि आप अलग सोचते हैं तो आपकी वहाँ जगह नहीं है।’ 

उन्होंने बताया कि उसके बाद उन्हें ये समझ आ गया कि शाखा में वे नहीं ‘खप’ पाएँगे और फिर वे कभी शाखा नहीं गए। करीब तीन साल पहले हुई मुलाकात में राजा बाबू के बारे में राय जाहिर करते हुए बोले कि वो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, आप जैसे लोग उन्हें डिस्ट्रैक्ट कर रहे हैं। 

यहाँ तक सब कुछ रीजनेबल ही चल रहा था। मगर पिछले दिनों हुई मुलाकात में उन्होंने बुरी तरह से शॉक किया। वे भाव विभोर होकर कह रहे थे कि ‘राजा बाबू हमारे देश के लिए ईश्वर का वरदान है।’ मुझे शाखा पर अपनी राय व्यक्त करते हुए याद आ रहे थे। सोच रही थी कि कैसे रेशनलिटी पर श्रद्धा हावी हो जाती है। 

कई साल पहले अमेरिका से एक बहुत हैरान करने वाली खबर आई थी। ठीक-ठीक तो याद नहीं है, किसी धार्मिक सम्प्रदाय के चौरासी लोगों ने इस उम्मीद में सामूहिक आत्महत्या कर ली थी कि किसी खास दिन मरने से हेवन मिलेगा। उस वक्त अमेरिका पढ़े लिखे औऱ तार्किक लोगों को देश लगा करता था। 

ये बात हमेशा हैरान करती रही है दुनिया में भावनात्मक मसले सबसे ज्यादा असरकारक सिद्ध होते हैं। चाहे मामला धर्म का हो या देश का। अक्सर ताकतवर लोग आम लोगों को भावुक करके अपने स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं और ये लगातार होता आ रहा है। आगे भी ऐसा नहीं होगा ये नहीं माना जा सकता है।

कभी लगा करता था कि जैसे-जैसे शिक्षा का विस्तार होगा, लोगों तक सूचनाओं के ज्ञान के स्रोत सुलभ होंगे भावनात्मक मसले उतने निर्णायक नहीं रहेंगे। लेकिन पिछले कुछ वक्त से ये समझ धुँधली पड़ने लगी है। उल्टे यह समझ मजबूत हो रही है कि दुनिया को भावना से ही जीता जा सकता है। 

असल में हम भावनाओं से ही बहलते हैं, भावनात्मकता ही हमें जोड़े रखती है। तार्किकता हमें अलग कर देती है। दुनिया भर में सत्ताएँ भावनाओं का दोहन करती हैं। बार-बार ठगे जाने के बावजूद जनता बहलती है तो सिर्फ और सिर्फ भावनात्मक मुद्दों पर। क्योंकि ये मुद्दे ही अपील करते हैं।  

क्या इसलिए कि भावनाएँ प्राकृतिक हैं। एक नवजात बिना सिखाए ही हँसता है रोता है, डरता है, खुश होता…। इसका अर्थ ये है कि भावनाएँ प्राकृतिक हैं। वे हममें जन्मजात हैं। 1970 के दशक में अमरिकी मनोवैज्ञानिक पॉल एकमैन ने छः तरह के बेसिक इमोशंस आयडेंटिफाय किए थे। 

उन्होंने बताया कि पूरी दुनिया में, हर संस्कृति में खुशी, डर, उदासी, निराशा, गुस्सा और आश्चर्य – बेसिक इमोशंस की तरह पाए जाते हैं। बाद में उन्होंने इस लिस्ट में चार और इमोशंस – गर्व, शर्म, एम्बेरेसमेंट (शर्मिंदगी या उलझन) औऱ उत्साह। इन दस इमोशंस के कॉम्बिनेशन से कॉम्प्लेक्स इमोशन बनते हैं।

मोटा-मोटी इमोशंस को व्यक्त करने में सभ्यता के टूल की जरूरत नहीं पड़ती है। इसलिए भी ये प्राकृतिक लगते हैं। मगर तर्कों की अभिव्यक्ति का सबसे जरूरी टूल भाषा है। तो जब तक भाषा का आविष्कार नहीं हुआ था, तब तक तर्क का अस्तित्व कैसे हो सकता है? 

अभी भी किसी घनघोर अनुयायी से पूछ देखें कि क्या दुनिया में समानता हो तो बुरा है? वो कहेगा नहीं, क्या सबको सबका हक मिले ये खराब बात है, वो कहेगा नहीं। क्या सब प्रेम, शांति और भाईचारे के साथ रहे इसमें कोई दिक्कत है, वो कहेगा नहीं।

फिर सवाल करो की यदि मार्क्स ये कह गए हैं तो आपको इसमें दिक्कत क्या है? वो एकदम से पलट जाएगा। उसे धर्म याद आएगा, देश याद आएगा, जाति, संस्कृति, पौराणिकता सब याद आ जाएगी। मैं हमेशा सोचती थी कि ऐसा क्यों हो जाता है? शायद इसलिए कि तर्क प्राकृतिक नहीं है। तर्क करने के लिए तैयारी करनी होती है। 

तर्क स्वाभाविक रूप से नहीं आते हैं। तर्कों की अभिव्यक्ति भाषा के टूल से ही संभव है। इसलिए तर्कों की उत्पत्ति सभ्यता के विकास क्रम में हुई है। वो भी भाषा के आविष्कार के बाद। शायद इसीलिए अब तक भी इंसान भावनाओं से शासित होता है। बहुत पढ़ने-लिखने के बाद भी तर्क चाहे कर लेगा, लेकिन प्रभावित भावनाओं से ही होगा। 

दुनिया के इतिहास के तमाम उदाहरण उठा लीजिए, कहीं तर्कों से लोगों को मोटिवेट नहीं किया जा सका। हर जगह बदलाव, क्रांति या आंदोलन भावनात्मक मुद्दों पर ही होते हैं, सफल भी तभी होते हैं, जब मामले भावनात्मक हों। कितना ही पढ़-लिख लें, तर्क संस्कृतियों का हिस्सा नहीं हो पाएँगे। 

क्योंकि तर्क तो सभ्यताओं की ही ईजाद है।

#सूत्र_विस्तार

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