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सशक्तिकरण : सब्जेक्ट सशक्त स्त्री की छवि का

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डॉ. विकास मानव

    _मेरे ख्यालों में स्त्री की सबसे सशक्त छवि तब उभरती है जब मैं उसे अपने एकांत में सिर्फ खुद के लिए सुकून से बैठा देखूँ। अपने में खोए हुए कुछ गुनगुनाते, कुछ ऐसा सोचते कि दृढ़ता से होठ भिंच जाएं या पांच बरस की एक छोटी सी बच्ची की तरह खेलते हुए- किसी भी चीज़ से।_
लेकिन~

सच तो यह है कि मैंने अपने आसपास कभी किसी स्त्री को अकेले नहीं देखा। परंपरागत परिवारों से आई या छोटे शहरों की स्त्रियां अपने परिवार के लोगों के साथ होती हैं। महानगरों में भी वो कभी अकेले नहीं दिखतीं। उनके साथ उनका कोई पुरुष या स्त्री दोस्त होता है। अकेली सड़क पर वे कानों में हेडफोन लगाए किसी से बतियाती हुई जाती हैं। किसी कॉफी हाउस या रेस्त्रां में कोई अकेली स्त्री दरअसल किसी का इंतज़ार कर रही होती है या फिर उसकी कॉफी के दौरान कोई न कोई उसके फोन पर होता है।

अकेले निकलने वाली कामकाजी स्त्रियां भी अकेले कहां होती हैं। वे अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने जा रही होती हैं। समय से दफ्तर पहुँचने की हड़बड़ी में होती हैं या घर लौटने के निर्धारित समय से देर हो चुकी होती है।
उनका आगत उनके वर्तमान में शामिल रहता है हमेशा। वे या तो कहीं जा रही होती हैं या कहीं से लौट रही। आगे बढ़ने के लिए उनके पांव हवा में उठते ही कोई ‘अन्य’ दूसरे छोर पर मौजूद होता है। वे जैसे ख़ला में एक सफ़र तय करती हैं किसी और के अधूरेपन को भरने के लिए।
मैंने किसी स्त्री को अकेले बैठकर कुछ सोचते भी नहीं देखा। उसे सोचने के लिए कोई चाहिए। वे गौर से सामने वाले की प्रतिक्रियाओं को सुनती हैं और फिर अपना फैसला सुनाती हैं।
मैंने किसी स्त्री से कभी यह नहीं सुना कि वह साफ-साफ कहे कि ‘मुझे यह पसंद है’ या ‘मैं यह चाहती हूँ’। वह जो चाहती है उसकी पुष्टि किसी और से करती है और उसकी ‘चाहना’ अक्सर उसकी नकारात्मक प्रतिक्रियाओं में निकलती है। उसके निषेध और नकार के धुंधलके में कहीं कोई एक मंद, बुझती या कई बार भभकती लौ सी ख्वाहिश चमक उठती है।
वह अपनी खुशी और अपने दुःख में भी किसी के साथ होना चाहती है। उसके लिए साथ के बिना ये दोनों ही अधूरे हैं। खुशी के रंग हल्के पड़ जाते हैं और दुःख उमड़ता ही नहीं कि बाहर बह निकले और मन को हल्का कर दे।

स्त्री अपने एकांत को सबसे छुपाती है। इस तरह उसका एकांत एक रहस्य बन जाता है। उसके छोटे-छोटे राज़ कभी खुलते नहीं हैं। जब खुलते हैं तो सिर्फ उनका एक हिस्सा जगमगाता है बाकी रहस्य में आवरण से ही ढका रहता है। जैसे लगता है कि स्त्री का सबसे निजी सुख बहुत अमूल्य सी चीज़ है, जिस पर सूरज की रोशनी नहीं पड़नी चाहिए नहीं तो वह भाप की तरह उड़ जाएगा।
ठीक इसी तरह जब स्त्री अपने दुःख में बिल्कुल अकेली हो जाती है तब वह नहीं चाहती कि उसका दुःख कोई और देखे। वह खुद को दुनिया की नज़रों से छिपाकर रो लेती है, अपनी स्मृतियों को तहस-नहस कर देती है, अपनी यादों को खुरच-खुरचकर मिटा देना चाहती है।
यहां उसे किसी का साथ नहीं चाहिए। वह कभी नहीं चाहती कि इन जख़्मों को कोई देखे। वह अंतिम समय तक अपने भीतर के नन्हे से स्वाभिमान को मरने नहीं देना चाहती। इसीलिए अपने अस्तित्व के लिए जब वह संघर्ष कर रही होती है तब भी उसको अकेलापन चाहिए, किसी का साथ नहीं।

अपनी अंतिम लड़ाई, अंतिम संघर्ष, दर्द की अंतिम लहर में स्त्री अकेली होती है। दांत भींचकर, उभरी हुई नसों और माथे पर आए पसीने के साथ वह लड़ती है, बहुधा जीतती है, कई बार हार भी जाती है।
मैंने किसी स्त्री को अकेले नहीं देखा तो किसी स्त्री को हारते भी नहीं देखा। उसकी हार दिखती भी है तो उसमें हमारी कायरता के प्रति एक उपहास होता है। स्त्री को हारने के लिए मजबूर करना एक किस्म की कायरता है, जैसे प्रकृति का विध्वंस करना।
पर सवाल वही है, अपने दुःख और संघर्ष में अकेली हो जाने वाली औरत अपनी खुशियों के साथ कब स्वतंत्र होगी? कब अपने अकेलेपन के प्रति आत्मविश्वास से भरी होगी? वह भीतर से कब इतनी हल्की और मुक्त हो सकेगी जैसे प्रकृति में उसके जैसी तमाम सुंदर चीज़ें हैं।

ब्रिटिश लेखिका ब्रिजेट एटकिंसन की एक कहानी है ‘औरत और साइकिल’। इस कहानी में एक औरत साइकिल चलाना सीखती है और हर रोज एक निश्चित समय पर घर से बाहर निकलने लगती है।
पुरुष देखता है कि अब वह पहले से ज्यादा खुश और सुंदर दिखने लगी है। उसे औरत पर संदेह होता है। वह एक दिन उसका पीछा करता है।
औरत साइकिल चलाते हुए घने पेड़ों के झुरमुट में खो जाती है। वह चुपके से देखता है तो हैरान रह जाता है। घने पेड़ों के बीच एक खाली सी जगह में उसकी पत्नी ने अपनी साइकिल पेड़ से टिका रखी थी।
लेखिका लिखती हैं, ” उसकी पत्नी नाच रही थी! उसके बदन से लालिमा लिए एक आभा फूट रही थी… घिरनी की तरह गोल-गोल… और अपने में पूरी तरह से मगन- आज़ाद।
यथास्थितिवादी बनी रहकर अपने हालात के पास ख़ुद को गिरवी रख चुकी स्त्रियों से क्या कुछ कहना. बहाव के साथ मुर्दे बहते हैं. जिंदा कौमें लहरों से टकराती हैं और पार पाती हैं. इस सच से इत्तेफ़ाक़ रखने वाली स्त्रियां हमसे व्हाट्सप्प 9997741245 पर कनेक्ट रह सकती हैं. उनकी राह की बधाओं के समापन का दायित्व हमारा है, बिना उनसे कुछ भी लिए.
(लेखक मनोचिकित्सक एवं चेतना विकास मिशन के निदेशक हैं.)

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