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*आस्थामूलक दर्शन से विज्ञान की मुठभेड़*

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        पुष्पा गुप्ता 

विज्ञान और आस्था के बीच के टकराव में विज्ञान आज तक विजयी रहा है और उसने आस्था के प्रभाव-क्षेत्र को संकुचित करने का काम किया है। मौजूदा अवैज्ञानिक पूँजीवादी व्यवस्था कूपमण्डूकता और अतार्किकता फैलाने के अपने प्रयासों के ज़रिये नये सिरे से मूर्खतापूर्ण आस्थाओं को जन्म दे रही है।

      विज्ञान को इन नयी कूपमण्डूकताओं पर विजय पानी होगी और इसके लिए सिर्फ कुछ वैज्ञानिक प्रतिभाओं की आवश्यकता नहीं है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक बदलाव की भी आवश्यकता है।

     विज्ञान क्या है? आज जो इसका स्वरूप है वह इसने कैसे अख्‍त़ियार किया? मानव अपने भौतिक उत्पादन के लिए किये गये सामाजिक व्यवहार से इन्द्रियानुगत ज्ञान प्राप्त करता है।   

    इस इन्द्रियानुगत ज्ञान की अगणित पुनरावृत्तियों के बाद वह उसे सामान्यीकृत करता है और बुद्धिसंगत ज्ञान की मंज़िल तक पहुँचता है। यह विज्ञान की ओर उसका पहला कदम होता है। बाद में बुद्धिसंगत ज्ञान के विराट निकाय को वह विशेषीकृत करता है और ज्ञान को अलग-अलग शाखाओं में विभाजित करता है। यह विज्ञान की ओर उसका दूसरा कदम होता है।

      इसके बाद अलग-अलग शाखाओं में ज्ञान अपनी विषय-वस्तु के अध्ययन को व्यवहार और सिद्धान्त के अन्तहीन सिलसिले से आगे विकसित करता जाता है। और इसी प्रक्रिया में विज्ञान विकसित, विशेषीकृत और उन्नत होता जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य का सामाजिक व्यवहार बेहद अहम भूमिका निभाता है। सभ्यता के उन्नत होने के साथ सामाजिक व्यवहार अनगिनत जटिल और वैविध्यपूर्ण रूप अख्‍त़ियार करता गया है।

     अपने उन्नत शिखरों पर वह अपने मूल, यानी उत्पादक व्यवहार से कटा हुआ नज़र आता है। लेकिन करीबी से विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि आज भी ज्ञान की समस्त शाखाओं का, जिन्हें हम वाकई विज्ञान कह सकते हैं, मूल उत्पादक और सामाजिक व्यवहार ही है। यह सामाजिक व्यवहार सतत चलता रहता है तथा विज्ञान के अग्रतर विकास की ज़मीन इसके आधार पर तैयार होती रहती है।

       वैज्ञानिक सिद्धान्त और व्यवहार के सम्मिलन के ज़रिये नयी और बेहतर तकनीकें पैदा होती हैं जो कि वापस आकर व्यवस्थित सामाजिक व्यवहार के ज़रिये और उन्नत ज्ञान पैदा करती हैं, जो शुरुआती मंज़िल पर आँकड़ों और डेटा के रूप में होता है। विज्ञान लगातार विकासमान रहता है। विज्ञान का लगातार संचय होता है।

       विज्ञान धरती से लेकर ब्रह्माण्ड तक की उत्पत्ति, पत्तों के पीले होने से लेकर बिजली कौंधने तक, और भी तमाम अनुभूत, प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष, प्राकृतिक घटनाओं के कारणों की तलाश करता है और इनका बख़ूबी जवाब भी देता है। यह सूक्ष्म से सूक्ष्म गति से लेकर विराटतम ब्रह्माण्ड के नियमों का सूत्रीकरण करता है। विज्ञान आज जिस रूप में है, यह तार्किक रूप इसने इतिहास के लम्बे संघर्षों के बाद ही हासिल किया है।

जब से विज्ञान ने पालने से बाहर निकलकर पैरों पर चलना सीखा है, उसने भौतिकवाद को एक सही, सम्पूर्ण और तार्किक विश्वदर्शन के रूप में स्थापित किया है। प्राकृतिक विज्ञान की हर नयी खोज, हर नये सिद्धान्त ने विश्व की भौतिकवादी व्याख्या को और अधिक पुष्ट किया। जैसे-जैसे विज्ञान की दृष्टि अधिक से अधिक सूक्ष्मतम धरातलों पर उतरती गयी, वैसे-वैसे इहलोक का क्षेत्रफल बढ़ता गया और परलोक का क्षेत्रफल घटता गया।

      यही कारण था कि विज्ञान की हर अग्रवर्ती छलाँग ने धार्मिक और रहस्यवादी दर्शनों में असुविधा की लहर का संचार किया; यही कारण था कि हर जगह धार्मिक संस्थाओं और दार्शनिकों ने विज्ञान और वैज्ञानिकों के दमन का प्रयास किया। ख़ासतौर पर, यह प्रक्रिया पुनर्जागरण काल के बाद शुरू हुई, जब विज्ञान ने अपना आज का आधुनिक रूप ग्रहण करना शुरू किया था। यूरोप में, जहाँ विज्ञान ने अपनी आधुनिक संरचना पायी, इसका पुनर्जागरण काल से ही ख़ासा विरोध हुआ।

       चलिये एक नज़र इस पर भी दौड़ा लेते हैं कि आखि़र ये दार्शनिक किस तरह विज्ञान का विरोध करते थे, जो कि आज भी जारी है। उसके लिए पहले हमें यह जानना होगा कि ये आस्थावादी विचारक कैसे इस विश्व तथा उसमें रहने वाले लोगों के जीवन की परिस्थितियों की व्याख्या करते हैं। इसके बाद ही हम यह समझ सकते हैं कि आखि़र क्यों यह विज्ञान का विरोध करते हैं।

हिन्दू धर्म के अनुसार इस सृष्टि का रचयिता ईश्वर है, ब्रह्मा है। उसने ही इस जगत की रचना की है। उसी की इच्छा के चलते स्वर्ग-नरक, ग्रह-नक्षत्र और तमाम जीव-जन्तु, पेड़-पौधे अस्तित्व में आये। इनकी भाषा में कहें तो ‘सब प्रभु की माया है’। चाँद को राहू और केतू निगल लेते हैं। नाना प्रकार के देवी-देवताओं की आराधना से सुख-समृद्धि का विस्तार होता है।

      आजकल आम घरों में धार्मिक अनुष्ठानों में अधिकांशतः लक्ष्मी और गणेश की पूजा की जाती है। इस धरती पर हमारे कर्म ही हमारे भाग्य को सुनिश्चित करते हैं। किसी को अच्छे कर्मों के लिए स्वर्ग मिलता है, तो किसी को बुरे कर्मों के लिए नर्क, तो कोई 84 लाख योनियों के फेर में फँस जाता है। दूसरी तरफ एकेश्वरवादी ईसाई, यहूदी और मुस्लिम, तीनों धर्म सृष्टि-रचना-सिद्धान्त (creationism) को मानते हैं।

     इसके अनुसार ईश्वर ने ही मनुष्य को बनाया। पहले उसने आदम को बनाया फिर हव्वा को आदम की हड्डी से बनाया। तमाम जीव-जन्तुओं की रचना उस ईश्वर ने मनुष्य के लिए की। यहाँ दी गयी ये व्याख्याएँ अधूरी हो सकती हैं या किसी व्यक्ति को ग़लत भी लग सकती हैं। दरअसल ये व्याख्याएँ समाज की प्रगति के साथ बदलती रही हैं और जब भी इन पर सवाल खड़े होते हैं तो इनका रूप बदल जाता है।

     यूरोप में तो ख़ासकर हर बड़ी वैज्ञानिक खोज के साथ इनकी साख दाँव पर लगी रहती है और ये अपने को बचाये रखने के लिए या तो नया रूप हासिल करती हैं या उस खोज को अपने में समाहित करने का प्रयास करती है। पर जब यह नामुमकिन हो जाता है, तो ये सारी खोजें इनके लिए बचकानी हो जाती हैं और फिर सवाल तर्क का नहीं पवित्रता और आस्था का बन जाता है और आस्था के सामने विज्ञान की क्या बिसात!!

आस्था की जड़ें मुख्यतया अज्ञानता में समायी होती हैं। गहरायी से विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि अज्ञानता की जड़ें शोषण में होती हैं, और शोषण के कारण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जुड़े होते हैं। यही कारण है कि व्यवस्था पोषित करती है तमाम उन दर्शनों को जो मौजूदा निज़ाम को पवित्र बनाते हैं। हर प्रगतिशील विचार को पुराने पड़ चुके दर्शन या तो अपने अनुसार समायोजित कर लेते हैं या नकार देते हैं। यह संघर्ष हमारे पूरे मानव इतिहास में प्रवाहमान रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में भी यही इतिहास रहा है।

     जब कॉपरनिकस ने मौजूदा खगोलीय आँकड़ों के तार्किक अध्ययन से ब्रह्माण्ड का केन्द्र धरती से हटाकर सूर्य को बताया और चर्च के सिद्धान्त पर प्रहार किया तो उन्हें इस गुस्ताख़ी के लिए सज़ा-ए.मौत दी गयी। पर विज्ञान की अग्रवर्ती इससे रुकी नहीं। जब ब्रूनो ने कॉपरनिकस के अनन्त ब्रह्माण्ड के केन्द्र को सूर्य से हटाकर यह बताया की सूर्य ब्रह्माण्ड के अनेक सितारों में से एक है तथा चर्च की ख़िलाफत की तो उन्हें इसके लिए ज़िन्दा जला दिया गया। गैलिलियो, सेर्वियूतस और इनके जैसे तमाम लोगों ने अपनी जान गँवा कर या यातनाएँ झेलकर विज्ञान को ज़िन्दा रखा और ईश्वरपरक सिद्धान्त को विज्ञान से अलग किया। विज्ञान के क्षेत्र में दर्शनों का यह संघर्ष वास्तव में समाज में मौजूद संघर्ष का ही प्रतिबिम्ब था।

       विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे दर्शनों के टकराव का पूरा इतिहास तो विराट है और उसकी यहाँ विवेचना सम्भव नहीं है। हमारा मकसद यहाँ उन महत्त्वपूर्ण अग्रवर्ती छलाँगों को देखना है जिसने विज्ञान की अतार्किक आस्था पर वरीयता को स्थापित करने का काम किया और विश्व की भौतिकवादी व्याख्या की प्रमाण-सिद्धि को सशक्त और सुदृढ़ बनाया।

*न्यूटन का पहला आवेग :*

     पुनर्जागरण के उथल-पुथल भरे दौर, सन 1543, में मौजूदा खगोली आँकड़ों का तार्किक विश्लेषण करके कॉपरनिकस ने यह बतलाया कि दरअसल धरती सूर्य का चक्कर काटती है न कि धरती का सूरज। यही समय था आधुनिक विज्ञान की उत्पत्ति का। भौतिकवादी दर्शन के उद्भव का।

      विज्ञान को यहाँ से आगे तथा उच्च स्तर पर ले जाने का काम न्यूटन ने किया। न्यूटन विज्ञान के महान शिक्षकों में से एक हैं। उन्होंने ही सार्वत्रिक गुरुत्व का सिद्धान्त दिया तथा गति के तीन नियम दिये; उस समय के मौजूदा भौतिक आँकड़ों का विश्लेषण कर उन्हें नियमबद्ध किया। उन्होंने संसार में भौतिक तत्वों की गति के नियम दिये।

      न्यूटन ब्रह्माण्ड को एक ऐसी घड़ी के मानिन्द मानते थे जो एक बार शुरू करने पर हमेशा अपनी गति से चलती रहती है और इस गति के नियमों का ही प्रतिपादन न्यूटन ने किया। न्यूटन के अनुसार यह सृष्टि एक ऐसी मशीन थी जिसे शुरू करने के लिए भगवान के लौकिक आवेग की ज़रूरत थी। न्यूटन ने इस सिद्धान्त से धरती की परिधि को नियमबद्ध किया। न्यूटन के सिद्धान्त यह समझाते थे कि धरती सूर्य के चारों ओर चक्कर किस प्रकार काटती है तथा उसकी गति की परिधि का विश्लेषण कैसे किया जाये, लेकिन न्यूटन के पहले नियम के अनुसार धरती को उस गति को हासिल करने के लिए पहले आवेग की ज़रूरत थी, जिसके बाद वह उस गति से सूर्य के गुरुत्व में उसके चारों और घूमने लगती।

      इस आवेग को न्यूटन ने भगवान द्वारा दिये गये “पहले आवेग” में ढूँढ़ा। इस समय भौतिकवादी दर्शन यान्त्रिक था। न्यूटन का भौतिकवाद भी एक यान्त्रिक भौतिकवाद था। न्यूटन द्वारा रखी गयी ईश्वरपरक व्याख्या का खण्डन उस समय नहीं किया जा सका। इसका खण्डन काण्ट ने किया। काण्ट ने बताया कि पूरा सौरमण्डल एक नेब्यूला से बना था, जो कि अपने आन्तरिक विकर्षण के चलते ग्रहों में विभाजित हुआ। इस प्रकार धरती, सूर्य और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई। भगवान के आवेग की कोई ज़रूरत नहीं थी।

      काण्ट की इस व्याख्या को लाप्लास ने 1796 में सिद्ध किया। काण्ट ने यह भी बताया कि प्रकृति कोई ‘क्लोज़्ड सिस्टम’ नहीं है जैसा कि न्यूटन ने सोचा था। यह सतत् अस्तित्व में आने और नष्ट होने की प्रक्रिया है।

लेकिन अभी भी विज्ञान के क्षेत्र में चल रहे संघर्ष में भौतिकवाद एक सुसंगत रूप में प्रकट नहीं हो पाया था। यह प्रक्रिया उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जाकर एक मुकाम पर पहुँची, जब मार्क्स और एंगेल्स ने हेगेल के भाववादी द्वन्द्ववाद और फ़ायरबाख़ के यान्त्रिक भौतिकवाद के वैज्ञानिक संश्लेषण से द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक द्वन्द्ववाद के सिद्धान्तों का निरूपण किया। इसके बाद हुई वैज्ञानिक खोजों ने हर बार इन सिद्धान्तों की पुष्टि की।

      बीसवीं सदी में हुए वैज्ञानिक विकास ने, विशेष रूप से सापेक्षिकता सिद्धान्त और क्वाण्टम यान्त्रिकी ने, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्तों को न सिर्फ पुष्ट किया, बल्कि उनके अग्रवर्ती विकास की सम्भावनाओं की ओर भी इशारा किया है। लेकिन इन पर चर्चा कर पाना यहाँ सम्भव नहीं है और आगे के अंकों में हम इन पर भी लिखेंगे। फ़िलहाल, विज्ञान और आस्था के संघर्ष में हम अगले मील के पत्थर पर आते हैं।

*हेल्महोल्ट्ज़ का उष्मीय-अन्त :*

      सन् 1852 में एक लेक्चर में हेल्महोल्ट्ज़ नामक वैज्ञानिक ने ऊर्जा के संरक्षण के नियम तथा कारनोट के इंजन की व्याख्या द्वारा बढ़ती एण्ट्रोपी के नियम को समावेशित करके यह निष्कर्ष निकाला कि यह ब्रह्माण्ड धीरे-धीरे “उष्मीय-अन्त” (थर्मल डेथ) की तरफ बढ़ रहा है। (ये दोनों नियम बाद में ऊष्मागतिकी के पहले और दूसरे नियम के नाम से जाने गये)। एण्ट्रोपी एक परिमाणात्मक मात्रक है जो रैण्डमनेस (randomness) या अस्त-व्यस्तता को मापती है।

      यह ब्रह्माण्ड में ऊर्जा के रूपान्तरों से हमेशा बढ़ती रहती है। ऊष्मागतिकी में यह ताप और ऊष्मा पर निर्भर करती है। ब्रह्माण्ड के किसी भी पृथक हिस्से में बढ़ती एण्ट्रोपी का मतलब यह कि वह ऊर्जा के बराबर वितरण की तरफ बढ़ता है। जब ऊर्जा का वितरण बराबर हो जायेगा, वह उष्मीय सन्तुलन पर आ जायेगा। ऐसे हिस्से में अब कोई ऊर्जा का रूपान्तरण नहीं होगा। वह गतिहीन हो जायेगा। यही अनुरूपता जब हम पूरे ब्रह्माण्ड को पृथक मानकर लागू करते हैं तो ब्रह्माण्ड के गतिहीन होने के परिणाम तक पहुँचते हैं यानी उसका उष्मीय-अन्त हो जायेगा।

      इस सिद्धान्त को धार्मिक संस्थाओं ने तुरन्त यह कहकर प्रचारित किया कि चूँकि इस दुनिया का अन्त होगा तो इसकी उत्पत्ति भी की गयी है। तथैव उस महान रचयिता के द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने के लिए यह सब हो रहा है। इस ग़ैर-भौतिकवादी सोच के बीज भी ग़ैर-भौतिकवादी दर्शन की ज़मीन से पोषित होकर अभिव्यक्ति पाते हैं। आज विज्ञान के ज़रिये हमें पता है कि हर सन्तुलन अस्थाई तथा सापेक्षिक होता है। पूरा ब्रह्माण्ड गतिमान है और सतत् विकास कर रहा है। हर गति में सन्तुलन होता है और हर सन्तुलन में सापेक्षिक गति।

      एंगेल्स के शब्दों में कहें तो ‘किसी वस्तु में सापेक्षिक गतिहीनता की सम्भावना, और अस्थायी सन्तुलन की सम्भावना ही पदार्थ और जीवन के अस्तित्व की अनिवार्य स्थिति है।’ (प्रकृति का द्वन्दवाद) हमारा सम्पूर्ण जीवन भी ख़ुद रुकाव और गति के अन्तर्विरोधों में गुँथा होता है। किसी भी प्रक्रिया को उसके दिक् और काल से अलग काटकर देखना अधिभौतिकवादी दर्शन है।

 हेल्महोल्ट्ज़ की इस व्याख्या को आज नकारा जा चुका है। प्रीगोझीन के असन्तुलन के सिद्धान्त ने उपरोक्त व्याख्या को वैज्ञानिक धरातल पर नकार दिया है। जैसे ही हम हेल्महोल्ट्ज़ के यान्त्रिक संसार के अलग-अलग हिस्सों में गुरुत्व और अन्य बलों को लाते हैं तथा इन पृथक हिस्सों को जोड़ते हैं तो “उष्मीय-अन्त” का अन्त हो जाता है।

      आज यह साबित हो चुका है कि एण्ट्रोपी एक सांख्यिकी मात्रक है जो इस तरह परिभाषित ही होती है कि वह ब्रह्माण्ड के आन्तरिक बदलावों के साथ बढ़ती रहती है। यह किसी प्रक्रिया में बदलाव के सारे मापदण्डों पर विमर्श नहीं करती। ब्रह्माण्ड में कभी भी पूरी तरह सन्तुलन नहीं आ सकता। यह ख़ुद लगातार बदल रहा है और इसमें सन्तुलन व असन्तुलन की शक्तियों में सतत् द्वन्द्व जारी है।

*कितना इण्टेलिजेण्ट है इण्टेलिजेण्ट डिज़ाइन?*

      1859 में डार्विन द्वारा दिये गये विकास के सिद्धान्त ने यह साबित कर दिया कि मानव की उत्पत्ति हज़ारों सालों के उद्भव और विकास से हुई है। जीवन की शुरुआत जटिल प्रोटीन द्वारा संचालित उन जटिल संरचनाओं से हुई, जिन्हें हम जीवाणु कहते हैं। ये लाखों सालों पहले धरती पर पड़ने वाली सूर्य की पराबैंगनी किरणों की ऊर्जा का भण्डारण कर सकते थे। इन जीवाणुओं के उद्भव और विकास की लम्बी प्रक्रिया ने सम्पूर्ण जैविक जगत, ख़ुद मनुष्य का भी सृजन किया।

     उद्भव और विकास की प्रक्रिया प्राकृतिक चयन द्वारा वातावरण के अनियमित और सशर्त विकास के अनुरूप ही जीन का चुनाव करती है। डार्विन के इस सिद्धान्त के कारण ही विज्ञान की एक अलग शाखा “जेनेटिक्स” का उद्भव हुआ, जिसने मानवीय उद्भव और विकास का पूर्ण निरूपण किया। इस सिद्धान्त ने चर्च और दूसरे धर्मों के “सृष्टि-रचना-सिद्धान्त” का पूर्ण रूप से खण्डन कर दिया।

      ईश्वर ने न तो इंसान को बनाया है, न जानवरों और पेड़ पौधों को। वे तो लम्बी उद्भव और विकास की प्रक्रिया से अस्तित्व में आये। मानव ने अपने विकासक्रम के बारे में अपूर्ण तथ्यों के चलते परिकल्पना के संयोजन से भगवान की रचना की। इस सिद्धान्त का उल्लेख मार्क्स-एंगेल्स ने अपने लेखों में अक्‍सर किया है। ख़ुद 2009 में इंग्लैण्ड के चर्च ने अपने पूर्वजों द्वारा किये गये व्यवहार के लिए डार्विन से माफ़ी माँगी थी। पर इस सबके बावजूद एक नयी ईश्वरपरक धारणा “इण्टेलिजेण्ट डिज़ाइन” डार्विन के सिद्धान्त को नकारती है।

      इसके प्रचारक, जिसमें वैज्ञानिक भी शामिल हैं, तर्क देते हैं कि कुछ प्राकृतिक संरचनाएँ इतनी जटिल हैं कि उन्हें कोई उच्चतम प्राणी ही बना सकता है। यह तर्क डार्विन के समकालीन प्रतिद्वन्द्वी विलियम पाली का ही है, जो कहते थे कि इतना जटिल डिजाइन सिर्फ भगवान के द्वारा ही बनाया जा सकता है। ऐसे लोगों की जगह वापस प्राथमिक पाठशाला है जहाँ उन्हें यह समझाया जाये कि नर्सरी क्लास के बच्चे उच्चतर गणित के समाकलन को नहीं समझ सकते। इण्टेलिजेण्ट डिज़ाइन के समर्थकों द्वारा दिये गये “तर्क” पूरी तरह से खोखले साबित हुए हैं और ख़ारिज़ हो चुके हैं।

     ऐसे तमाम विचार आज भी पनप रहे हैं जिन्हें पालने-पोसने का काम तमाम संस्थाएँ कर रही हैं। बताने की ज़रूरत नहीं कि ये सारी संस्थाएँ धार्मिक हैं, व्यवस्था-पोषित हैं। ऐसे में एक ज़रूरी सवाल दिमाग़ में उठना लाज़िमी है – जब विज्ञान ने भौतिकवादी दर्शन को इतना पुष्ट किया है, गहरा किया है, विस्तार किया है तो फिर तमाम तर्कहीन व्याख्याएँ विज्ञान से लेकर हर ज्ञान-क्षेत्र में आज भी मौजूद क्यों हैं? आखि़र इसके पीछे कारण क्या है? कैसे तमाम दर्शन मानव मस्तिष्क पर अपना असर छोड़ते हैं? क्या तमाम सोच और इच्छाएँ सिर्फ व्यक्तिगत होती हैं?

        इस सवाल को अगर अपने समाज से जोड़कर देखा जाये तो यह सवाल और भी साफ हो जाता है। क्यों तमाम इंसानों द्वारा आज़ादी, बराबरी और न्याय की इच्छा प्रकट करने के बावजूद समाज में ध्रुवीकरण मौजूद है? अन्याय, झूठ और अँधेरगर्दी हर तरफ फैली हुई है?

इसका कारण सामाजिक और ऐतिहासिक है। हम एक वर्ग समाज में जी रहे हैं। वर्ग समाज की आर्थिक व्यवस्था की बुनियाद असमानता होती है। इस समाज में एक वर्ग जनसंख्या का एक छोटा-सा हिस्सा होने और किसी भी प्रकार की उत्पादक गतिविधि का अंग न होने के बावजूद अधिकांश संसाधनों पर नियन्त्रण रखता है और शासन-सूत्र भी उसके प्रतिनिधियों के हाथ में होता है; जबकि दूसरा वर्ग जनसंख्या का बहुसंख्यक होने और जीवन के लिए ज़रूरी सभी शर्तों को पैदा करने के बावजूद अपनी ही नियति के नियन्त्रण से वंचित होता है और पूरी तरह सम्पत्तिधारी वर्गों के वर्चस्व के अधीन होता है।

      शासक वर्ग इस स्थिति को बनाये रखने के लिए अगर महज़ अपनी राज्यसत्ता द्वारा बल-प्रयोग का रास्ता अपनायेंगे तो निश्चित रूप से यह बहुत लम्बे समय तक नहीं चल सकेगा। यही कारण है कि शासक वर्ग अपनी शिक्षा, संस्कृति, मीडिया और संस्थाओं द्वारा शासित वर्ग के मस्तिष्क में यथास्थितिवाद, भाग्यवाद, अतार्किकता, कूपमण्डूकता, निराशा और निर्भरता पैदा करता है।

      धर्म ऐसी ही एक संस्था के रूप में शोषित-उत्पीड़ित आबादी को नियतिवादी बनाता है, उसके दुखों-तकलीफ़ों के लिए उसे ज़िम्मेदार ठहराता है, समाधान के लिए आसमान की ओर देखना सिखाता है और इहलोक में ही उसके समक्ष मौजूद शत्रु से उसका ध्यान हटाता है। पूरे समाज में शासक वर्गों का वर्चस्व कायम रहे इसलिए विज्ञान, संस्कृति, कला, इतिहास आदि ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अतार्किक, अनैतिहासिक और शासक वर्ग की सेवा करने वाले विचारों को घुसाया और स्थापित किया जाता है। यही कारण है कि विज्ञान की अपनी स्वायत्त गति और उसके द्वारा होने वाली खोजें हर-हमेशा द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी जीवनदृष्टि को पुष्ट करती हैं, लेकिन शासक वर्ग के दर्शन इसे हमेशा विकृत करने, इसे तोड़ने-मरोड़ने और अपने हितों और सिद्धान्तों के अनुरूप व्याख्यायित करने का प्रयास करते रहते हैं।

      यही कारण है कि आज विज्ञान का विकास कदम-कदम पर शासक वर्गों की साज़िशों और षड्यन्‍त्रों के कारण अवरुद्ध हो रहा है। आज विज्ञान एक संकट का शिकार है। इस संकट से उसे मुक्ति तभी मिल सकती है जब उसके विकास के पैरों में पड़ी बेड़ियों को तोड़ फेंका जाये। विज्ञान और आस्था के बीच के टकराव में विज्ञान आज तक विजयी रहा है और उसने आस्था के प्रभाव-क्षेत्र को संकुचित करने का काम किया है। मौजूदा अवैज्ञानिक पूँजीवादी व्यवस्था कूपमण्डूकता और अतार्किकता फैलाने के अपने प्रयासों के ज़रिये नये सिरे से मूर्खतापूर्ण आस्थाओं को जन्म दे रही है।

     विज्ञान को इन नयी कूपमण्डूकताओं पर विजय पानी होगी और इसके लिए सिर्फ कुछ वैज्ञानिक प्रतिभाओं की आवश्यकता नहीं है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक बदलाव की भी आवश्यकता है।

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