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महामारी भाग – 3….मानव की बेबसी पर जैसे कोरोना वायरस और ज्यादा डरा रहा हो.

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किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

किसी ने कुछ दिन पूर्व मुझसे पूछा था – ‘सर, क्या किसी कोरोना मरीज का पोस्टमार्टम हुआ है, अगर नहीं तो वैज्ञानिक कोरोना मरीज का पोस्टमार्टम कर इसके विषय में शोध क्यों नहीं कर रहे ?’

इसका प्रत्युत्तर ये है कि ऐसा नहीं है कि कोरोना मरीज का पोस्टमार्टम नहीं हुआ है या वायरस पर शोध नहीं हो रही लेकिन ज्यादातर मरीजों का पोस्टमार्टम इसलिये नहीं किया जाता क्योंकि मृत देह से भी कोरोना वायरस 24 घंटे तक ट्रांसमिशन कर सकता है, मगर 24 घंटे बाद लाश में से संक्रमण स्वतः ही ख़त्म होने लगता है.

फॉरेंसिक एक्सपर्टस ने पोस्टमार्टम किया था और पोस्टमार्टम एक्सपर्ट्स के अनुसार मृत शरीर में कोरोना वायरस का संक्रमण 18 से 20 घंटे बाद भी उसके मुंह, नाक व गले में एक्टिवेट था.

उस शव को बहुत ही हाइजीनिक लैब में परीक्षण किया गया था और इस परीक्षण में पाया गया कि सामान्यतः फेफड़ों का वजन बहुत कम होता है लेकिन कोरोना से संक्रमित होने पर फेफड़ों के वजन में बेहिसाब वृद्धि होती है. और ऐसा कोरोना वायरस के कारण फेफड़े में पड़ने वाले वात के दबाव (फेफड़ों में ऑक्सीजन की कमी) तथा फंगस (कफ) की अत्यधिक वृद्धि के कारण होता है, इसीलिये तो कोरोना वायरस सबसे ज्यादा फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है. (आगे भी शोध जारी है और समय समय पर नतीजे भी सामने आ रहे है)

उत्तराखंड के सीएम वाला बयां भी काफी वायरल हो रहा है जिसमें उन्होंने कहा कि ‘कोरोना भी एक प्राणी है और उसे भी जीने का अधिकार है.’ लोगों ने इसका संदर्भ जैन धर्म से जोड़ा) तो इसे जैन दर्शन के हिसाब से भी समझ लेते हैं कि जैन दर्शन क्या कहता है यथा –

जैन दर्शन में जीव का आत्मा के हिसाब से एक भेद कहा है अर्थात सभी जीवों की आत्मा समान होती है. अर्थात कोरोना के जीव और मनुष्य की आत्मा एक समान है, लेकिन दोनों के कर्मबंध अलग अलग प्रकार के हैं. इसीलिये काया के रूप में दोनों के अलग-अलग भेद है क्योंकि जैन दर्शन अनेकांत सिद्धांत को मानता है और इसी से आत्मा की दृष्टी से जीव का एक भेद होने के बाद भी जीव के काया के हिसाब से दो भेद कहे जाते हैं, जो स्थावर और त्रस के रूप में व्याखित है. अर्थात स्थावर स्वयं हलन-चलन नहीं कर सकते मगर बाहरी आवृति संयोग से हलन-चलन करते है मगर त्रस जीव स्वयं हलन-चलन करते हैं.

स्थावरकाय में पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ऐसे पांच भेद कहे हैं जबकि त्रस में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चउरिंद्रिय और पंचेन्द्रिय ऐसे चार भेद कहे हैं (इन सबकी व्याख्या मैं पिछले वर्ष की जैन श्रृंखला में कर चुका हूं). कोरोना वायरस भी स्थावर (वायुकाय) का जीव है, अतः उत्तराखंड सीएम का बयान एक दृष्टी से ठीक है क्योंकि तीर्थंकरों ने भी कहा है कि हरेक जीव जीना चाहता है, मरना कोई नहीं चाहता है और हरेक जीव अपने जीवन के लिये संघर्ष करता है और इसी संघर्ष से हरेक जीव को हिंसा भी लगती है. (इसी से उन्होंने देशविरति और सर्वविरति रूप मार्ग कथन किया, जिससे कम से कम मनुष्य (जो संज्ञी है और अच्छे बुरे की पहचान कर सकता है) वो हिंसा से विरत हो सके).

जैन दर्शन के हिसाब से सभी त्रस जीव कोशिकीय जीव (कोशिका युक्त) होते हैं मगर स्थावर जीव अकोशिकीय (कोशिका विहीन) जीव होते हैं. भले ही ये स्थवरकाय कोशिकाविहीन होते हैं लेकिन ऐसे सभी वायरस स्वयं का जीवन बाहरी आवृति के संयोग से विकसित करते हैं और संख्याता प्रारूप में अपनी पीढ़ियों के वंश को निरंतर आगे बढ़ाते हैं.

विज्ञान के हिसाब से भी कोरोना वायरस आरएनए वायरस अर्थात अकोशिकीय होता है लेकिन विज्ञान इन्हें निर्जीव (जीवन रहित) मानता है मगर म्यूटेशन के हिसाब से खुद विज्ञान ही अपने सिद्धांत को काटता है और कहता है कि अकोशिकीय अर्थात वायरस स्वयं कुछ भी करने में भले ही सक्षम नहीं होते हैं और ना ही वायरस अन्य वायरस को जन्म दे सकते हैं, परन्तु किसी भी प्रकार की क्रिया के लिये वायरस को अन्य जीवित माध्यम (कोशिका) की आवश्यकता होती है. विज्ञान नूतन पीढ़ी को म्यूटेशन और अगली पीढ़ी के जीव को म्युटेंट कहता है.

स्पष्ट ही है कि विज्ञान की थ्योरी अपूर्ण है और जैन दर्शन की संपूर्ण क्योंकि अकोशिकीय काया भी जीवसहित होती है वर्ना बाहरी आवृति के संयोग से इसका ट्रांसमिशन नहीं होता (अगर ऐसा होता तो कुर्सी मेज जैसे निर्जीव भी बाहरी जीवित आवृति के संयोग से अपनी प्रतिलिपि बना लेते… है न) जो जैन दर्शन के इस सिद्धांत कि स्थावरकाय के जीव जीवनसहित होते है तथा बिना बाहरी आवृति के स्वयं हलनचलन नहीं कर सकते है, को भी अक्षरसः सत्य साबित करता है.

जैन दर्शन तो लाश को भी सूक्ष्म स्थावरकाय जीवों से युक्त मानता है अर्थात मनुष्य देह के मुख्य कर्ता जीव आयुष्य पूर्ण होने के पश्चात जब उसकी आत्मा उस देह से वियोग कर अन्य गति में आगति करती है, उसके पश्चात भी उस देह में संख्याता स्थावरकाय यावत अनंत निगोदिया जीव जीवित रहते हैं. लेकिन मुख्य कर्ता आत्मा के निकलने के पश्चात वो देह पंचेन्द्रिय होने के बाद भी उसकी गिनती त्रस जीवों में नहीं होती अर्थात लाश बनने की स्थिति में वो स्थावरकाय में गिनी जायेगी क्योंकि कोई भी लाश बिना बाहरी आवृति के संयोग के हलन-चलन नहीं कर सकती बल्कि स्थावर के रूप में परिवर्तित होकर बाहरी आवृति के संयोग से हलन-चलन करती है.

विज्ञान चूंकि शोध से पहले थ्योरी बनाता है इसी से विज्ञान वायरस को निर्जीव मानता है, जबकि जैन दर्शन ऐसा कोई प्रयत्न नहीं करता बल्कि जो सत्य है उसे ही अनेकांत और स्याद्वाद से यथावत स्वीकार करता है. इसी से जैन दर्शन में सूक्ष्म विवेचन है और ऐसे स्थावरकाय में भी बादर और सूक्ष्म ऐसे दो उपभेद तथा इन दोनों के भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ऐसे दो-दो प्रभेद भी बतलाता है.

अब यहां ये प्रश्न उठेगा कि अगर जैन दर्शन के इस सिद्धांत को सही माना जाये तो फिर इसका म्यूटेशन अन्य कोशिकीय जीवों में क्यों नहीं होता या सिर्फ इसका संक्रमण मनुष्य में ही क्यों होता है ?

तो इसका जवाब भी जैन दर्शन में है. वैसे भी जैन दर्शन में सवाल उठाना मना नहीं है बल्कि जैन दर्शन तो कहता है कि अनेकांतवाद और स्याद्वाद का स्थापन ही तर्क से होता है. और तर्क वहीं उत्पन्न हो सकता है जहां किसी प्रकार का प्रश्न हो और तर्क द्वारा उस प्रश्न का समाधान हो. इसे कोरोना के संदर्भ में यूं समझे कि – सूक्ष्म अर्थात आरएनए और बादर अर्थात डीएनए, पर्याप्तक अर्थात सफल प्रतिलिपि या म्यूटेशन अथवा अगली पीढ़ी में स्थानांतरण या फिर बाहरी आवृति अर्थात कोशिकाओं से युक्त उस विशेष जीव संयोग द्वारा अपनी पर्याप्तियां पूरी करना.

अर्थात जिस जिस आवृति का संयोग जिस जिस पर्याप्ति को पूर्ण करता है, वह उसी के संयोग से पूर्ण होती है अन्य संयोग से नहीं. जैसे – चाय की पर्याप्ति चायपत्ती है बिना चायपत्ती के चाय बन नहीं सकती इसी तरह कोरोना की पर्याप्ति मानव कोशिकीय प्रोटीन है, बिना उस प्रोटीन के उसकी पर्याप्ति पूर्ण नहीं हो सकती है. लेकिन जैसे चाय बनाने के लिये अन्य बाहरी आवृतियां रूप पानी, दूध और चीनी की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार कोरोना को अपनी प्रतिलिपि बनाने या म्यूटेशन करने के लिये मानव कोशिका की जरूरत पड़ती है और इसीलिये वो मानव शरीर में ट्रांसमिशन करता है ताकि वो उन सब तत्वों को हासिल कर सके जो उसके म्यूटेशन में सहायक हो सके.

अब तो उत्परिवर्तित होते कोरोना विषाणु की पर्याप्तियां भी बदल रही है और अब वो कोशिकीय प्रोटीन के बजाय कोशिका के अंदर की प्रोटीन (डबल म्युटेंट) और उस अंदर की प्रोटीन के एक घटक राइबोसोम (ट्रिपल म्युटेंट) से उसकी पर्याप्तियां पूर्ण होती है. और जिस मानव शरीर में इसकी ये पर्याप्ति पूर्ण होती है उसका जीवनचक्र लगातार वृद्धि प्राप्त करता है अर्थात संक्रमण बढ़ता है. इसी कारण से मृत्यु होने पर भी वो मानव देह में 18-20 घंटे तक जीवित रहता है क्योंकि मानव देह में कोशिकीय आवृतियां ख़त्म होने में 18 से 20 घंटे का समय लगता है, तत्पश्चात उसे ये बाहरी आवृति संयोग मिलना बंद हो जाता है, तो वो अपर्याप्ति को प्राप्त होता है.

अपर्याप्ति अर्थात असफल जीवनचक्र या म्यूटेशन न कर पाना अर्थात मानव देह में मानव के मुख्य जीव की मृत्यु पश्चात 24 घंटे बाद वायरस ख़त्म होना शुरू हो जाता है. और ये बात कोरोना पेशेंट के पोस्टमार्टम में पहले ही स्पष्ट हो ही चुकी है. इससे विज्ञान का ये संदर्भ कि वायरस निर्जीव होता है वो यहां गलत सिद्ध होता है क्योंकि जीवन के बिना ऐसा होना मुमकिन नहीं है. इसलिये ये कोरोना वायरस जीवन सहित है और इसमें डीएनए और आरएनए के साथ प्रतिरूप बनना जीवन होने के लक्षण भी है. लेकिन इसकी आयुष्य बंध अल्पकालिक होता है, मगर जिस-जिस मनुष्य के साथ इसका कर्म बंध संयोग जितना और जैसा है, उस उस मानव को उतने काल तक संक्रमण पश्चात मृत्यु या जीवन प्राप्त होता है.

चूंकि इसकी पर्याप्तियां सिर्फ मानव से पूर्ण होती है, अतः आवलीका में कर्मोदय भी मानवजनित ही होता है, तिर्यंचजनित नहीं अर्थात तिर्यंच के संक्रमण के लिये इसकी कर्म आवलीका में सांयोगिक कर्मोदय नहीं है. अतः इसकी पर्याप्तियां भी तिर्यंच से पूर्ण नहीं होती, जिससे अभी ये तिर्यंच में संक्रमण नहीं फैला सकता. लेकिन जब भी इसका सांयोगिक कर्मोदय तिर्यंच आवलीका वाला होगा तब वो तिर्यंच में भी संक्रमण फैलायेगा. यानी हो सकता है अगले म्यूटेशन में ये विषाणु उन पर्याप्तियों को पूर्ण कर ले और तब इसका संक्रमण तिर्यंच में भी होगा.

जैसे वनस्पति की पर्याप्तियां अत्यंत सूक्ष्म होती है और उसी से वनस्पति वृद्धि को प्राप्त होती है. (इसके उदाहरण में मेरी मशरूम वाली पूर्व आलेख, जो मोदीजी के संदर्भ में लिखी थी उसे पढ़ लेवे) और जैसे वनस्पति में प्रत्येक (एक काया में एक जीव) और साधारण (एक काया में अनेक यावत अनंत जीव जैसे अनन्तकाय इत्यादि) के भेद होते हैं, वैसे ही स्थावर के बाकी चारों जीवों में भी होते हैं और कोरोना वायुकाय में अनन्तकाय वाला जीव है और जैन दर्शन के नियमानुसार एक अन्तर्मुहूर्त में संख्याता यावत अनंत बार जन्म – मरण कर सकता है.

कोरोना महामारी का डर दिमाग पर इतना ज्यादा हावी हो चुका है कि टमाटर के कटे टुकड़े भी अब कोरोना वायरस लगते हैं. आप स्वयं ही देख लीजिये ऐसा लगता है कि मानव की बेबसी पर जैसे कोरोना वायरस हंसता हुआ और ज्यादा डरा रहा हो.

बेबसी इसलिये लिखा क्योंकि लोगों के पास अब महंगे इलाज के लिये पैसे नहीं हैं. जो बची हुई सेविंग्स है उसे वो भोजन इत्यादि के लिये बचाकर रखना चाहता है क्योंकि ज्यादातर लोगों का रोजगार बंद है इसीलिये आवक का कोई स्रोत भी नहीं है. जिनका रोजगार चालू है उसने जबरदस्त लूट मचा रखी है, किसी से भी कोई भी सामान खरीदो तो वह एक ही बात कहता है कोरोना की वजह से पीछे से ही महंगा आ रहा है, हम क्या करे ? अरे भाई मान ली आपकी बात, मगर ये जो पीछे वाली महंगाई के जुमले के आगे तुमने जो अपनी लूट मचायी हुई है उसका क्या ?
उसका कोई जवाब क्यों नहीं देते ? मगर ऐसा बोलने पर सामने वाला हंसकर टाल देता है या भीड़ का बहाना बना देता है.

एक तो ज्यादातर लोगों के कामधंधे बंद हैं, ऊपर से अर्थव्यस्था तो बहुत पहले ही मर चुकी है. अब तो कोरोना काल में उसका शव भी दफनाया जा चुका है, वो भी बिना पोस्टमार्टम करवाये ताकि किसी को ये न पता चल सके कि असल में अर्थव्यवस्था मरने का कारण क्या था.

इस महामारी काल में जहां दवा-चिकित्सा और जरूरी खाने का सामान बिना लाभ बेचा जाना चाहिये वहां अनाप-शनाप लूट चल रही है और आम लोगो के पास इस लूट से बचने का कोई तरीका भी नहीं है. सरकार तो पहले से ही मौतों के आंकड़े छुपाने का और लाशों को गायब करने का व्यापार चला ही रही है तो सरकार से कोई उम्मीद रखना ही बेकार है. अब बेचारा आम आदमी करे तो क्या करे, कहां जाये ? किससे अपनी विपदा कहे ?

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