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शिक्षा, चिकित्सा, निजीकरण का समीकरण

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[एक मित्र का विचारपरक प्रतिसंवेदन]

        ~ पुष्पा गुप्ता 

   _दोनों ही नोबल प्रोफेशन कहे जाते थे और थे भी : डॉक्साब और मास्साब. ये हमारी स्मृतियों में जीवित हैं, अंकित हैं !_

     हम डॉक्साब हैं और मेरी माँ मास्साब. मेरी पत्नी डॉक्साब हैं और मेरी सास मास्साब थीं. बड़ा सहज, सम्मानीय जीवन था, बड़ी इज्ज़त थी समाज में. शायद समाजवादी मूल्यों के चलते.

    शायद ये मूलभूत आवश्यकताएं समझी गयीं समाज / देश निर्माण के लिये और होनी भी चाहिये. पर हम गरीब थे , समाजवादी मॉडल बनाने को हमने मजबूरी माना और देखते देखते देश तरक्की की राह पर चल निकला.

   हमने आर्थिक सुधार लागू किये , अन्य क्षेत्रों के अतिरिक्त “शिक्षा और चिकित्सा” में  भी. व्यवसाय/धनोपार्जन को ज्ञान के उपर तजरीह मिली और धीरे धीरे सामाजिक मूल्य / प्रतिष्ठा के पायदान बदल गये !

   एक नया पाठ्यक्रम आया  ” MBA” : मास्टर्स इन बिज़नेस एडमिनिस्ट्रेशन. मुझे याद है जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक की पढ़ाई कर रहा था और उस छात्रावास में रहता था जहाँ से बहुत लोग IAS बनते थे और मुझसे लोग कहते थे , ” इतना पढ़ोगे तो कलक्टर बन जाओगे ! “

     मैं डॉक्टर बनना चाहता था और कुछ लोग IIM अहमदाबाद की तैय्यारी में जुटे थे.  पर एक बात तो थी , सारी चीज़ें सामाजिक सम्मान से जुड़ी थीं, धन की महत्ता कम थी.

   समय बदला और आर्थिक सुधार हुये , मूल्य बदले , सामाजिक सरोकारों की जगह धनोपार्जन ने ले ली. चिकित्सा और शिक्षा का भी निजीकरण हुआ !

सरकारों की प्राथमिकता भी ज्ञान और सेवा भाव की जगह आर्थिक लाभ कमाने की हो गयी !

    शिक्षा के क्षेत्र में निजी विश्वविद्यालय , मेडिकल कॉलेज , इंजीनियरिंग कॉलेज और कोचिंग उग आये , और चिकित्सा के क्षेत्र में , नर्सिंग होम और कॉरपोरेट अस्पताल.

     पूरा मूड ही इन्वेस्टमेंट और रिटर्न आधारित हो गया और इसमें सबसे लाभदायक स्थिति में पहुँचा MBA, जिसका ज्ञान और सेवा से कोई लेना देना नहीं था. पर व्यवसाय की समझ थी उसे  और वो हाथों हाथ लिया गया. इसीलिए मैं उसे “Mediocre but Arrogant” कहता हूँ.

ठीक है , मुझे कोई ख़ास शिकायत भी नहीं है. बस दिक्कत यही है कि , जब डॉक्टर या शिक्षक रुपया माँगता है तो उसकी निंदा क्यों ?  क्या वो इसी समाज का हिस्सा नहीं , उससे इस आर्थिक युग में सेवा भाव की दरकार क्यों?

     जब सफलता / योग्यता / श्रेष्ठता का पैमाना , सैलरी पेकेज या गाँठ का रुपया हो , तो उसके साथ ये सौतेला व्यवहार क्यों , क्यों उसे सूली पर चढ़ाया जाय?

    वो भी इसी समाज का हिस्सा है , इसी में पढ़ा है ( शिक्षा के अवमूल्यन में ), इसी में उसके जीवन मूल्य बने हैं. उसे भी सम्मान की नहीं , सेवा की नहीं , रुपये कमाने की आकांक्षा है.

   

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