एल.एस. हरदेनिया
मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ समेत) का गठन 1 नवम्बर, 1956 को हुआ था। राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक विशेष आयोग बनाया गया था जिसका नाम राज्य पुनर्गठन आयोग (एसआरसी) था। 1956 के पूर्व जो राज्य अस्तिव में थे वे अत्यधिक हाच-पाच थे। इन राज्यों के गठन का कोई तार्किक आधार नही था। उस समय अनेक हिन्दी क्षेत्रों को छोड़ दें तो अनेक राज्य बहुभाषी थे। 1956 के पूर्व वर्तमान मध्यप्रदेश का एक बड़ा हिस्सा द्विभाषी प्रदेश का हिस्सा था। इस द्विभाषी प्रदेश को सेंट्रल प्राविन्स एंड बरार कहा जाता था। बरार सेंट्रल प्राविन्स का मराठी भाषी हिस्सा था। नागपुर उसकी राजधानी थी जो मुख्य रूप से मराठी भाषी शहर था। एसआरसी ने भाषा को राज्यों के पुनर्गठन का मुख्य आधार बनाया। इस आधार पर देश के समस्त राज्यों को भाषा के आधार पर पुनर्गठित किया गया। परंतु कुछ राज्यों का भाषा के आधार पर गठन नहीं हुआ। इनमें मुख्य रूप से मराठी, गुजराती और पंजाबी भाषी इलाके शामिल थे। मराठी-गुजराती भाषी क्षेत्र को उसी रूप में रखा गया। जब इस संबंध में नेहरूजी से हस्तक्षेप की मांग की गई तो उन्होंने मजाक में कहा कि इस मामले में मेरी एक व्यक्तिगत मजबूरी है। मेरी एक बहन (विजयलक्ष्मी) महाराष्ट्र में ब्याही है और और दूसरी (कृष्णा) गुजरात में। मुझे इन दोनों बहनों को अलग करना कठिन लगता है। इसी तरह पंजाब, हिन्दी-पंजाबी भाषाओं का मिश्रित राज्य बना रहा। मराठी और गुजराती के आधार पर पृथक राज्यों के गठन के लिए तीव्र आंदोलन हुए। मराठी भाषी क्षेत्र में यह आंदोलन कुछ ज्यादा ही तीव्र था। कुछ समय बाद पंजाब से पृथक होकर हरियाणा राज्य की मांग को लेकर आंदोलन हुआ। उस दौरान यह अजीब बात सामने आई कि हरियाणा की मांग गुरुमुखी लिपि में लिखकर भी की जा रही थी। भाषा के आधार पर मध्य प्रदेश के गठन की सिफारिश की गई। इसमें महाकौशल, छत्तीसगढ़, ग्वालियर, इंदौर, रीवा एवं भोपाल आदि क्षेत्रों को शामिल किया गया। ग्वालियर इंदौर, रीवा और भोपाल मुख्य रूप से राजशाही क्षेत्र थे। इस तरह नया मध्यप्रदेश पूरी तरह से हिन्दी भाषी राज्य बना।
भोपाल को छोड़कर सभी पुरानी इकाईयां मध्यप्रदेश में राजी-खुशी शामिल हो गईं। परंतु भोपाल के नवाब ने असहमति दिखाई। न सिर्फ मध्यप्रदेश का हिस्सा बनने के लिए वरन् स्वतंत्र भारत में शामिल होने से भी इंकार किया। इसलिए भोपाल 15 अगस्त, 1947 के बाद भी भारतीय संघ में विलीन नहीं हुआ। भोपाल नवाब के इस निर्णय का भोपाल क्षेत्र की जनता ने तीव्र विरोध किया। लंबे समय तक चले आंदोलन के कारण और प्रधानमंत्री नेहरू व उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल के पूरे समर्थन के चलते अंततः 1 जून, 1949 को भोपाल भी भारत में शामिल हो गया।
एसआरसी ने मध्यप्रदेश के गठन की सिफारिश करते हुए नवगठित राज्य में आवागमन के साधनों के अभाव पर चिंता व्यक्त की थी। मध्यप्रदेश का एक बड़ा हिस्सा आवगमन के लिए सड़कों पर ही निर्भर है। इस हिस्से में अब तक रेल पटरियों का जाल नहीं बिछ पाया है।
मध्यप्रदेश के गठन की घोषणा होते ही अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो गईं। सबसे प्रमुख समस्या थी कि नए मध्यप्रदेश की राजधानी किस शहर को बनाया जाए। आयोग ने जबलपुर की सिफारिश की थी। परंतु अनेक कारणों के चलते जबलपुर को राजधानी बनाना मुश्किल था। उनमें सबसे बड़ा कारण जबलपुर में अनेक डिफेंस संबंधी कारखानों का होना था। दूसरा कारण था मध्य प्रदेश के अनेक शहरों जैसे ग्वालियर, इंदौर और जबलपुर में उपयुक्त भवनों का अभाव। उन शहरों में खाली जमीन भी यथेष्ट मात्रा में उपलब्ध नहीं थी।
नए मध्यप्रदेश के गठन के पूर्व आजाद भारत के पहले आमचुनाव संपन्न हो चुके थे। चुनाव में सेन्ट्रल प्राविन्स, ग्वालियर-इंदौर की मिलीजुली, रीवा और भोपाल की विधानसभाओं के चुनाव हुए और इन राज्यों में मंत्रीपरिषदों का गठन हुआ। सबसे छोटी विधानसभा- मात्र तीस सदस्यीय-भोपाल में गठित हुई। मंत्रिपरिषद भी उतनी ही छोटी थी। डॉ. शंकरदयाल शर्मा मुख्यमंत्री बने। वे पूरे देश में सबसे ज्यादा शिक्षित और सबसे युवा मुख्यमंत्री थे। उस समय उनकी आयु मात्र 34 वर्ष थी। उससे थोड़ी बड़ी विधानसभा रीवा की बनी। भोपाल में राज्यपाल की नियुक्ति नहीं की गई परंतु रीवा के राज्यपाल को लेफ्टिनेंट गवर्नर कहा गया।
इस बीच देश में राज्यों के पुनर्गठन की मांग उठने लगी। और अंततः राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ आयोग ने बड़े पैमाने पर परामर्श कर अपनी रिपोर्ट दी और आखिरकार अनेक इकाईयों को मिलाकर मध्यप्रदेश राज्य का गठन हुआ।
राज्य की घोषणा के बाद यह महत्वपूर्ण मुद्दा उठा की इसकी राजधानी कहां बने। इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर और भोपाल के नेताओं ने दिल्ली की भाग-दौड़ प्रारंभ कर दी। सभी लोग नेहरूजी से मिलने का प्रयास करते रहते थे। उस दौरान भोपाल के विधायक शाकिर अली खान थे। वे बताते थे कि जब वे एक प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिले तो उन्होंने पूछा कि बताईए भोपाल को क्यों राजधानी बनाया जाए। इसपर प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने कहा कि हमारे क्षेत्र को शासन के संचालन का अपार अनुभव है। नेहरूजी ने पूछा कैसे – जवाब था हमारे क्षेत्र पर राजा भोज का शासन था। इस पर नेहरूजी ने पूछा- गंगू तेली के राज्य की राजधानी कहां थी। उसे भी राजधानी बनाने का सोचा जाना चाहिए। उस समय के लोग बताते थे कि डॉ. शंकरदयाल शर्मा की लाबिंग बहुत जोरदार थी।
विलय होने वाली इकाईयों के मुख्यमंत्रियों में सबसे शक्तिशाली रविशंकर शुक्ल थे। उन्हें डॉ. शर्मा ने पटा लिया। इफरात में भूमि की उपलब्धता के अलावा दो और बातें भोपाल के पक्ष में गईं। वे थीं विधानसभा और राज्यपाल के निवास के लिए उपयुक्त भवनों की उपलब्धता। जिस भवन को मिन्टो हॉल कहा जाता था उसका निर्माण भोपाल के नवाब ने लार्ड मिन्टो के सम्मान में करवाया था। ब्रिटिश राज में प्रत्येक बड़े राजे-रजवाड़े में ब्रिटिश राज के प्रतिनिधि के रूप में पोलिटिकल एजेंट रहता था। भोपाल में भी एक पोलिटिकल एजेंट था। भोपाल में पोलिटिकल एजेंट का निवास राजभवन के लिए उपयुक्त समझा गया। फिर भोपाल में नवाब के समय के कार्यालय एवं निवास हेतु अनेक भवन उपलब्ध थे। इसके अतिरिक्त भोपाल भौगोलिक दृष्टि से मध्यप्रदेश के बीचों-बीच स्थित था। इन सभी कारणों से अंततः भोपाल को मध्यप्रदेश की राजधानी के लिए चुन लिया गया।
राजधानी के चयन के अतिरिक्त मध्यप्रदेश के गठन से और भी कई चुनौतियां उत्पन्न हुईं। उनमें सबसे गंभीर थी जिसे उस समय भावनात्मक एकीकरण की समस्या कहा जाता था। भावनात्मक एकीकरण से आशय था विलीन होने वाली इकाईयों के बीच राजधानी के बाद अन्य संस्थानों एवं कार्यालयों को अपने यहां स्थापित करने की प्रतियोगिता, प्रशासन के महत्वपूर्ण पदों को पाने की दौड़ में आगे रहने की कोशिश और मंत्रिपरिषद में महत्वपूर्ण विभागों को हासिल करने के लिए सत्ताधारी दल के नेताओें के प्रभाव का उपयोग करना।
मजबूरी और कह सकते हैं कि तुष्टिकरण की नीति के चलते सरकारी कार्यालयों को अलग-अलग शहरों में स्थापित करने के निर्णय लिए गए। किंतु इससे प्रदेश के बुनियादी हितों पर दुष्प्रभाव पड़ा। सबसे मुख्य निर्णय का संबंध हाईकोर्ट से था। मध्यप्रदेष देश के कुछ ही ऐसे राज्यों में से है जिनकी राजधानी में हाईकोर्ट स्थित नहीं है। इन राज्यों में मध्यप्रदेश के अतिरिक्त केरल और छत्तीसगढ़ शामिल हैं। उत्तर-पूर्व में सात राज्यों का निर्माण हुआ जिन्हें सेविन सिस्टर्स कहा जाता है। इन राज्यों का हाईकोर्ट असम में था। परंतु इन सभी राज्यों में हाईकोर्ट की बेन्चें बना दी गईं। प्रारंभ में वे असम की राजधानी गुवाहाटी में स्थित हाईकोर्ट की सीट के मातहत थीं। असम के मुख्य न्यायाधीश को इन राज्यों में स्थित बेंचों की देखरेख करनी पड़ती थी। इसके लिए उन्हें हेलीकाप्टर दिया गया।
जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है, राज्य के हाईकोर्ट की सीट जबलपुर में स्थित है। इसके अतिरिक्त उसकी दो बेन्चें ग्वालियर व इंदौर में हैं। परंतु राजधानी में न तो सीट और ना ही बेंच। इससे नागरिकों को काफी असुविधा होती है। जैसे यदि किसी व्यक्ति को किसी ऐसे जघन्य अपराध में गिरफ्तार किया गया है जिसके चलते उसे हाईकोर्ट से ही जमानत मिल सकती है और उसकी गिरफ्तारी गुरूवार को हुई है तो उसे सोमवार तक इंतजार करना पड़ेगा क्योंकि जिस जगह उसकी गिरफ्तारी हुई है वह जबलपुर के क्षेत्र में आता है व उसे लगभग चार दिन तक यंत्रणा भुगतनी पड़ेगी।
फिर बड़ी संख्या में मामलों का संबंध शासन से होता है। ऐसे मामलों में शासन के प्रतिनिधियों को जबलपुर जाना पड़ता है। ऐसे मामलों की संख्या हजारों में होती है। इस तरह सैकड़ों की संख्या में अधिकारियों को जबलपुर जाना पड़ता है। अनेक मामलों में हाईकोर्ट मुख्य सचिव या अन्य उच्चाधिकारियों को व्यक्तिगत रूप से हाजिर होने का आदेश देते हैं। ऐसी स्थिति में इन अधिकारियों का मूल्यवान समय जबलपुर जाने-आने में बर्बाद होता है।
इसके अतिरिक्त महाधिवक्ता कार्यालय भी जबलपुर में स्थित है। महाधिवक्ता राज्य शासन का सबसे महत्वपूर्ण विधि सलाहकार होता है। जब भी कोई ऐसा उलझनपूर्ण मामला होता है जिसमें राज्य सरकार को महाधिवक्ता के परामर्श की आवश्यकता होती है, तो उन्हें भोपाल आना पड़ता है। संविधान के अनुसार महाधिवक्ता विधानसभा में उपस्थित होकर सरकार का कानूनी पक्ष रख सकता है। इस तरह वह अप्रत्यक्ष रूप से विधानसभा का सदस्य भी होता है। अपनी इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए भी उन्हें भोपाल आना पड़ता है। यदि हाईकोर्ट की सीट राजधानी भोपाल में होती तो अधिकारियों के आने-जाने का व्यय, उनके भोपाल से बाहर रहने के कारण प्रशासनिक कार्यों में उत्पन्न होने वाला व्यवधान आदि नहीं होते।
कुछ अन्य राज्यों में आज भी ऐसी स्थिति है कि उस राज्य की राजधानी में हाईकोर्ट की सीट नहीं है परंतु ऐसी स्थिति में राजधानी में हाईकोर्ट की बेन्च है। ऐसे राज्यों में उत्तरप्रदेश भी है। उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट की सीट इलाहबाद में है परंतु उसकी एक बेन्च उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कई कारणों के चलते हाईकोर्ट की सीट जबलपुर को देनी पड़ी। इसका सबसे बड़ा कारण था भोपाल में हाईकोर्ट के लिए उपयुक्त भवन उपलब्ध न होना। जबकि जबलपुर में ऐसा भवन उपलब्ध था। दूसरा कारण था, महाकौशल के लोगों की नाराजगी दूर करना। नाराजगी इस वजह से थी कि मध्यप्रदेश में विलय होने वाली इकाईयों का सबसे बड़ा शहर होने के बावजूद जबलपुर को राजधानी नहीं बनाया गया था। आजादी के आंदोलन के दौरान जबलपुर राजनीतिक गतिविधियों का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र था। मध्यप्रदेश बनने के बाद उसका महत्व पूरी तरह समाप्त हो गया। इससे जबलपुर के नागरिक काफी आक्रोशित थे। हाईकोर्ट देने से इस नाराजगी में कुछ कमी आएगी यह सोचकर जबलपुर को हाईकोर्ट की सीट बनाया गया।
जबलपुर के राजधानी न बनने से वहां के संपन्न लोग आम लोगों से भी ज्यादा नाराज थे। राजधानी बनने की संभावना के चलते जबलपुर के अनेक धनी लोगों ने आसपास के किसानों की जमीनें अच्छी-खासी मात्रा में खरीद लीं थीं। उन्हें इस बात का भरोसा था कि अंततः जबलपुर ही नए मध्यप्रदेश की राजधानी बनेगी।
जबलपुर को प्रसन्न करने के लिए उसे मध्यप्रदेश विद्युत मंडल का मुख्यालय भी बनाया गया। किंतु इस निर्णय से प्रदेश के विकास में कोई बाधा उत्पन्न नहीं हुई। इसके विपरीत उससे लाभ ही हुआ। लाभ इसलिए हुआ, क्योंकि विद्युत मंडल के अध्यक्ष को पूरी तरह स्वतंत्र होकर बिजली के उत्पादन संबंधी निर्णय लेने का अवसर मिला। नतीजा यह हुआ कि मध्यप्रदेश में यथेष्ट मात्रा में बिजली का उत्पादन होने लगा। विद्युत मंडल के अनेक अध्यक्षों में से एक थे टाटाराव। उन्होंने इतनी दक्षता से मंडल का संचालन किया कि उनकी ख्याति पूरे देश में फैल गई और मध्यप्रदेश से सेवानिवृत्ति के बाद कई अन्य राज्यों ने उनके अनुभव का लाभ लिया।
हाईकोर्ट और विद्युत मंडल के अतिरिक्त अन्य विभागों के मुख्यालय प्रदेश के अन्य शहरों में बनाए गए। इनमें इंदौर, ग्वालियर, रीवा और रायपुर शामिल थे। इन विभागों को अन्य शहरों में स्थापित करने के पीछे भी लगभग वे ही कारण थे जो जबलपुर में हाईकोर्ट की सीट स्थापित करने के थे। मध्यप्रदेश के गठन के पूर्व इन शहरों का अपना महत्व था। रीवा विंध्यप्रदेश की राजधानी था। उसकी अपनी पृथक विधानसभा, मंत्रिपरिषद और कार्यपालिका थी। विंध्यप्रदेश को ‘सी’ स्टेट का दर्जा प्राप्त था, और जैसा कि पहले जिक्र किया गया है, वहां के राज्यपाल को लेफ्टिनेंट गर्वनर कहा जाता था। जहां तक इंदौर और ग्वालियर का सवाल है, दोनों राज्यों की मिलीजुली विधानसभा और मंत्रिपरिषद थी। तदानुसार कभी इंदौर और कभी ग्वालियर क्षेत्र से मुख्यमंत्री बनाए जाते थे।
मध्यप्रदेश बनने के बाद इन दोनों शहरों का महत्व भी कम हो गया। इसलिए इन दोनों शहरों में अनेक महत्वपूर्ण विभागों के मुख्यालय बनाए गए। परंतु संयोग यह हुआ कि इन दोनों शहरों में ऐसे विभागों, परिषदों और मंडलों के मुख्यालय बनाए गए जो मध्यप्रदेश सरकार की आय के प्रमुख स्त्रोत थे। जैसे ग्वालियर को लें। ग्वालियर में राजस्व मंडल अर्थात रेवेन्यू बोर्ड, आयुक्त भू अभिलेख एवं बंदोबस्त, परिवहन आयुक्त, राज्य अपीलीय अधिकरण व आबकारी आयुक्त के कार्यालय स्थापित किए गए। परिवहन आयुक्त एवं आबकारी आयुक्त के कार्यालय राज्य सरकार की आय के प्रमुख स्त्रोत हैं परंतु इन दोनों कार्यालयों के मुखियाओं का काफी समय भोपाल में बीतता है। कभी-कभी इन दोनों अधिकारियों का निवास भोपाल और ग्वालियर दोनों शहरों में रहता है। इससे राज्य शासन और ग्वालियर स्थित अधिकारियों के बीच समन्वय में कठिनाई होती है और इन दोनों संस्थाओं की आय और बढ़ाने में बाधा उत्पन्न होती है।
इसी प्रकार इंदौर में भी ऐसे कई कार्यालय हैं जो सरकार की आमदनी के बड़े स्त्रोत हैं। इंदौर में मध्यप्रदेश वाणिज्यिक कर अपील बोर्ड, आयुक्त वाणिज्यिक कर, श्रम आयुक्त, संचालक कर्मचारी राज्य बीमा सेवाएं, औद्योगिक स्वास्थ्य सेवाएं, मध्यप्रदेश वित्त निगम, शिकायत निवारण प्राधिकरण (सरदार सरोवर परियोजना), औद्योगिक न्यायालय, मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग आदि कार्यालय हैं। इनके अतिरिक्त इंदौर और ग्वालियर में हाईकोर्ट की बेन्चें भी स्थापित हैं। परिवहन आयुक्त, आबकारी आयुक्त एवं आयुक्त वाणिज्यिक कर प्रदेश सरकार की आमदनी के मुख्य स्त्रोत हैं। ऊपर बताए गए कारणों से मध्यप्रदेश के गठन के समय इन कार्यालयों की ग्वालियर एवं इंदौर में स्थापना मजबूरी थी परंतु इतने वर्षों के बाद अब इस बात पर विचार होना चाहिए कि क्यों न इनमें से कुछ कार्यालयों को भोपाल में शिफ्ट कर दिया जाए।
सन् 2000 में छत्तीसगढ़ के मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद उस क्षेत्र के बड़े कारखानों जैसे भिलाई इस्पात संयत्र, एनटीपीसी के बिजली घरों आदि से प्राप्त होने वाले कर व लौह अयस्क, कोयले व अन्य खनिजों की खदानों की रायल्टी से मध्यप्रदेश वंचित हो गया। आमदनी में आई इस कमी की भरपाई करने के लिए नए उपाय करने होंगें। छत्तीसगढ़ के कारण मध्यप्रदेश वित्तीय दृष्टि से काफी संपन्न था। भिलाई स्टील प्लांट देश में सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित होने वाला पहला स्टील प्लांट था। यह सोवियत संघ की वित्तीय एवं तकनीकी सहायता से स्थापित हुआ था। इस प्लांट का महत्व इसी बात से आंका जा सकता है कि इसका निरीक्षण करने के लिए सोवियत नेता निकिता खु्रष्चेव और बुलगानिन स्वयं आए थे। दुर्ग के पास यह स्टील प्लांट इसलिए स्थापित किया गया क्योंकि छत्तीसगढ़ में लौह अयस्क का अपार भंडार था।
छत्तीसगढ़ में लौह अयस्क का इतना भंडार है कि वहां कई और स्टील प्लांट स्थापित किए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त बस्तर में बेलाडीला कारपोरेशन की स्थापना की गई जो लौह अयस्क और कोयले की खदानों की देखरेख करती थी। बिलासपुर के पास एल्यूमिनियम का बड़ा कारखाना था। सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित इन कारखानों को जो लाभ होता था उसका एक बड़ा हिस्सा मध्यप्रदेश को मिलता था।
कृषि के क्षेत्र में भी छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण स्थान था। छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में इतना चावल उत्पादित होता था कि प्रदेश में खपत के बाद उसका निर्यात भी होता था। इन सब साधनों की उपलब्धता के कारण मध्यप्रदेश की आर्थिक स्थिति काफी सुखद थी। छत्तीसगढ़ के पृथक होने के बाद मध्यप्रदेश की वित्तीय स्थिति में काफी अंतर आया है।
एसआरसी ने मध्यप्रदेश के गठन की सिफारिश करते हुए नवगठित राज्य में आवागमन के साधनों के अभाव पर चिंता व्यक्त की थी। मध्यप्रदेश का एक बड़ा हिस्सा आवगमन के लिए सड़कों पर ही निर्भर है। इस हिस्से में अब तक रेल पटरियों का जाल नहीं बिछ पाया है। दशकों तक विंध्यप्रदेश का एक बड़ा हिस्सा, जिसमें रीवा भी शामिल था, रेल से नहीं जुड़ा था। इसी तरह राजधानी भोपाल से छत्तीसगढ़ जाने के लिए मात्र एक-दो ट्रेनें ही उपलब्ध थीं। मध्यप्रदेश बनने के कई वर्षों बाद तक छत्तीसगढ़ जाने के लिए भोपाल से नागपुर जाकर दुर्ग, रायपुर, बिलासपुर आदि के लिए ट्रेन बदलनी पड़ती थी।
आज भी वर्तमान मध्यप्रदेश के बहुत से हिस्से रेल संपर्क से वंचित हैं। मध्यप्रदेश के आर्थिक विकास के लिए रेल की पहुंच बढ़ाना बहुत जरूरी है।
वरिष्ठ पत्रकार एलएस हरदेनिया भोपाल में रहते हैं।