केशव कृपाल महाराज
आज जिन्ना की मौत के 73 साल बाद भी उनका भूत कुछ लोगों के खोखले दिमाग में चारपाई बिछाकर बैठ गया है। उछलकूद के लिए कुछ मुद्दे तो चाहिये ही। पहले तो यह समझें कि जिन्ना शब्द ही किसी इस्लामिक धर्मशास्त्र का अंग नहीं है। यह भारतीय गुजराती अल्फाज है।
मुहम्मद अली जिन्ना के पिताजी का नाम जिना भाई और माता का नाम मीठी बाई था। जिन्ना ने धर्मांतरण के बाद भी अपनी गुजराती पहचान को गँवाना उचित नहीं समझा और वे तथा उनके सभी छह भाई पिता के जिन्ना नाम का अपने सरनेम की तरह गर्व से प्रयोग करते रहे। जिन्ना के विवाह भी हिन्दू परिवारों में हुए जिनके मौलिक नामों को उन्होंने कभी मिटाया नहीं।
अब कुछ सवालों को रखना जिन्ना के नाम से उत्पन्न हो रहे हृदयघात को रोकने के लिए निहायत जरूरी है।
जिन्ना अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले शीर्ष नायक थे या नहीं?
जिन्ना ने स्वाधीनता संग्राम में कभी अंग्रेजों की मुखबिरी या दलाली किया क्या?
इनका द्विराष्ट्र सिद्धांत हिन्दूमहासभा और सावरकर के द्विराष्ट्रवाद से मेल खाता था या नहीं?
इंडियन गवर्नमेंट एक्ट के बाद जिन्ना की मुस्लिम लीग नीत प्रांतीय सरकारों में डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी मंत्री रहे या नहीं?
धीर-गंभीर नेतृत्व के प्रतीक स्वर्गीय अटलबिहारी वाजपेयी, श्री लालकृष्ण आडवाणी और स्वर्गीय जसवंत सिंह जिन्ना के मुरीद रहे या नहीं?
पाकिस्तान जाकर अटल और आडवाणी ने जिन्ना को श्रद्धांजलि दी थी या नहीं?
क्या किसी दक्षिणपंथी संगठन या उसके नेता या वर्तमान सत्ता स्वामियों के पूर्वज विभाजन के समय जिन्ना के विरोध में खड़े हुए? जितना कि अब किसी एक के मुँह से जिन्ना का नाम निकलते ही जिन्ना की रूह पर गोलियां दाग रहे हैं?
और सब से बड़ी बात!
इन्कलाब ज़िन्दाबाद का नारा देने वाले शहीदे आजम वीर भगत सिंह जिनके नाम से भारत की आजादी पहचानी जाती है। जिनकी याद करके युवाओं की देह में तत्क्षण सिहरन उठने लगती है और जंगे आज़ादी में शून्य भूमिका वाले लोग भी जिन भगत सिंह को अपना सगोत्रीय मान बैठे हैं, उन भगत सिंह के मुकद्दमें में जिन्ना केवल वकील ही नहीं थे, अन्य समकालीन नेताओं से कई कदम आगे बढ़कर मजबूती के साथ उनके बचाव में खड़े थे। जिन्ना को ताउम्र आदर देने के लिए उनकी जीवनी का यही हिस्सा इतिहास को मजबूर का देता है।
देश का विभाजन एक ऐतिहासिक नियति का नतीजा रहा। इसीपर सौ बरस तक केंद्रित रहने से किसी उज्ज्वल भविष्य का निर्माण संभव नहीं है। क्या होता तो विभाजन न होता, क्या होता तो अंग्रेज हमें गुलाम न बनाते, क्या होता तो बाबर रास्ते से वापस लौट गया होता और क्या होता तो क्या न हुआ होता जैसी बातें केवल मन बहलाने की चीज हैं।
इनकी जगह अब क्या हो कि हमारी आजादी सुरक्षित रहे, देश टूटने न पाए और हमारी पीढियां खुशहाल बन सकें, चिंतन का विन्दु यह होना चाहिये। साम्प्रदायिक सोच और अतिवाद का मुकाबला भी अवश्य करना चाहिए चाहे वह किसी ओर क्यों न हो। लेकिन दुर्भाग्यवश पार्टीतंत्र ने हमें एक ऐसी खूबसूरत नजरों का तोहफा दिया है जिसमें औरों की अच्छाई और अपनी बुराई दिखाई ही नहीं देती। ऐसा नहीं कि विरोधी सुंदर दिखता ही नहीं। दिखता है, लेकिन तब, जब वह पाला बदल कर अपनी पाठशाला में दाखिल हो जाता है।
दरअसल ये ‘जिन्ना-जिन्ना’ ‘गन्ना-गन्ना’, ‘जिन्ना-गन्ना’ ‘गन्ना-जिन्ना’ शब्द को तबले की थाप की तरह टेरना, गिरते हुए राजनीतिक स्तर, राजनीति में नैतिकता की किल्लत और भाषण-सामग्री में मुद्दों के अकाल का स्पष्ट परिचायक है। यह वात-रोग जनित प्रलाप है।
क्या हम इस बात के लिए खुश नहीं हो सकते कि भारत के राष्ट्रपिता की ही तरह पकिस्तान का राष्ट्रपिता भी एक गुजराती हिन्दू का बेटा था। किसी नादिर, चंगेज या बाबर की औलाद नहीं।
मेरे विचार से सुधीजनों को जिन्ना की वापसी पर नहीं, राजनीतिक सदाचार की वापसी पर दिमाग खर्च करने की जरूरत है।
केशव कृपाल महाराज