~ डॉ. विकास मानव
धर्म को सूक्ष्म या स्थूल रूप से हम सभी समझते हैं। मुख्य रूप से, वैयक्तिक जीवन में यम और नियम गिनाए जा सकते हैं, और सामाजिक जीवन में वर्णों व आश्रमों के मनु-स्मृति, आदि, में वर्णित धर्म गिनाए जा सकते हैं।
जब मनुष्य पर आपदा पड़ती है, तो ये धर्म हम निभाने में असफल हो जाते हैं। अच्छा तो यही है कि हम ये धर्म जैसे उपदिष्ट हैं, वैसे ही उस समय भी निभाएं, परन्तु जब यह सर्वथा असम्भव या बहुत अधिक कष्टप्रद हो जाए, तो उस समय हमें ’आपद्धर्म’ का निर्वाह करना चाहिए।
इसकी पूर्ण व्याख्या कहीं नहीं है, और न हो सकती है, लेकिन इसके कुछ अंश व उदाहरण कहीं-कहीं मिलते हैं, जिनसे हम अन्य विषयों में भी अपना कर्तव्य जान सकते हैं। इनमें से कुछ मैं इस लेख में दे रहा हूं।
छान्दोग्योपनिषद् (१।१०।१-५) में एक कथानक है जिसमें कुरु देश में एक बार ओलों के कारण सब फसल, आदि, नष्ट हो गई। ऐसी कठिन स्थिति में, उषस्ति चाक्रायण नाम के ऋषि अति निर्धन हो गए, और हाथीवानों की बस्ती में अपनी पत्नी के साथ रहने लगे। एक दिन उनको भूख ने उतावला कर दिया। उन्होंने एक हाथीवान् को कुछ खाते हुए देखा, तो उससे उस भोजन की भीख मांगी।
हाथीवान् बोला, “जो मैं उड़द खा रहा हूं, उसके सिवा मेरे पास आपको देने को कुछ नहीं है।”
ऋषि ने उससे अपनी झूठी उड़द को ही दे देने को कहा। हाथीवान् ने, ऋषि की विकट-स्थिति को समझकर, उनको झूठे उड़द दे दिए, और अपना झूठा पानी भी देना चाहा।
ऋषि ने कहा, “पानी तो तेरा झूठा है। इसलिए मैं उसको नहीं लूंगा।”
हाथीवान् को कौतूहल हुआ. उसने पूछा, “क्या ये उड़द झूठे नहीं हैं?”
ऋषि बोले, “तेरे उड़द नहीं खाऊंगा, तो भूखों मर जाऊंगा। पीने के लिए पानी तो मेरे पास बहुत है।”
उन्होंने व उनकी पत्नी ने वे झूठे उड़द खाकर अपने प्राणों की रक्षा की।
नोच्छिष्टं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याच्चैव तथान्तरा (मनु० २।५६).
ब्रह्मचारी किसी को अपना झूठा खाने को न दे, और न ही स्वयं किसी का झूठा भोजन खाए। ब्रह्मचारी के लिए यह आज्ञा, वस्तुतः, सभी के लिए है।
यह इसलिए है कि सबका स्वभाव व प्रकृति अलग होती है। दूसरे की जूठन खाने से हमारा शरीर दूषित होता है।
झूठा खाना अधर्म बताया गया है। तो फिर धर्म जानने वाले उषस्ति ने झूठा क्यों खाया? इस भद्दी कथा का वर्णन उपनिषद् में क्यों किया गया?
यह कथा आपद्धर्म समझाने के लिए ही उपनिषत्कार ने हमारे कल्याण के लिए लिखी है। जब कोई बड़ा संकट हमारे सिर पर हो, तो अपनी या दूसरों की प्राण-रक्षा के लिए धर्म से हटना ठीक है : जितना आवश्यक हो, उतना।
इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि इस अपकर्म का हमें पाप-फल नहीं भोगना पड़ेगा; परन्तु उस कर्म को न करने का फल अधिक भयंकर होगा।
जब दो बुरे विकल्प हमारे सामने हों, तो हमें उनमें से कम बुरा चुनना पड़ता है। जो लकीर का फकीर बनके धर्म का पालन करते हैं, वे मूर्ख की श्रेणी में ही आते हैं !
संसार के अधिकतर सभी न्याय-संविधान में हम पाते हैं कि यदि कोई अपने प्राण बचाने के लिए किसी की हत्या करता है, तो उसको दण्ड नहीं, या बहुत कम, दिया जाता है। परमात्मा की व्यवस्था भी कुछ ऐसी ही है।
ग्रंथो में अन्य भी आपद्धर्म दिए गए हैं. जैसे, नियोग की प्रथा। नियोग तभी किया जाता है जब, किन्हीं कारणों से, विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न नहीं होती। सन्तानोत्पत्ति विवाह का प्रधान उद्देश्य माने जाने से, उस लक्ष्य की पूर्ति सर्वोपरि मानी गई है। इसलिए राजा दसरथ की अक्षमता के कारण उनकी रानियों श्रृंगी ऋषि से संतानें पैदा की. पांडवों की माता और विदुर की माता ने भी इसी तरह पर-पुरुष द्वारा पुत्रवती हुई.
संस्कृत साहित्य में विवाह संबंधी अनेकों प्रकार के विधान दिए गए हैं। इनमें से कुछ ये हैं :
उत्कृष्टायाभिरूपाय वराय सदृशाय च।
अप्राप्तामपि तां तस्मै कन्यां दद्याद्यथाविधि॥
यदि कन्या के लिए वर उत्कृष्ट हो, सुन्दर रूप वाला हो, और गुण आदि में उसके सदृश हो, तो कन्या को उसे विवाह में दे दें, चाहे वह ’अप्राप्त’= पिता या माता का निकट सम्बन्धी ही क्यों न हो।
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने॥
कन्या को वर की माता की छः पीड़ियों और पिता के गोत्र का नहीं होना चाहिए। इससे दूर के सम्बन्ध में विवाह प्रशंसित है। जबकि यहां आपत्काल वस्तुतः नहीं है, तथापि विवाह में योग्य वर-वधू मिलने इतने कठिन होते हैं, कि वहां ऋषि ने नियम-उल्लंघन मान्य कर दिया है।
काममामरणातिष्ठेद् गृहे कन्यर्तुमत्यपि।
न चैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्॥
चाहे कन्या विवाह-योग्य हो जाए, और आमरण घर पर ही बैठी रहे, परन्तु उसे गुणहीन पुरुष को कभी नहीं देना चाहिए।
कन्या का माता-पिता के यहां ही बस जाना सुखद परिस्थिति नहीं है, तथापि मनु ने, योग्य वर के न मिलने की स्थिति में, इसे बुरे व्यक्ति से विवाह करने से अधिक श्रेष्ठ माना है।
इसके विपरीत, मनु कन्या को उपदेश करते हैं :
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती।
ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम्॥ (मनु० ९।९०).
यदि उसके रजस्वला हो जाने के तीन वर्ष तक विवाह न हो (अर्थात् माता-पिता न करा पाएं या न कराना चाहें), तो वह स्वयं अपने जैसा पति ढूढ़ ले।
यहां भी, उन्होंने योग्य वर ढूढ़ने को ही कहा है, इसलिए, वस्तुतः, यह ऊपर वाले श्लोक के विपरीत नहीं है।
अच्छा गुरु न मिलने के विषय में, शास्त्र विधान करते हैं :
अब्राह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते॥
आपत्ति-काल में, जब ब्रह्मज्ञानी शिक्षा करने के लिए उपलब्ध न हो, तब किसी विकल्प से छात्र विद्या ग्रहण कर ले।
हम कर्ण और एकलव्य की कहानी जानते हैं, जिन्होंने गुरु से तिरस्कृत होने पर, स्वयं ही शस्त्र-विद्याओं को ग्रहण किया।
बुद्ध, महावीर, ओशो आदि के भी कोई गुरु नहीं थे। मैं भी गुरुडम के विरुद्ध हूँ.
प्रायः, हम कुकर्म इसीलिए करते हैं कि हम आत्मा से, या शरीर से क्षीण होते हैं। जब महाभारत युद्ध में, पाण्डव हार के कगार पर खड़े थे, तो युधिष्ठिर ने अश्वत्थामा के विषय में झूठ बोला, और कृष्ण ने सूर्यास्त छन्नी से किया।
एक प्रकार से देखें, तो ये हमारी परीक्षाएं होती हैं, जहां परमात्मा हमें अपनी कमियों पर विजय प्राप्त करने का अवसर देते हैं। जब तक हम इनपर विजय प्राप्त नहीं करते, तब तक वही परिस्थितियां अन्य रूपों में हमारे सामने उपस्थित होती ही रहेंगी.
आज के कठिन युग में, जब हम पूर्णतया धर्म का अवलम्बन करने में असमर्थ हैं, हमें अपनी शक्ति के अनुसार जितना हो सके, धर्म निर्वाह करना चाहिए।
शून्य और एक के बीच में बहुत बिन्दु होते हैं। यदि हम एक तक न पहुंच पा रहे हों, तो भी हमें शून्य से सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए.