सुसंस्कृति परिहार
शोषण की जितनी इबारतें आज के दौर में लिखी गई हैं वे अप्रत्याशित नहीं है।इससे पहले भी हिटलरशाही जब चरम पर पहुंची थी तब जनता ने आगे बढ़कर उसे ठिकाने लगाया है।अभी भी मई दिवस आते ही ना जाने क्यों हाथ की मुट्ठी तनने लगती है गर्मजोशी से नारे लगाने का मन करने लगता है। कितनी ही फासिस्ट सरकारें दुनिया में आईं और गईं। मई दिवस हमें यह याद दिलाता है कि मज़दूर और किसानों की एकजुटता की ताकत ने मिलकर उन्हें टिकने नहीं दिया है।मई दिवस उन्हें सलाम करने का दिन है।
आज तो सर्वहारा वर्ग का प्रतिशत दुनिया में इतना बढ़ रहा है कि कुल आबादी का तकरीबन 91से लेकर 94% के लगभग लोग अपना सब कुछ पूंजीवादी ताकतों को सौंप चुके हैं। शर्मनाक बात तो यह है कि कथित लोकतांत्रिक देशों रूस, चीन और भारत में भी पूंजीवादी ताकतें ही अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष तौर पर जनता के तमाम अधिकार छीनती जा रही हैं। अफ़सोस इस बात का है कि इतनी बड़ी तादाद में अवाम इस स्थिति में कैसे और क्यों पहुंची तथा इसे बचाने के अब क्या तौर तरीके हो सकते हैं ?
एक बात तो जग जाहिर है इस दिक्कत के दौर में आज भी प्रतिरोध वाले आंदोलन जारी हैं वे थमे , रुके नहीं है उनकी भले संख्या कुछ कम नज़र आए लेकिन जनमानस में चिंगारी मौजूद है उनको कुशल नेतृत्व देने वाले लोगों की आज सख़्त ज़रूरत है वरना मई दिवस रस्मी तौर पर ही मनता रहेगा।उसकी महत्ता जाती रहेगी।
हालांकि सर्वहारा समाजशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र में समाज की नीचे वाली श्रेणियों को कहा जाता है, जो अक्सर शारीरिक श्रम से जीवन चलाते हैं। औद्योगिक समाजों में अक्सर कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों को ‘प्रोलिटेरियट’ कहा जाता था लेकिन कभी-कभी कृषकों और अन्य ग़रीब मेहनत करने वाले लोगों को भी इसमें शामिल किया जाता रहा है। आज स्थित बहुत विकट है। सरकारें परोक्ष रुप से कारपोरेट के हाथ में अपनी तमाम जिम्मेदारियां सौंपती जा रही हैं उनका ये कहना कि पुराना कारोबार घाटे में जा रहा है इसलिए मुनाफे के लिए इसे बेचा जा रहा है ये सरासर झूठ है अब तक भारत में जितने संस्थान बेचे गए हैं उस विक्रय में सरकार को घाटा ही हुआ है।ये सरकार ढाल बनकर पूंजीवादी ताकतों को खड़ा कर रही है। विपक्ष की कमज़ोर स्थिति ,मीडिया का गैर जिम्मेदाराना रुख तथा बिकाऊ पत्रकारिता ने भारतवासियों के हक पर डाका डालने वालों का पुरजोर विरोध ना होने की वजह से आहिस्ता आहिस्ता भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत कमज़ोर होती जा रही है।
जिसकी वजह से निजी संस्थानों में होते शोषण की तरह अब सरकारी संस्थान,बैंक,बीमा जैसे क्षेत्रों में शोषण अपने चरम पर पहुंच गया है। उच्च वर्ग के अधिकारियों को छोड़कर तमाम मध्यम और निम्न स्तरीय कर्मचारी गहरे असंतोष के बावजूद भयानक रूप से शोषित हैं। ये सब अब सर्वहारा वर्ग की स्थिति में आ गया है। कहने का आशय यह है कि मज़दूर के साथ किसान,छोटे व्यवसायीगण, तमाम शासकीय अशासकीय कर्मचारियों का वर्तमान तो गहरे संकटों से जूझ रहा है भविष्य का तो कुछ अता पता ही नहीं है।
पूंजीवादी तौर तरीकों पर चलने वाली भारत सरकार को ना मंहगाई की चिंता है और ना ही बड़ी संख्या में तैयार पढ़ें लिखे बेरोजगारों की। स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति बदहाल है।देश को स्वस्थ और समर्थ बनाने वाले संस्थान अब निजी दूकान बन गए हैं । आत्मनिर्भर भारत के सपने बिखेरती सरकार ने लोगों को इस तरह तोड़ कर रख दिया है कि वे अब अपना छोटा व्यवसाय भी चलाने की स्थिति में नहीं है चलाएंगे वे ही लोग जो देश की लूट में शामिल हैं और देश को खरीद रहे हैं।वे रोजगार देंगे वहीं मन माफिक मजदूरी देंगे। विरोध की कोई गुंजाइश भी नहीं रहेगी यानि करना है तो करो वरना करोड़ों बेरोजगार लाईन में लगे ही हैं। सरकार से रोजगार मिलेगा ये तो भूल ही जाइए।जब संस्थान ही उनके हाथ में नहीं तो रोजगार देने की बात कैसे संभव हो सकेगी।यही बात मंहगाई पर होगी तो जब प्रोडक्शन के मालिक अडानी अंबानी होंगे तो मंहगाई कैसे सरकार कम कर पाएगी।बहाना भी अच्छा खासा रहेगा।ना रहेगा बांस और ना ही बजेगी बांसुरी।
यानि हर हाल में सिवाय रोने कराहने के कुछ नहीं मिलने वाला।अब सवाल ये उठता है कि इतने विपरीत हालात होते हुए भी चारों तरफ़ ख़ामोशी क्यों छाई हुई है। इसका सबसे अहम कारण जनता को धर्म का नशा पकड़ा देना है वह हिंदू मुस्लिम में उलझी रहे तथा सरकार हम दो हमारे दो नारे को क्रियान्वित करते हुए भारत की मूल अवधारणा, संस्कृति और संविधान को बदल डाले। राम आ ही गए हैं और रामराज भी आता दिखाई देने लगा है उनके रामराज का मतलब होगा मनुसंहिता लागू यानि राजा और गुलाम की स्थिति आ जाऐगी। जहां चार वर्णों के अनुसार कार्य विभाजन होगा। अल्पसंख्यकों का खात्मा यदि नहीं कर पाएंगे तो दास्ता के बंधन में जकड़ लेंगे,दलित पिछड़ा तथा औरत दमित ही रहे तो अच्छा। मनुस्मृति के अनुसार बहुतेरे काम अभी भी चल ही रहे हैं। बदलाव सिर्फ यह होगा राजा की जगह बड़े पूंजीपति होंगे।बाकी सब गुलाम।हो सकता है एक दिन ऐसा आए राजा भी पूंजीपतियों का गुलाम हो जाए। हमारे देश में तो यह नज़र आने लगा है।
इसलिए आज ज़रूरत ख़ामोशी तोड़ने की भी है।कुछ लोग का ख्याल है कि यह तूफान आने के पहले की शांति है। आखिरकार अत्याचार सहन करने की भी अपनी एक सीमा होती है तो सोचिए अब ऐसे बड़े बदलाव करने वालों से कौन लड़ेगा यह तय करना ज़रूरी है ।मसलन तमाम क्षेत्रों के कामगारों को फुटकर आंदोलन की जगह मिल जुलकर एक बड़े प्रतिरोधात्मक आंदोलन को जन्म देना होगा।धर्म के नाम पर अपने तमाम अधिकारों को खोते जा रहे लोगों को सब साफ़ साफ़ समझाने की ज़रूरत है। कामगारों के साथ उन लोगों को भी अगुवाई करनी पड़ेगी जो चाहते है हमारा संविधान बचा रहे ताकि हम सब के अधिकार सुरक्षित रह सके।जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन रहे। लोकतंत्र की राह से छद्म राजनीति के ज़रिए देश को बर्बाद करने वालों से शीघ्र से शीघ्र मुक्ति ज़रुरी है। राजनैतिक ताकतें जिनका संविधान में यकीन है वे भी एकजुट हों।आज कौन प्रधानमंत्री बनेगा यह एक बड़ा प्रश्न नहीं है आज देश कैसे बचेगा और फासिस्टवादी कैसे मात खायेंगे? यह अहम सवाल है।देश में लोकतंत्र कायम रहे। संविधान सुरक्षित रहे तभी तो हम सबके अधिकार बचे रह सकेंगे। आजकल लोकतंत्र का पर्व चुनाव काल चल रहा है।सुनहरा अवसर है फासिस्ट वादी ताकतों को परास्त करने काउनके मंसूबे पर पानी फेरने का।
ऐसे कठिन वक्त में संघर्ष की उस बेला को याद करें जब अमेरिका 1806 में अमेरिका के फिलाडेल्फिया इलाके के किसानों और चर्मकारों ने काम के घंटों को लेकर अपना विरोध प्रकट किया सफेद रंग का झंडा लेकर विरोध कर रहे मजदूरों पर मालिकों के गुंडों ने गोलियां चलाई तब जो खून बहा उससे सफेद झंडा लाल हो गया। मजदूर संगठित होने लगे सूर्योदय से सूर्यास्त तक का नारा दिखा 8 घंटे काम 8 घंटे मनोरंजन 8 घंटे आराम की मांग करने लगे मजदूर अपने ऊपर हो रहे शोषण से मुक्त होना चाहते थे धीरे-धीरे मुक्त होने की इच्छा ने संगठित होने का स्वरूप लिया फ्रांस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया ,ऑस्ट्रेलिया, कनाडा में जो रूस की क्रांति का बीज पनपा था उसने एक विचारधारा का रूप ले लिया और इस विचारधारा का नाम मार्क्सवाद रखा गया। जिसने साम्राज्यवादियों की सरकारें नेस्तनाबूद कर लाल झंडे की सरकारें बनाईं तथा दुनिया के सर्वहारा को एक नई राह दिखाई। प्रथम महायुद्ध के बाद साम्यवाद की ही नहीं लोकतंत्रात्मक समाजवाद की भी प्रगति हुई है। दो महायुद्धों के बीच ब्रिटेन में अल्पकाल के लिए दो बार मजदूर सरकारें बनीं। प्रथम महायुद्ध के बाद जर्मनी और आस्ट्रिया में समाजवादी शासन स्थापित हुए; फ्रांस और स्पेन आदि देशों में समाजवादी दलों की शक्ति बढ़ी परंतु शीघ्र ही इनकी प्रतिक्रिया भी आरंभ हुई। द्वितीय महायुद्ध के बीच फासीवादी विचारों का ह्रास तथा समाजवादी विचारों और आंदोलनों की प्रगति हुई है। पूर्वी यूरोप के साम्यवादी शासनों के अतिरिक्त पश्चिमी यूरोप में कुछ काल के लिए कई देशों में समाजवादी और साम्यवादी दलों के सहयोग से सम्मिलित शासन बने। यूरोप के कुछ अन्य देशों जैसे (ब्रिटेन, स्वीडन, नार्वें, फिनलैंड) तथा आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड आदि देशों में समय समय पर समाजवादी सरकारें बनती रही हैं। इस काल में एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमरीका के देशों में भी समाजवादी शासन स्थापित हुए। इनमें सोवियत रूस, चीन, बर्मा, हिंद एशिया, सिंगापुर, घाना और क्यूबा मुख्य हैं।आज भी कई देशों में लहू में भीगा वही लाल झंडा शान से फहरा कर यह संदेश दे रहा बिना लड़े
शोषण से मुक्ति की राह हमारे सामने है।आज सर्वहारा होती दुनिया को चंद पूंजीपति अपने इशारों पर नचा रहे हैं समाजवादी गणराज्य भारत भी पिछले दस साल से इस दारुण व्यथा को झेल रहा है।धर्मान्धता में हकीकत से दूर होते लोग कब तक ख़ामोश रहेंगे ? अर्श पर जाने की तमन्ना ,अब भी सपने में बाकी है तो आईए जागे और जगाए ही नहीं बल्कि पूरी ताकत से दुनिया भर में शोषण कर्ताओं के ख़िलाफ़ हल्ला बोलें। बहुत पहले क्रांतिकारी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ यह आव्हान कर चुके हैं -ए ख़ाक नशीनो उठ बैठो,वो वक्त करीब आ पहुंचा है जब ताज उछाले जायेंगे जब तख़्त गिराए जायेंगे ….
बेशक अब तो पानी सर से गुजर चुका है अब नहीं तो कब? सब एकजुट हों और इन लुटेरे सत्ता लोभी शोषणकारी ताकतों को परास्त करें।दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां हमारा संबल हैं-
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए ।