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हिंदी जैसी ही मानी जाए हर भारतीय भाषा

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एस श्रीनिवासन, वरिष्ठ पत्रकार

पिछले हफ्ते केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह कहकर बर्र के छत्ते को हिला दिया कि हिंदी भाषा अंग्रेजी का विकल्प हो सकती है। उनके इस बयान का दक्षिण भारत के प्रमुख राजनीतिक दल एकजुट होकर विरोध करने लगे हैं। इन पार्टियों का कहना है कि हिंदी थोपने की किसी भी कोशिश का वे डटकर मुकाबला करेंगे।
देश की आजादी के बाद से भाषा एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। 1950 के दशक के अंत में तो यहां भाषा के सवाल पर काफी कशाकशी हुई थी। संविधान सभा में भी इस विषय पर तीखी बहस हुई। जवाहरलाल नेहरू से लेकर बाद के अनेक प्रधानमंत्रियों तक ने, और कई अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने भाषा के सवाल पर अपने हाथ जलाए हैं। 
अमित शाह जैसे कुशल राजनेता बखूबी जानते हैं कि उनके बयान के क्या निहितार्थ निकाले जाएंगे। फिर भी उन्होंने इस पर जोर देकर क्यों कहा? दरअसल, हिंदी का प्रचार-प्रसार भाजपा और आरएसएस की प्रमुख योजनाओं में एक है, क्योंकि वे भारत के ‘एकीकरण’ के लिए इसे महत्वपूर्ण मानते हैं। ‘एक भारत-एक राष्ट्र’ का सिद्धांत कई मुद्दों से नत्थी है, जिनमें भाषा भी शामिल है। इसीलिए भाजपा भाषा के सवाल को समय-समय पर उठाती रही है। गैर-हिंदी भाषी राज्य इसे ‘हिंदी थोपना’ कहते हैं और इसके खिलाफ वे मुखर हैं। उनका मानना है कि केंद्र हिंदी भाषा को बढ़ावा देता रहता है और इसे विशेष दर्जा देने का हिमायती भी है, लेकिन अपने यहां सांविधानिक रूप से ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। 

संविधान की आठवीं अनुसूची में जिन 22 भारतीय भाषाओं को मान्यता मिली हुई है, उनमें से एक हिंदी है। संविधान सभा ने काफी बहस के बाद हिंदी को केंद्र की आधिकारिक भाषा माना। जब गैर-हिंदीभाषी राज्यों ने इसका विरोध किया, तब अंग्रेजी को 15 वर्षों के लिए संपर्क की भाषा के रूप में जारी रखने की अनुमति दे दी गई। तब से इसकी मीयाद लगातार बढ़ाई जाती रही है। तब यह भी फैसला लिया गया था कि सभी राज्य अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं का राजभाषा के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। इसी वजह से तमिलनाडु आधिकारिक भाषा के रूप में तमिल का उपयोग करता है और पश्चिम बंगाल में बांग्ला का आधिकारिक प्रयोग होता है। अन्य गैर-हिंदीभाषी राज्यों ने भी यही किया है। केंद्र राज्यों के साथ अंग्रेजी में संवाद करता है, जबकि अधिकांश केंद्रीय विश्वविद्यालय व अखिल भारतीय सेवाओं से जुड़ी परीक्षाएं अंग्रेजी और हिंदी में आयोजित की जाती हैं। हालांकि,  हालिया कुछ अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षाओं में क्षेत्रीय भाषाओं में भी सवाल पूछे गए हैं, लेकिन इनमें अंग्रेजी और हिंदी की प्रमुखता ही बनी हुई है।
हिंदीभाषी राज्यों के लोगों के लिए यह आश्चर्य का विषय हो सकता है कि आखिर भारत के अन्य हिस्सों के लोग उनकी भाषा क्यों नहीं बोलते? उनके दिमाग में यह बात भी घर कर गई है कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है। अगस्त, 2020 में लोकसभा सांसद कनिमोझी को चेन्नई के हवाई अड्डे पर इसी वजह से मुश्किलें झेलनी पड़ी थीं। तब एक सीआईएसएफ अफसर ने उनकी भारतीयता पर सवाल उठा दिया था, क्योंकि कनिमोझी ने उनसे या तो अंग्रेजी या तमिल में बोलने को कहा था। अधिकारी यह समझ नहीं रहा था कि भारतीय होने के लिए हर किसी का हिंदी में बोलना अनिवार्य नहीं है। शायद उसे यह भी पता नहीं था कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है और यह आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं में एक है। मगर हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में विशेष दर्जा हासिल है, क्योंकि यह एकमात्र भारतीय भाषा है, जिसको देश की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता हासिल है।
सवाल यह है कि भारतीयों को हिंदी की जगह अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा क्यों चुननी चाहिए? हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने में आखिर क्या दिक्कत है? और क्यों अंग्रेजी को नहीं छोड़ना चाहिए? इनके जवाब सामान्य हैं। गैर-हिंदीभाषी राज्य हिंदी के समान अपनी भाषा की कानूनी हैसियत चाहते हैं, और तब तक उनको लगता है कि संपर्क की भाषा अंग्रेजी रहनी चाहिए। भाषा को लेकर आंदोलन करने वालों का तर्क है कि सभी भारतीय भाषाओं को समान आधिकारिक दर्जा देना इसका एक उपाय है। आखिरकार यूरोपीय संघ ने अपने महाद्वीप की सभी 24 भाषाओं में अनुवाद मुहैया कराकर भाषा की समस्या का समाधान किया ही है।
सवाल यह भी है कि हमें राष्ट्रभाषा की जरूरत क्यों है? एक तर्क यह दिया जाता है कि हिंदी भारत में सबसे अधिक समझी जाने वाली भाषा है। मगर जनगणना के आंकड़े इसकी कलई खोल देते हैं। जाहिर है, बोलचाल और कामकाज संबंधी मुश्किलों का हल तकनीक से निकल सकता है, लिहाजा जरूरी है कि राजनीतिक दल सभी भारतीय भाषाओं को मान्यता देने की इच्छाशक्ति दिखाएं। यह विवाद 2026 में और भी गंभीर हो सकता है, क्योंकि तब परिसीमन को लागू किया जाएगा। ऐसा अनुमान है कि गैर-हिंदीभाषी राज्यों की कीमत पर हिंदीभाषी राज्य संसद में 100 अतिरिक्त सीटें जोड़ेंगे। चूंकि यह कवायद काफी हद तक जनसंख्या से जुड़ी है, इसलिए सवाल सामाजिक और आर्थिक विकास का भी है, क्योंकि दक्षिण और पश्चिमी में कई गैर-हिंदीभाषी राज्य हिंदी पट्टी की तुलना में बेहतर सामाजिक व आर्थिक संकेतकों को जी रहे हैं। 
तो क्या इसका यह मतलब है कि हिंदीभाषी राज्यों की शिथिलता का खामियाजा दक्षिण के राज्य भुगतेंगे? इससे प्रवासन का मसला भी उलझ जाएगा, क्योंकि उत्तरी राज्यों के प्रवासी कामगार दक्षिणी राज्यों में आते रहते हैं। आंदोलनकारियों का कहना है कि हिंदीभाषी क्षेत्र के प्रवासी नियोक्ता से उनकी भाषा सीखने की अपेक्षा करने के बजाय राज्यों की स्थानीय भाषा सीखें। 
साफ है, भाषा एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर पूरी सावधानी से आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि यह महज संपर्क का मसला नहीं है। यह एक भावनात्मक मुद्दा है, जो पहचान से भी जुड़ा है। भाषा नागरिकों को स्वाभिमानी भी बनाती है। इसलिए सरकार को सभी भाषाओं को समान आधिकारिक दर्जा देना चाहिए।

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