स्वामिनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर
पेगासस के जरिए दुनिया भर में नेताओं, पत्रकारों, सामाजिक संगठनों सहित कई लोगों के फोन टैप किए गए। पेगासस एक टेलीफोन हैकिंग सॉफ्टवेयर है। इसे इस्राइल में बनाया गया। माना जा रहा है कि इसे केवल सरकारों को बेचा गया था। भारत में भी राहुल गांधी, दो मौजूदा केंद्रीय मंत्रियों और 40 पत्रकारों सहित 300 लोगों को इसके जरिये निशाने पर लिया गया। ये बातें वैश्विक स्तर पर एक मीडिया जांच में सामने आई हैं।
प्राइवेसी बची ही कहां
मैं दाद दे रहा हूं जांच करने वालों को, जिनके चलते ये खुलासे हुए। स्वाभाविक ही मीडिया की चिंता खासतौर से प्रेस की आजादी को लेकर है, लेकिन पेगासस तो नमूना भर है। देश की सुरक्षा का मामला हो या कंपनियों की होड़ का, साइबर सेंधमारी हर चीज के लिए जरूरी हो गई है। सभी देशों ने और कई कंपनियों ने भी साइबरस्नूपिंग में मददगार चीजें खरीदी हैं या उन्हें डिवेलप किया है। इनमें से कई तो पेगासस से भी ताकतवर हैं।
यूं भी प्राइवेसी का जमाना लद चुका है। एडवर्ड स्नोडेन ने 2013 में ही परदा उठा दिया था ऐसी करतूतों से। स्नोडेन के मुताबिक अमेरिका की नैशनल सिक्योरिटी एजेंसी और यूरोपीय देशों का फाइव आईज इंटेलिजेंस अलायंस दुनियाभर में सर्विलांस प्रोग्राम चलाते हैं। हाई-टेक स्नूपिंग अरबों डॉलर की इंडस्ट्री बन चुकी है। सरकारें और कंपनियां पैसे झोंक रही हैं इसमें। जर्मनी की राष्ट्रपति एंगेला मर्केल इस बात से नाखुश तो हुई थीं कि अमेरिकी स्नूपर्स ने उनको टारगेट किया, लेकिन इस जानकारी से वह कुछ खास हैरान नहीं हुईं।
जिन पत्रकारों और जजों के फोन हैक किए गए, उनका गुस्सा मैं समझ सकता हूं। लेकिन यह प्रेस की आजादी पर पहरा लगाने भर का मामला नहीं है। अगर कोई इसे केवल प्रेस की आजादी से जोड़कर देख रहा है, तो गलती कर रहा है। यह तो कहीं ज्यादा बड़े खेल का एक छोटा सा साइड इफेक्ट है। स्नूपिंग अब राष्ट्रीय सुरक्षा का अहम हिस्सा बन चुकी है। खुफियागीरी करने और अपनी मारक क्षमता बढ़ाने के साथ दूसरों की ताकत कम करने का एक जरिया बन चुकी है स्नूपिंग।
ट्रंप ने मर्केल की स्नूपिंग कराई। क्या कोई मान सकता है कि ट्रंप ने शी चिनफिंग, व्लादिमीर पूतिन, बोरिस जॉनसन, नरेंद्र मोदी सहित हर उस नेता की स्नूपिंग की कोशिश नहीं की होगी, जो उनके मतलब का हो? क्या यह माना जा सकता है कि ये टारगेट इतने मजबूत सुरक्षा कवच में होंगे कि इनकी हैकिंग नहीं हो सकती?
अमेरिका खुद शिकायत करता रहता है कि रूसियों और चीनियों की ओर से हैकिंग बढ़ रही है। लेकिन चीन और रूस का हित तो इसी में है कि वे इस मामले में या तो अमेरिका से आगे निकल जाएं या कम से कम उसके बराबर रहें। भारत के पास भी आईटी का काफी दमखम है। साइबर डिफेंस के साथ ही भारत को हैकिंग के मामले में भी खुद को मजबूत बनाना चाहिए।
दूसरे विश्व युद्ध में तो बाजी ही इस बात से पलट गई थी कि ब्रिटिश लोगों ने जर्मनी के मिलिट्री कोड और अमेरिकियों ने जापान के कोड तोड़ दिए। इंटेलिजेंस में इस महारत ने जंग के मैदान में बड़ी जीत दिलाई। इसे देखते हुए भारत को पूरा जोर लगाना चाहिए। भारत को इस लायक हो जाना चाहिए कि शी चिनफिंग और इमरान खान की स्नूपिंग हो सके। पाकिस्तान और चीन के हर सिस्टम की हैकिंग की जा सके। आखिर ये देश भी तो हमारे सिस्टम्स में सेंध की जुगत लगाते ही होंगे। प्राइवेसी की पवित्रता का मामला नहीं है यह। यह हथियारों की खतरनाक रेस है।
कॉरपोरेट जगत में तो हैकिंग आम है। न्यू यॉर्क के एक इन्वेस्टमेंट बैंकर ने मुझे बताया था कि सुरक्षा को देखते हुए उनके सहयोगी अपने पासवर्ड रोज बदलते हैं। वे हर हफ्ते अपने टेलीफोन भी बदल देते हैं। कारोबार से जुड़ी किसी भी अहम जानकारी पर हाथ पड़ जाने का मतलब है अरबों का मुनाफा। कमर्शल जासूसी तो हर हाई टेक इंडस्ट्री में आम बात है। ऐसा नहीं है कि यह सब केवल अमेरिका में होता है। इंडियन इंडस्ट्री भी कोई दूध की धुली नहीं है।
चार साल पहले की बात है। एक मीटिंग में गया था मैं, जिसे एक बड़े सरकारी साइबर सिक्यॉरिटी ऑर्गनाइजेशन के हेड ने संबोधित किया। उनका आकलन था कि हर ईमेल और फोन कॉल पर कम से कम 100 इकाइयों की नजर रहती है। इनमें से 52 फीसदी प्राइवेट एजेंसियां होती हैं और 48 फीसदी सरकारी। और ये सब किसी एक देश की नहीं होतीं।
साइबर सिक्यॉरिटी के उस्तादों का कहना है कि दुनियाभर में 70 फीसदी वेबसाइटों में किसी न किसी तरह की सेंध लगी है। किसी एक हैक का पता लगाने में विशेषज्ञों को 240 दिन लग सकते हैं। वायरसों की संख्या हर साल 66 फीसदी की दर से बढ़ रही है। इनमें से कुछ का मकसद नजर रखना होता है, लेकिन बाकियों को तैयार किया जाता है सिस्टम्स को ध्वस्त करने के लिए। वे हर वित्तीय लेनदेन को देख सकते हैं, हर ईमेल और फोन कॉल उनकी नजर में होती है।
सरकारों की भी स्नूपिंग
स्नूपिंग केवल सरकारें नहीं करतीं। उनकी भी स्नूपिंग होती रहती है। साइबर सिक्यॉरिटी पर अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद इस जंग में तमाम देश हार रहे हैं। ड्रग्स माफिया और आतंकवादी संगठनों ने हैकिंग को जरिया बना लिया है ताकतवर देशों में सेंध लगाने का। इसमें उनके लिए रिस्क भी कम है। कई बार तो सुराग भी नहीं मिल पाता। रैंसमवेयर का बिजनेस चमक गया है। हैकर्स पहले तो किसी कॉरपोरेट सिस्टम को घुटनों पर ला देते हैं और फिर अरबों रुपये पाने के बाद ही उसका गला छोड़ते हैं।
सुरक्षा के लिहाज से देखें तो पाकिस्तान के मुकाबले तालिबान और ISIS कहीं ज्यादा बड़ा खतरा बन सकते हैं। आम लोगों की हिफाजत के लिए भारत में प्राइवेसी से जुड़े कानून की जरूरत है, लेकिन यह भी साफ कर लेना जरूरी है कि साइबर सिक्यॉरिटी की जो बड़ी दिक्कतें हैं, उनका एक छोटा सा हिस्सा है प्राइवेसी। बहुत बड़े खतरे हैं हमारे सामने और उनसे निपटने का कोई साफ तरीका भी नहीं है।