*(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)*
हम तो पहले ही कह रहे थे। नये भारत में सब कुछ तो नया-नया है। नयी सरकार है। नयी सरकार पार्टी है। तिरंगे वाले की बगल में ही सही, नया राष्ट्रीय ध्वज है, भगवा वाला। राष्ट्रगान की बगल में दूसरा वाला राष्ट्रगीत भी है। अनौपचारिक ही सही, नया संविधान है, मनुस्मृति वाला। नया संसद भवन है। आहत संवेदनाओं का नया-नया राज है। कम से कम तस्वीर में राष्ट्रीय पशु भी नया है, गुस्सेवाला और राष्ट्रीय पक्षी भी नया है, हाथ से दाने चुगने वाला।
और इतिहास-वितिहास तो खैर सब कुछ नया है ही, एकदम कोरी स्लेट पर लिखा जाने वाला — चाहे तो राणाप्रताप से अकबर को हरवा दो, चाहे पृथ्वीराज के हाथों मोहम्मद गोरी को मरवा दो और चाहे माफी मांगने वालों को महावीर बना दो। नये भारत में जब सब कुछ नया है तो, एक ठो नया राष्ट्रपिता भी तो बनता ही है। पुराने वाले राष्ट्रपिता से ही हम कब तक काम चलाते रहेंगे और क्यों? क्या कहते हो भक्तों — नये इंडिया को नया राष्ट्रपिता चाहिए कि नहीं चाहिए!
हमसे लिखाकर ले लीजिए, मोदी के विरोधी इसका भी विरोध करेंगे। इनसे मोदी जी की तरक्की देखी थोड़े ही जाती है। वर्ना सोचने की बात है कि मोदी जी पांच साल पीएम रह लिए। पांच साल और चौकीदारी करने के चक्कर में पीएम रह लिए। अब आगे क्या? पांच साल और वही खाली पीएम के पीएम। पांच साल में न सही, दस साल पर सही, कुछ न कुछ प्रमोशन तो मोदी जी का भी बनता ही है। दस साल में तो सुनते हैं कि छोटे बाबुओं का भी प्रमोशन हो जाता है और यहां तो पीएम का मामला है। और पीएम से ऊपर कौन? राष्ट्रपिता ही तो! एक नेचुरल से प्रमोशन पर भी इतनी झिकझिक!
अमृता जी ने विरोधियों का मुंह बंद करने के लिए एक काम बिल्कुल सही किया। आखिरकार, फडनवीस साहब से इतने राजनीतिक गुर तो सीख ही लिए होंगे। एक राष्ट्र, दो-दो पिता का शोर मचाने वालों का मुंंह पहले ही बंद कर दिया। मोदी जी नये भारत के नये राष्ट्रपिता हैं। गांधी जी बने रहें पुराने भारत के राष्ट्रपिता भक्तों की बला से। उन्हें बस नये भारत के लिए एक नया राष्ट्रपिता चाहिए। जैसे नयी संसद चाहिए, नया भारत चाहिए, वैसे ही नया राष्ट्रपिता चाहिए, बस! नया पीएम कौन होगा — किस ने पूछा? मोदी जी क्या पीएम–कम–राष्ट्रपिता भी नहीं हो सकते? भक्त तो थ्री इन वन की तैयारी में हैं — पीएम भी, राष्ट्रपिता भी और भगवान भी और इन्हें दो-इन-वन भारी पड़ रहा है।
*(व्यंग्यकार प्रतिष्ठित पत्रकार और ’लोकलहर’ के संपादक हैं।)*