पवन कुमार, ज्योतिषाचार्य
रात के समय नीले वितान पर झिलमिलाते दीप अपनी ओर खींच लेते हैं। मानो वे अपने करजालों से बरबस हमारी आंखों को प्रतिदिन हमें संकेत दे जाते हैं कि उनमें कौन सा रहस्य छिपा है इसे जानने का यत्न करो। किन्तु यह क्या रात को हमारे कौतूहल को जगाने वाले ये प्रकाशपिण्ड सूर्योदय होते ही कहाँ विलीन हो गये।
एक ऋषि ने आश्चर्य करते हुए पूछा- ‘दिवा क्व भृशा भवन्ति’ अर्थात् वे अनेक (नक्षत्र) दिन में कहाँ होते हैं। मानव मनीषा ने इन प्रकाश-पिण्डों के रहस्यों का पता लगाने का अथक श्रम किया तथा बहुत कुछ जाना भी किन्तु ज्यों-ज्यों इसके भेद खुलते गये त्यों-त्यों इसकी रहस्य-शृंखला में पूर्वापेक्षा अधिक रहस्यमयी कड़ी जुड़ती गयी। फलतः आज के एक नवीन किन्तु मानव के सम्मुख वे उससे भी अधिक रहस्यमय हैं जैसे कि पहले थे।
आज के विज्ञान के द्वारा इनके जो रहस्य प्रकट हुए हैं वे विश्व की रचना के उद्घाटन में सहाय्य प्रदान कर रहे हैं। आज का भौतिक विज्ञान इन्हीं रहस्यों के उद्घाटन के लिए प्रयत्नशील हैं। स्पेक्ट्रार्नामी ने भी आज यह पता लगा लिया है कि आकाश में लघुरूप के दृष्टिगोचर होने वाले ये तारे एक-एक सूर्य हैं।
हमारा सूर्य इनमें एक छठी श्रेणी का तारा सिद्ध होता है। और उसके चतुर्दिक भ्रमण करने वाले अपने परिवार के सदस्य दुधादि ग्रहों के साथ वह आकाश-गङ्गा के एक कोने में स्थित होकर अभिजित् (vega) तारे की ओर गतिशील है। इन तारों के प्रकाश द्रव्यमान दूरी और अवयवघटक द्रव्यों का सम्यग् ज्ञान आज के वैज्ञानिकों को हो चुका है।
आपको आश्चर्य होगा कि तीन कोने वाला एक छोटा सा शीशे का टुकड़ा विशाल आकाश के रहस्यों का पता लगाने में कैसे सक्षम होता है। किन्तु मानव बुद्धि की पहुंच कितनी आश्चर्यकारी है।
श्रीमद्भागवतकार की उक्ति पर ध्यान दीजिए :
सृष्ट वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया वृक्षान् सरीसृपमृगान् खगदंश मत्स्यान्। तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्माववोधधिषणं मुदमाप देवः।
~श्रीमद् भा. स्क. (११।९।२८)
ईश्वर को संसार में पेड़ों और पशुओं की रचना करने के बाद सन्तोष नहीं हुआ तो ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने को क्षमता वाले मानव को उत्पन्न करके ही वह प्रसन्न हुआ।’ आज का मानव ब्रह्मज्ञान की साधना के साथ-साथ विज्ञान की साधना द्वारा सृष्टि के रहस्यों के उद्घाटन के लिए प्रयत्नशील हैं।
यह बात भागवतकार के ईश्वर के लिए और भी अधिक प्रसन्नता का कारण होगी। बाज के मानव का चरण चन्द्र- तल तक पहुंच चुका है। वह इसके लिए भी प्रयत्नशील है कि शुक्क और शनि जैसे ग्रहों पर भी मानव रहित राकेडों को पहुँचाने के बदले उन पर समानव ग्रहह्यान भी प्रेषित किये जायें किन्तु इस कल्पना के साकार होने में अभी बिलम्ब है।
आज का मानव जिन भौतिक साधनों के द्वारा ऐसे आश्चर्यकारी क्रियाकलापों के लिए क्षमता प्राप्त कर सका है उसके मूल में ग्रहगति की समस्याओं को सुलझाने के लिए किये गये प्रयत्न ही हैं। ज्योतिष विज्ञान सभी विज्ञानों से प्रथम उत्पन्न हुआ। आदिम मानवों की गणना की आवश्यकता काल गणना की मुख्य समत्या को सुलझाने के लिए ही हुई। क्योंकि व्यवहार प्रवर्तन के लिए काल-ज्ञान भी उतना ही आवश्यक या जितना कि वस्तुओं की गणना।
गणना के द्वारा गणितशास्त्र का उद्भव हुआ जो ज्योतिष विज्ञान का प्रधान अङ्ग बन गया तथा अन्य विज्ञानों के लिए अनिवार्य साधन बना हुआ है। न्यूटन के गति सन्वन्धी तीनों नियमों का सफल परीक्षण ग्रहगति को समस्याओं में ही हो सका है। आकर्षण सिद्धान्त को वे समस्यायें जो भूतल पर पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण समाहित हो सकती थो ग्रहगति के विषय में ही सिद्ध हो सकी हैं।
वे ही सिद्ध गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त आज भौतिकी के प्रधान साधन बन गये हैं। विज्ञान का ऐसा कोई भी अङ्ग नहीं है जो इस ज्योतिष-विज्ञान से उपकृत न हो। नौक-चालन नवीन मार्ग निर्माण यान्त्रिकी भू-भौतिकी कार्मारिकी (इन्जीनियरिङ्ग) आदि विज्ञान के सभी अङ्गों में ज्योतिष विषयों की प्रमुख भूमिका है। आकाश में तारों की स्थिति की जानकारो के लिए ही सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति का आविष्कार हुआ। जो इस शास्त्र के प्रधान उपकरण हैं।
गणित के चलन-कलन और चल राशिकलन (Differential calculus and Integral calculus) का आविष्कार न्यूटन ने ग्रहगति की समस्याओं के समाधान के लिए ही किया था ।
इस ग्रहगति का उद्भव कैसे हुआ यह कहानी भी बड़ी ही रोचक है। आज से लगभग छः हजार वर्ष पूर्व अथवा ३२ हजार वर्ष पूर्व भारत में एक ऐसी घटना घटी जो हमारे धार्मिक इतिहास में अब तक अपने कलेवर के लिए कौतूहल का विषय बनी हुई है। घटना का सम्बन्ध एक धार्मिक कृत्य से है।
आर्यों के लिये अग्न्याधान एक पवित्र कृत्य था। यह अग्न्याधान तब होता था अब विषुवान् काल सम्पन्न होता हो। विषुवान् काल वह होता है जब बसन्त ऋतु में दिन रात बराबर होते हैं। यह घटना आज २१ मार्च को होती है। किन्तु यह दृग्विषय कम से कम ले हजार वर्ष पूर्व ८ जून को जब सूर्य मृगशीर्ष नक्षत्र पर होता था तब घटित होता था। इसी विषुवान् के पवित्र काल में संवत्सर का आरम्भ भी माना जाता था।
आज इस काल को वसन्त सम्पात (Equanox) कहते हैं। इसी वसन्त सम्पात को हमारे आचार्य प्रजापति नाम दिये थे। क्योंकि प्रजापति ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हैं। और उन्हीं का एक रूप काल भी है। कहा गया है कि सृष्टि की उत्पति और विनाश का जनक काल ही है। ‘कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः ।’ तो यह काल प्रजापति भी मनचले हैं।
देखते ही देखते एक दिन ऐसा आया कि ये प्रजापति मृर्गशीर्ष को छोड़ कर रोहिणी पर अपना आसन जमा बैठे। कहां तो सृष्टि के आदि में इन्हें कमल-पत्र का कोमल आसन दिया गया था वह न भाया तो आकाश में चले गये और वहाँ भी अपने मन मौजी स्वभाव के कारण कोमल गात्र वाली रोहिणी पर सरक आाये । इनका यही कृत्य हमारे देवगणको अकृत्य (दुष्कर्म) जान पड़ा । क्योंकि देवताओं ने रोहिणी को प्रजापति की पुत्री मान रखा था।
फिर क्या देवों की सभा बैठी। उसमें किसी ने कहा प्रजापति ने द्यौ की, अभिलाषा की किसी ने कहा उषा की। अन्त में इस विवाद में यह निर्णय हुआ कि वह अपनी पुत्री रोहिणी का ही अभिलाषी है। रोहिणी मृगी का रूप धर के आकाश में गई प्रजापति ने मृग का रूप धारण कर उसका पीछा किया। इसको देवों ने देखा और कहा प्रजापति अकृत करता है। अब वे उसे मारने वाला डडने लगे।
जब उनमें कोई न मिला तो वे अत्यन्त घोरतनु एकत्र किये उनसे भूतवद् नाम देव हुआ। देवों ने उससे कहा प्रजापति ने अकृत किया है इसे विद्ध…. करो।
उसने जाकर उसे विद्ध किया। वह विद्ध होकर ऊपर गया। उसे मृग कहते हैं जिसने विद्ध किया वह मृगव्याध (Sirius) हैं। जो रोहित हुई वह रोहिणी है तथा तीन काण्डों (पर्वो) का वाण था। वहीं त्रिकाण्ड वाण है। जिससे प्रजापति विद्ध (एतरेय ब्राह्मण १३।९) हुआ।
मृगशीर्ष तारापुंज में मृगव्याध और रोहिणी के मध्य १० चमकीलें तारे हैं। मृगव्याध से कुछ तिरछे एक सीधी रेखा में तीन तारे हैं जिन्हें मृगव्याध (भूतवान) का वाण कहा गया है। उसके उत्तर दो चमकीलें तारे पूर्व से पश्चिम की ओर आई और मृगशीर्ष के तारे हैं। रोहिणी और आर्दा कुछ लाल रंग के हैं। वाण के दक्षिण तीन तारे हैं जो मृगशीर्ष के दो अआँखें और मुंह बनाते हैं।
मृगशीर्ष तारापुंज को योरोपियन ज्योतिष में ओरायन (orion) कहते हैं। पुञ्ज के इन तारों के देखने से प्रतीत होता है कि रोहिणी मृग और मृगशीर्ष नाम आकृति के अनुसार रखे गये हैं। जब ये तारे याम्योत्तर में आने के बाद पश्चिम में लटकने लगते हैं तो प्रतीत होता है कि रोहिणी को मृग और मृग को मृगव्याध खदेड़ रहे हैं। रोहिणी और प्रजापति की कथा इसी आधार पर गढ़ी गयी प्रतीत होती है। किन्तु देवों को क्या पता था कि विषुवान् रूपो प्रजापति दण्ड की चिन्ता नहीं करते इन्हें तो ९६० वर्ष तक रोहिणी के साथ बिताना ही है।
उसके बाद भी ये अपनी चाल से बाज नहीं आने वाले हैं। इनकी आदत अविराम पोछे खसकने की है। आज ये मृगशीषं के पीछे सातवें नक्षत्र उत्तराभाद्रपदा पर आसन जमाये हैं। एक नक्षत्र में लगभग ९६० वर्ष रहने का इनका नियम है। किन्तु हमारे पुराणकार एतरेयब्राह्मण की इस कथा को ले उड़े। कथा के भूतवान शूलपाणि शंकर (मृगव्याध) बनाने के लिये ब्रह्मा को दण्ड देने वाले भोले बाबा को पशुपति होने का वरदान देकर धर्म के संरक्षक के विरद से विभूषित किया.
शिवमहिम्रस्तोत्र के एक श्लोक में इसका वर्णन यों हैं :
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं गतं राहिद्भूतां रिरमयिमृष्यस्य वपुषा धनुष्पाणेर्यान्तं दिवमपि सपत्राकृतममुम् त्रसत्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः।
हे नःथ जो प्रजापति अत्यन्त कामुक होकर रोहित (मृगी) हुई अपनी पुत्री के पीछे रमण करने की इच्छा से मृग शरीर के द्वारा दौड़े। आकाश में पहुंचे हुये भी वे धनुष्पाणि आपके द्वारा बाणबिद्ध करते हुये उनको मृग व्याधरूपी आपका वेग आज भी नहीं छोड़ता है। यह है पुष्पदन्ताचार्य का वक्तव्य।
हमारे धार्मिक कथा- कार देवताओं के चरित्र को कितना उच्चकोटि का बनाकर प्रस्तुत करते हैं इसका यह एक उदाहरण है। कहीं शंकरजी को ब्रह्मा से महान् बताने के लिये कथा गढ़ी गयी तो कहीं भगवान विष्णु को शंकर जी से श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये भस्मासुर की कथा रची गई। हमारा धार्मिक साहित्य ऐसी कथाओं से भरा पड़ा है। एक वार डा० सम्पूर्णानन्द जी ने कहा या यदि देवताओं के चरित ऐसे ही हैं तो उनसे तो हम मानव ही अच्छे हैं।
विषुवान प्रजापति ने जव रोहिणी पर अपना आसन जमाया तो अग्न्याधान का नक्षत्र रोहिणी हो गयी।
तैत्तिरीय उपनिषद ने रोहिणी में अग्न्याधान को समृद्धि कारक बताया है :
प्रजापतिः रोहिण्यामग्निमस्सृजत। तं देवा रोहिण्यामादधत। ततो वै ते सर्वान् रोहानरोइन्। तदू रोहिण्य रोहिणोत्वम्। रोहिण्यामग्निमाधत्ते ऋध्नो- त्येव । सर्वान् रोहान् रोइति।
(तै. ब्रा. १।२२)
प्रजापति ने रोहिणी में अग्नि उत्पन्न किया उस अग्नि का आधान देवों ने रोहिणी में किया। तब वे सभी समृद्धि को प्राप्त हुये। यही रोहिणी में अग्न्याधान् करता है वह ऋद्धि करता है। और सभी प्रकार के अभ्युदयों पर आरूढ़ होता है। वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर संवत्सर को प्रजापति कहा गया है और विषुवान को उसका मध्य भाग।
संवत्सर की पुरुष से उपमा देकर उसका शिर विषुवान कहा गया है तथा उसका पूर्वार्द्ध दाहिना अंग तथा उत्तराद्धं वाया अंग माना गया है।
यथा वै पुरुष एवं विषुवांस्तस्य यथा दक्षिणोऽर्द्ध एवं पूर्वार्दों विपुत्रतो यथोत्तरार्द्ध एवं मुत्तरोऽर्थों विषुवतस्तस्मादुत्तर इत्याचक्षते प्रवाहुक सतः शिर एवं विषुवान्।
(तै० ब्रा० १८।२ )
पश्चिम की ओर गतिशील विषुवान् जब रोहिणी से हटकर कृत्तिका पर आया तो बंदिक काल में गोलीय ज्योतिष का स्वरूप निर्धारित किया गया। गणना का प्रथम नक्षत्र कृत्तिका मान ली गई। कृत्तिका में अग्नयाधान के लिये मान्यता मिल गई सौभाग्य से इस परिवर्तन के साथ किसी देवता की चर्चा नहीं जोड़ी गई।
भारतीय फलित ज्योतिष के अनेक विषय आज भी कृत्तिकादि गणना पर आधारित हैं। कृत्तिका नक्षत्र में अग्नयाधान के पीछे एक गोलीय चमत्कार जुड़ा हुआ है। कृत्तिका में अग्नयाधान की व्यवस्था के साथ ही उसे गोलीय दृग्विषय (Phenamenae) का भी वर्णन शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध होता है। जैसे-
एकं द्वे त्रीणि चत्वारि वा अन्यानि नक्षत्राण्यथैता एव भूयिष्ठा यत्कृत्तिका स्तद् भूमानमेवैतदुपैति तस्मात कृत्तिकास्त्राद धीत॥ २॥
एता ह वै प्राच्यै दिशो न च्यवन्ते सर्वाणि हवा अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्यै दिशश्च्यवन्ते। तत्प्राच्यामेवास्यै तदृिश्याहितौ भवतस्तमात् कृत्तिकास्वादधीत।
(शतपथ ब्रा० २।१।२)
आशय यह है कि अन्य सभी नक्षत्र एक दो, तीन अथवा चार हैं, किन्तु ये कृत्तिकायें बहुत सी हैं। अतः (इनमें अग्न्याधान करने वाला) मानव इनका बहुत्व प्राप्त करता है, इसलिए कृत्तिका में अग्न्याधान करना चाहिए। ये पूर्व दिशा से च्युत नहीं होती, पर अन्य सभी नक्षत्र पूर्व दिशा से च्युत हो जाते हैं। अतः इनमें अग्न्याधान करने से पूर्व में दो अग्नियां आहुत हो जाती हैं। अतः कृत्तिका में अग्न्याधान करना चाहिए।
कृत्तिकाओं के पूर्व से च्युत न होने का अर्थ है कि उनका पूर्व में उदय होगा। जो नक्षत्र या ग्रह विषुवद् वृत्त में होता है उसका उदय पूर्व बिन्दु में होता है यह गोलीय त्रिकोण गणित से सिद्ध है। अतः स्पष्ट है कि उस समय शुल्ब सूत्रों में वर्णित दिङ्निर्धारण की विधि का सम्यक् (भरपूर) उपयोग होता था। जो ग्रहों की आँकाशीय स्थिति जानने के लिये प्रथम साधन है। इससे एक और बात ज्ञात होती है कि पृथ्वी का कन्दुकवत् गोल होना वैदिक काल मैं ज्ञात हो चुका था।
ऋग्वेद संहिता (काल में ही यह तथ्य अवगत हो चुका था) का निम्नांकित मन्त्र को देखिये।
चक्राणासःपरिणाहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः।
न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परिस्पशो अधात् सूर्येण।।
~ ऋग्वेद (१।३३।८)
सुवर्ण की मणि से शोभित (वृत्रासुर के दूत) पृथ्वी की परिधि के चतुदिक् दौड़ कर चक्कर लगाते हुये इन्द्र को न जीत सके। फिर इन्द्र उनको सूयं से आच्छादित कर दिया। पृथिवी निराधार है, इसके लिये ऐतरेय उपनिषद कहता है :
स वा एव न कदाचनास्तमिति नोदेति। तं यदस्त मेतीति मन्यन्तेऽ हु एब तदन्तमित्वाऽथात्मानं विपर्यस्यते। रात्रिमेवावस्तात् कुरुतेऽद्दः परस्तादथ यदेनं प्रातरुदेतीति मन्यन्ते रात्रेरेव तदन्त मित्वा थात्मानं विपर्यस्यतेऽ हरेवा- बस्वात् कुरुते रात्रिं पुरस्तात्। स वा एष न कदाचन निन्मोचति।।
(एतरेय ब्रा० १४।६)
वह सूयं न कभी अस्त होता और न उदित होता है। उसको जो अस्त होता है ऐसा मानते हैं वह दिन का अन्त करके अपने को उलट देता हैं। इधर रात करता है बौर उधर दिन। अब जो यह प्रातः उगता है ऐसा मानते हैं वह रात के ही अस्त में पहुँच कर अपने को उलटा घुमा लेता है। इधर दिन करता है और उधर रात।
अतः वास्तव में वह सूर्य कभी अस्त नहीं होता। (वक्ता अपने को सूर्य की ओर मान कर कह रहा है।
जिस समय छत्तिकाओं का पूर्व में उदय देखा गया था वह समय इस्वी सन् से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व सिद्ध होता है। कृत्तिका का उत्तरी शर ( Latitud) ४°।३’ है। अतः कृत्तिका तारापुंज जव विषुषद वृत्त में होगा तब शर तुल्य कान्ति से क्रान्ति वृत्तीय चापांश जितना उपलब्ध होगा उतना पहले वसन्त सम्पात रहा होगा।
कृत्तिका का भोगांश ३९°।८’ इसमें ४°।३’शर का भोगोश १०° अंश जोड़नेपर ४९°।१२’ हुआ इसमें वर्तमान अयनांश २३।३० जोड़ने पर ७२°।४२’ हुआ। इस पर से प्रति वर्ष अयनांश की गति ५०.२ विकला मानने पर यह समय मान से ५१९३ वर्ष पूर्व आता है। अतः ईस्वी सन् से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व कृतिकाओं का पूर्व में उदय होता था । इससे शतपथ ब्राह्मण का रचना काळ आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व सिद्ध होता है।
उपर्युक्त मन्त्र में वर्तमान काल की क्रिया से यही स्पष्ट है। रोहिणी पर बसन्त सम्पात के आरम्भ का समय इससे एक हजार वर्ष पूर्व हटने के कारण आठ जून को वसन्तारम्भ का समय आज से लगभग छः हजार वर्ष पुरातन है।
गोलीय गणित से एक बात और स्पष्ट है कि जिस नक्षत्र का शर रवि की परम- क्रान्ति से अल्प होगा वह बसन्त सम्पात के चक्रभ्रमण आवत्त) काल में एक बार विषुवत् वृत्तमें अवश्य अयेगा। इससे यह भी स्पष्ट है कि लगभग ५°।३०’ दक्षिण शर वाली रोहिणी भी आजसे लगभग १९ हजार वर्ष पूर्व विषुवद् वृत्तमें रही होगी। उस समय उसका भी पूर्व में उदय होता होगा। किन्तु वैदिक साहित्य में कहीं भी रोहिणी के पूर्व में उदय होने की बात नहीं कही गयी है।
यही नहीं अत्यल्प शर वाले पुष्य और मघा भी आज से लगभग १० हजार और बारह हजार वर्ष पूर्व विषुवद वृत्त में रहे होंगें और उनका भी उदय पूर्व विन्दु में होता होगा। किन्तु इस घटना का भी उल्लेख हमारे वैदिक साहित्य में नहीं है। जान पड़ता है कि कृत्तिकाओं का पूर्व में उदय एक ऐसी घटना थी जिसने नक्षत्र गणना का प्रारम्भ कृत्तिका से करने के लिए लोगों का ध्यान आकृष्ट किया।
यद्यपि पहले मृगशीर्ष और रोहिणी में भी अग्न्याधान होता रहा किन्तु कृत्तिका में अग्न्याधान के समय से ही नक्षत्रों के देवता कल्पिन करने की ओर लोगों की प्रवृत्ति रही, फलतः अग्न्याधान का नक्षत्र कृत्तिका ही अग्नि देवता वाला तथा नक्षत्र गणना के लिए प्रथम नक्षत्र के रूप में स्वीकृत हुआ। यजुर्वेद तीत्तरीय संहिता में कृत्तिका से आरम्भ कर सभी नक्षत्रों के देवता और तेंत्तिरीयब्राह्मण में उनमें सूर्य के स्थितिकाल के कुछ फल का भी विवेचन हुआ है उनका भावार्थ स्पष्ट नहीं होता।
कृत्तिकाओं के पूर्व में उदय काल से एक और महत्व पूर्ण घटना का सम्बन्ध आर्यभट ने आविष्कृत किया है। वह है ग्रहों के मध्यम स्थानों का एकत्र होना।
आर्यभट ने इस काल का नाम कलियुगादि रखा है। सन् १९८० में उस कलियुगादि सं ५०८१ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। आर्यभट ने ४३२०००० वर्षों का एक महायुग माना है और इस महायुग में सभी ग्रहों के बावत्तकाल (Revoelution Period) अथवा भगण पूति कालों की संख्या पूर्ण मानी गई है।
यही नहीं, वे सभी संख्यायें दो से अपत्तिव हो जाती हैं। परिणामतः ४३२०००० बर्षों के एक युग चरण में कलियुगादि से पूर्व पांच युग चरण सत्ययुन के अन्त तक हो जाते हैं। इससे कलियुगादि में ग्रहीं के पूर्ण आवत्तों की जैसी स्थिति थी वही सत्ययुगान्त (कृतयुगान्त) में भी होगी। सूर्यसिद्धान्तकार ने इसीलिए लिखा है :
अस्मिन् कृतयुगस्यान्ते सर्वे मध्यगता ग्रहाः।
विनेन्दुपातमन्दोच्चान् मेषादौ तुल्यतां गताः।
मकरादौ शशांकोच्च तत्पातस्तु तुलादिगः।
निरंशत्वं गताश्चान्ये ये प्रोक्ता मन्द चारिणः।।
अर्थात् इस सतयुग के अन्त में चन्द्रमा के पात ( राहू) और मन्दोच्च को छोड़ सभी ग्रह मेष के आदि में तुल्य हो गये। चन्द्रमा का उच्च मकर के आदि में तथा उसका पात तुला के आदि में रहा। और जो अन्य धीरे चलने वाले (शनि, गुरु, भीम) हैं वे निरंश हो गये, अर्थात् ए अंश से भी कम मेषादि में रहे। आर्यभट की इसी उपलब्ध कलियुगादि की ग्रह स्थिति को सभी ज्योतिष सिद्धान्तग्रन्थकारों ने अपनाया है और एक महायुग को सावन दिन (civil days) की संख्या में ग्रहों के पूर्ण आवर्त्तं की संख्यायें पढी़ हैं। वर्षमान की भिन्नता के कारण युग दिन संख्या में भी भेद है।
आगे की ग्रहस्थितियों में अन्तर का कारण भी यही है। इसका आगे विचार किया जायेगा। पी० सी० सेन गुप्त ने लिखा है कि आर्यभटीय के निर्माण काल में मध्यम ग्रह वास्तविक थे। पीछे इनमें अन्तर उपलब्ध हुआ यह कहाँ तक ठीक है इसका भी विचार किया जायेगा।
उपर्युक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट हो गयी कि वैदिक काल में ही सिद्धान्त ज्योत्तिष की वास्तपिक नीव पड़ गयी थी। व्यावहारिक काल गणना के लिये सूयं, चन्द्र को गतियों से सम्बन्धित तिथि, नक्षत्र, मास, ऋतु, अयन आदि काल विभागों का अपेक्षित शुद्ध मान निर्धारित किया जा चुका था। यही नहीं, वैदिक संस्कारों के लिये चन्द्र नक्षत्रों, तिथियों और अयनों से संबन्धित मुहुर्त की व्यवस्थायें भी ऋग्वेद के मन्त्रों में उपलब्ध होती हैं। सूर्य की पुत्री सूर्या का विवाह चन्द्रमा से हुआ।
इसमें दहेज ले जाने और कन्या के विवाह के लिए चान्द्र नक्षत्रों का वर्णन निम्नांकित ऋग्वेदी मन्त्र में देखिये :
सूर्याया बहुतुः प्रागात् सविता यमवास्सृजत्।
अघासु हन्यन्ते गावोर्जुन्योः पर्युह्मते।।
(ऋग्वेद सं. १०/८५/१३)
सविता ने सूर्या के लिए जो दहेज दिया था वह पहले चला गया। (उस दहेज रूप) को अघा मधा में हाँकते हैं और पूर्वा फाल्गुनी में विवाह होता है। यहाँ हन्यन्ते का अर्थ नारना नहीं किन्तु ले जाना है। हन् धातु हिंसा और गति दोनों अर्थों में है। (हन् हिंसा गत्योः) तौत्तिरीय ब्राह्मण (१।५।१) में नक्षत्रों के देवता और प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि पूर्वा फाल्गुनी के देवता अर्थमा हैं इसमे एक और जाया होती है और दूसरी ओर बैल होता है उत्तरा।
फाल्गुनी का भग देवता होता है। इसके एक ओर बहतु (दहेज की वस्तु) होती है और दूसरी ओर उसको ढोने वाले होते हैं। ये दोनों ही नक्षत्र वेदकाल के वैवाहिक नक्षत्र कहे गय हैं। तब यह प्रथा थी कि आर्ष विवाह में वर से ही एक सांड़ और गाय लेते थे तथा ब्राह्म विवाह में कन्या का पिता ही गाय और सांढ़ वर को दिया करता था। सूर्या का विवाह ब्राह्य विधि से हुआ था आज यही प्रथा सर्वमान्य हो गयी है।
पूर्वा फाल्गुनी आज विवाह का नक्षत्र नहीं हैं। क्योंकि भगवती सीता का विवाह उसीमें हुआ था किन्तु उन्हें सुख नहीं मिला। तब से यह विवाह के लिए अनर्ह घोषित कर दिया गया उसके बदले में मघा नक्षत्र को वह स्थान दिया गया। इन मन्त्रों से नक्षत्रों में विवाह करने का निर्देश चन्द्रमा से युक्त नक्षत्र वाले दिन से है। अधा का अर्थ हुआ वह दिन जब चन्द्रमा मत्रा नक्षत्र में हो।
दिनों का नाम चान्द्र नक्षत्रों से संकेतित करने की प्रणाली ऋगवेद काल से ही चली आती है। पाणिनि के समय तक इनमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पाणिनि व्याकरण में इसके लिए स्पष्ट निर्देश है। रविवार आदि वारों के नाम उसमें कहीं भी नहीं है। महाभारत युद्ध के अन्त में जब बलराम जी तीर्थ यात्रा से लौटे सो उनसे पूछा गया कि आप कितने दिनों तक यात्रा में रहे ? इस पर उन्होंने कहा कि मैं पुष्य में यात्रा किया और श्रवण में आ गया हूँ। इस प्रकार ४२ दिन व्यतीत हुए हैं।
पुष्येण प्रम्प्रयातोऽस्मि श्रवणे पुनरा गतः।