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अस्तित्व चिंतन : परिंदे !

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 डॉ. ज्योति

     _शरद रुत तनहाई की ख़ान है , परिंदे तक उदास हो जाते हैं । उनके आवाज़ की  खनक टूटी हुई लगती है । घुघ्घू के फूलते पिचकते कंठ से निकली घू ssss घूsssss की वेदना , बांस की फुनगी पर बैठा कौवा ग़ौर से सुनता है , जब सह  नहीं पाता तो उड़ जाता है , बग़ैर कुछ बोले । रात में कब परिजात शिवली  में जाता है , कब सफ़ेद को गुलाबी सोखते सोखते झरने लगता है , इसका मर्म केवल  चादनी जानती है , और न कोय।_ 

          परिजात शिवली , शिवली परिजात यह खेल रात भर चलता है , चाँदनी पूरे वेग से लपकती है परिजात  की तरफ़ , आकर चुपचाप बैठ जाती है डार के छोर पर लेकिन इतना भी भार उसे नहीं सहा जाता , लुढ़क कर नीचे जा गिरता है।

        परिजात श्राप देता है – चाँदनी ! झरोगी तुम भी , रात भर  झरोगी , अल सुबह जब तुम्हें तलाशते  हुए  सूरज आयेगा तो दूब के  विस्तार पर तुम्हें रंगेहाथ पकड़ लेगा , घास के दमकते मुखमण्डल पर तुम्हारा चमकना  सूरज को अंदर तक झकझोर जायगा और , तुम सँभलो तब  तक वह उठ चुका होगा , यह कहते हुए – चाँदनी ! तुम अपने झड़े हुए स्वेत बूँदों पर मत इतराओ , अभी आता होगा हल – बैल लिये किसान , नंगे पैर के खुरदुरे तलवे से , दूब समेत तुम्हें रौंद कर , माटी की कोख में तीसी का बीज डाल देगा और  बग़ैर किसी फल आकांक्षा के चुपचाप चला जायगा अपने ड्योढ़ी  पर। 

तब तक सूरज आ चुका होगा , दोनों बतियायेंगे दुनिया जहान की बातें – परू की तरह धोखा मत दिहा सूरज भगवान ! ख़याल रखअ , अबकी साल , चैत नौमी के पूजन  करब बिधि बिधान से।

       बात अभी चलती , लेकिन इसी इन वक्त पर किसी को गरियाते , हथहो देते मंझारी देखाय  पड़ गई – 

   – आव भौजाई बड़ा मोटका काजर लगाये अहू ! 

       – भिऊरहा वाली छोटकी पतोहिया पोत दिहिस , कल तुलसी ब्याह  रहा न ? कातिक महीना आ देवर ! तुलसी क महीना , भगवान  विष्णु के साथे तुलसी 

   – बियाह तुलसी क , काजर तोहरी आँखें में , हमरे जमाने में औरते मर्द से काजर लगवाती रहीं.

यहाँ से मामला गाली गलौज  पर चला जाता है। यह नियमित विधान है। गाँव का यह रिश्ता एक दूसरे को संतोषी बना देता है। किसान के गगरी का अन्न ज़मीन में है , बाढ़ आयी , सूखा पड़ा , फ़सल बर्बाद। किसान संतोष कर के बैठ जाता है , पर उदासीन  नहीं है।

     बार बार यही उपक्रम करता है। देश इसी पर टिका है। मंझारी और लम्मरदार की नोक झोंक संताप सोखता है , दुख , अभाव सब। शहर इससे महरूम है। 

     संतोष और उपक्रम की आवृति ही समाज को  स्थायी सुख देते हैं।

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