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अदालतों से बेहतर कार्यप्रणाली बनाने और उस पर अमल करने की उम्मीद

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डॉ हिदायत अहमद खान

यह सिद्ध सत्य है कि विलंब से मिला न्याय भी अन्याय में परिवर्तित हो जाता है। पर क्या किया जाए क्योंकि यह भी सोलह आने सच है कि न्याय की आस में जवान व्यक्ति अदालत के दरवाजे खटखटाता है और उसके बाद उसका पोता कोर्ट की सीढ़ियां चढ़ता-उतरता नजर आता है। इस किवदंती को गलत साबित करने के लिए अदालत की लेट-लतीफी पर पुरजोर कार्यवाही करने और एक बेहतर कार्यप्रणाली बनाने और उस पर अमल करने की आवश्यकता सदा से रही है। ऐसा नहीं है कि इस पर कार्य हुआ ही नहीं, लेकिन जो हुआ वह ऊंट के मुंह में जीरा, या ढाक के तीन पात ही साबित हुआ है। नतीजे में देखते ही देखते अदालतों पर पेंडिंग मामलों का बोझ इस कदर लद गया कि अब तो न्यायतंत्र भी कराहते हुए गुहार लगाता दिखाई देता है कि उन्हें भी उत्तम व्यवस्था की दरकार है। ऐसे में नई अदालतें निर्मित करने के साथ ही नए पद स्वीकृत करने और उन पर न्यायाधीशों को नियुक्त करने व अन्य आवश्यकताओं को पू्र्ण करने की मांग भी समय-समय पर उठती रही है। इन सब की पूर्ति का यदि समय ही निर्धारित हो जाए तो अदालत से नाउम्मीद हो चुके लोगों में भी समय पर न्याय मिलने की उम्मीद फिर से जाग सकती है। यह तो रही बात व्यवस्था की, लेकिन पिछले कुछ समय से देखने में यह भी आ रहा है कि अदालतें मामलों की सुनवाई करते हुए फैसला सुनाने की बजाय उपदेश ज्यादा देती नजर आ जाती हैं। इसे लेकर भी कहा जा रहा है कि अदालतों का कार्य उपदेश देना नहीं बल्कि आदेश देने का है, जिसे उन्हें पूरी जिम्मेदारी से करना चाहिए ताकि पीड़ित पक्ष को समय पर न्याय मिल सके।
यहां हम किसान आंदोलन की ही बात कर लें, जिसने सारे देश को मथ कर रख दिया है। अपनी विभिन्न मांगों को लेकर आंदोलनरत् किसान 13 फरवरी को दिल्ली कूच का ऐलान करते हैं। राज्यों की सरकारें उन्हें रोकने के लिए सीमाओं को पुलिस छावनी में तब्दील कर ऐसे इंतजाम करती नजर आती हैं, जैसे किसी दुश्मन देश से जंग होने वाली है। केंद्र सरकार बातचीत के रास्ते खोलती है और किसान नेता भी बातचीत को सदा तैयार नजर आते हैं, लेकिन बात बनते-बनते रह जाती है। इसी बीच किसी बात को लेकर हिंसा भी होती है और बेकसूर की जान भी चली जाती है। किसान आंदोलन के बीच शुभकरण की मौत भी ऐसा ही कुछ मामला है, जिसे लेकर चंडीगढ़ हाईकोर्ट ने रिटायर्ड जज की अगुवाई में तीन सदस्यीय समिति गठित कर जांच के आदेश दिए हैं। इसके अतिरिक्त अदालत ने जो कहा और जो सुना वह काबिले जिक्र जरुर है। किसान आंदोलन मामले की सुनवाई कर रहे हाईकोर्ट ने पंजाब और हरियाणा सरकार को इस बात के लिए जमकर फटकार लगाई है कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को बखूबी नहीं निभाया है। अब जबकि अदालत यह कह रही है कि राज्य सरकारें जिम्मेदारी निभाने में असफल साबित हुई हैं तो इसका खामियाजा किस-किसने भुगता, उस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। दरअसल खरबूजा छुरी पर गिरे या छुरी खरबूजा पर कटना तो आखिर खरबूजा को ही है। ऐसे में आंदोलन का असर आमजन पर ही पड़ता है और उसे ही तरह-तरह की परेशानियों से जूझना पड़ता है। इसलिए फैसला लेते समय आमजन का खास ध्यान रखा जाना चाहिए।
वैसे यह बात भी साफ है कि आंदोलन तभी खड़े होते हैं, जबकि मांगकर्ताओं को यह लगने लगता है कि उनकी बात सुनी नहीं जा रही है या उनके साथ अन्याय हो रहा है। इसलिए आंदोलन की जिम्मेदारी बहुत हद तक शासन-प्रशासन की हो जाती है। इस बार किसान आंदोलन में शामिल संगठनों ने 13 फरवरी दिल्ली कूच का ऐलान किया था, लेकिन आज तक इस समस्या का कोई समाधान हासिल नहीं हो सका है। किसानों के आंदोलन को देश के करीब 200 किसान संगठनों ने समर्थन दिया हुआ है। जहां तक मांगों की बात है तो प्रारंभ से ही किसान एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी के अलावा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात करते आए हैं। किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए पेंशन, कृषि ऋण माफी की मांग भी इसमें शामिल है। समय के साथ नई मांगें भी जुड़ती चली जा रही हैं, लेकिन यह आज-कल की बात नहीं है। दरअसल देश में किसानों द्वारा विरोध प्रदशर्न अगस्त 2020 में तीन कृषि बिलों को पहली बार सामने रखे जाने के साथ ही शुरू हुआ था। संसद ने सितंबर 2020 में किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा विधेयक पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक पारित किया था। राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने भी संसद द्वारा पारित तीनों विधेयकों पर अपनी सहमति दर्ज करा दी थी। इसके बाद ही किसानों ने इस बिल का विरोध करते हुए तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर दिल्ली की सिंधू और टिकरी बॉर्डर पर आंदोलन प्रारंभ किया था। असल में किसानों को डर है कि ये कानून उनके हक में कम और व्यवसायियों के हक में ज्यादा हैं। यदि इन कानूनों पर पूरी तरह अमल हुआ तो कॉरपोरेट सेक्टर का दखल कृषि क्षेत्र में ज्यादा हो जाएगा और किसानों को खासा घाटा होगा। मामला अदालत पहुंचा तो सर्वोच्च न्यायालय ने 12 जनवरी 2021 को तीन कृषि कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी और सरकार और आंदोलनकारी किसानों के बीच गतिरोध को समाप्त करने के लिए चार सदस्यीय समिति का गठन भी कर दिया। हद यह है कि पंजाब, छत्तीसगढ़, दिल्ली, राजस्थान, केरल और पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों ने पहले ही तीनों केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पारित कर अपनी मंशा जाहिर कर दी। यहां 19 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि कानून को वापस लेने का भी एलान कर दिया।
बावजूद इसके लोकसभा चुनाव 2024 से पहले एक बार फिर किसान आंदोलन खड़ा हो गया और चहुंओर इसकी चर्चा भी होने लग गई। फिलहाल किसानों के मामले में फैसला लेने की स्थिति में कोई नजर नहीं आया है। फिलहाल चंडीगढ़ एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने भी सरकारों को जहां फटकार लगाई है वहीं किसान नेताओं और उनकी तरफ से अदालत में खड़े वकीलों को भी खूब खरी-खोटी सुनाते हुए उपदेश दे दिया है, लेकिन सवाल यही उठ रहा है कि क्या इससे समस्या का समाधान हो गया या आगे हो सकता है? कहते हैं किसी भी समस्या का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन जब राह न मिले तो अदालत का दरबाजा खटखटाया जाता है। ऐसे में अदालतों से अब उपदेश की उम्मीद किसी भी पक्ष को नहीं है, बल्कि बेहतर आदेश की सभी राह देख रहे हैं।

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