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*शब्द~ब्रह्म के विस्तार का विवेचन*

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       ~ डॉ. विकास मानव

   शब्दतत्त्व और अर्थविज्ञान के सूक्ष्म तत्त्वों का वेद, ब्राह्मण, उपनिषद् एवं निरुक्त में जो वर्णन मिलता है, उसका उल्लेख करते हुए यह लिखा गया है कि वेद ब्राह्मण आदि शब्द को ब्रह्म मानते हैं। वाक्शक्ति के द्वारा इस संसार की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं। वेदादि में जो शब्दशक्ति या वाक्शक्ति का निरूपण मिलता है, वह एकत्र और दार्शनिक विवेचन के रूप में संगृहीत नहीं मिलता है।

      वैयाकरणों ने उन शब्द और अर्थ सम्बन्धी तथ्यों को एकत्र करके दार्शनिक विवेचन द्वारा स्पष्ट किया है। पतञ्जलि ने जिसको दार्शनिक रूप दिया, उसको भर्तृहरि ने और तदनन्तर हेलाराज नागेश आदि ने अपने सुविशद विवेचन के द्वारा व्याकरण-दर्शन के पद पर प्रतिष्ठापित किया है।

     भर्तृहरि की विवेचन पद्धति सर्वथा दार्शनिक है । वाक्यपदीय में जो शब्द और अर्थ का विवचन प्राप्त होता है, वह व्याकरण तक ही सीमित नहीं है । भर्तृहरि ने समस्त ग्रन्थ में तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है। मीमांसा, न्याय आदि वैदिक दर्शनों तथा बौद्ध, जैन आदि अवैदिक दर्शनों का स्थल स्थल पर निर्देश किया है और उनके सिद्धान्तों का व्याकरणदर्शन की दृष्टि से विवेचन और परीक्षण किया है।

       भर्तृहरि तुलनात्मक विवेचन और अध्ययन के महत्त्व पर लिखते हैं कि विभिन्न आगमों के सिद्धान्तों के पर्यालोचन से प्रज्ञा विवेक को प्राप्त होती है। अन्य शास्त्रीय सिद्धान्तों का अध्ययन किए बिना केवल स्वशास्त्रीय तर्क से उन्नति नहीं हो सकती है। 

  प्रज्ञाविवेकं लभते भिन्नैरागमदर्शनैः।

 कियद् वा शक्यमुन्नेतुं स्वतर्कमनुधावता।।

(वाक्य० २.४९२)

 पुण्यराज ने इसकी व्याख्या करते हुए तुलनात्मक अध्ययन और विवेचन की महत्ता का प्रतिपादन किया है और लिखा है कि असंदिग्ध रूप से स्वसिद्धान्तों को परिष्कृत करने की शक्ति विभिन्न शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त होती है।

  निःसंदिग्धं स्वसिद्धान्तमेव संपरिष्कर्तुं भिन्नागमदर्शनै: शक्तिर्जायते।

           शब्द-विवर्तवाद और शब्द- परिणामवाद : भर्तृहरि ने अपने ग्रन्थ का प्रारम्भ शब्दब्रह्म के स्वरूप के वर्णन से ही किया है। शब्दब्रह्म आदि और अन्त से रहित है, अक्षर है, उसका ही अर्थ के रूप में विवर्त होता है, जिससे इस संसार का कार्य चलता है।

अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् ।

 विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः।

            (वाक्य० १.१)

शब्दब्रह्म का ही पारिभाषिक नाम स्फोट है, (मंजूषा० पृ० ३९०)। वैयाकरण स्फोटवाद के समर्थक हैं स्फोट अनादि, अनन्त और अक्षर है। उसका ही विवर्त अर्थ है। परिणाम और विवर्त दोनों शब्दों में पारिभाषिक अन्तर है। “विवर्त” अतात्विक ज्ञान (भ्रम, माया) को कहते है, यथा- शुक्ति में रजतबुद्धि विवर्त है।

     ‘परिणाम’ तात्त्विक विकार को कहते है, यथा-दुग्ध का दधि रूप होना। भर्तृहरि अर्थ को शब्द का विवर्त मानते हैं। पुण्यराज ने बल दिया है कि भर्तृहरि का मन्तव्य पारिभाषिक विवर्त ही है और अर्थ को शब्द का विवर्त बताते हुए लिखा है कि एक ही वस्तु का अपने स्वरूप से च्युत न होते हुए भिन्न रूप में असत्य ज्ञान विवर्त है, यथा-स्वप्नगत वस्तु का दर्शन।

  एकस्य तत्त्वादप्रच्युतस्य भेदानुकारेणासत्या विभक्तान्यरूपोपग्राहिता विवर्तः।

(पुण्यराज, वाक्य० १.१ की टीका)

अतस्त्वतोऽन्यथाप्रथा विवर्त इत्युदीरितः। 

स तत्त्वतोऽन्यथाप्रथा विकार इत्युदीर्यते।।

          (वेदान्तरसार)

विवर्त शब्द का प्रयोग साधारणतया संस्कृत साहित्य में पारिभाषिक अतात्विक विकार के अर्थ में नियमित रूप से न होकर परिणाम या विकार के अर्थ में भी प्राप्त होता है। भर्तृहरि ने उपर्युक्त श्लोक में विवर्त शब्द का प्रयोग किया है, परन्तु इसी भाव को व्यक्त करते हुए अन्यत्र परिणाम शब्द का प्रयोग किया है।

  शब्दस्य परिणामोऽयमित्याम्नायविदो विदु।

   शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह में भर्तृहरि के ‘अनादिनिधनम्० श्लोक का अनुवाद करते हुए विवर्त शब्द के स्थान पर परिणाम शब्द का प्रयोग किया है। 

 नाशोत्पादसमालीढं ब्रह्म शब्दमयं च यत्।

 यत् तस्य परिणामोऽयं भावप्रामः प्रतीयते।

     जयन्त ने न्यायमञ्जरी में शब्दविवर्तवाद और शब्दपरिणामवाद दोनों का खण्डन किया है, इससे ज्ञात होता है कि यह दोनों ही बाद व्याकरणों के अभिमत है। शब्दविवर्तवाद के अनुसार यह अर्थरूप संसार शब्द का विवर्त अर्थात् अतात्त्विक रूप है। शब्दपरिणामवाद के अनुसार यह अर्थरूप संसार शब्द का परिणाम या विकार है। प्रथम मतानुसार अर्थ की सत्ता अवास्तविक है और द्वितीय मतानुसार यह वास्तविक है।

 शब्दब्रह्म और सृष्टि: भर्तृहरि का कथन है कि शास्त्रज्ञों का मत है कि यह संसार शब्द का ही परिणाम स्वरूप है। सृष्टि के आदि में यह विश्व छन्दोमयी वाक् से ही विवर्त को प्राप्त हुआ है।

शब्दस्य परिणामोऽयमित्याम्नायविदो विदुः।

 छन्दोभ्य एव प्रथममेतद् विश्वं व्यवर्तत।”

        (वाक्य० १.१२०)

श्रुति का कथन है कि वाक्शक्ति ही संसार को उत्पन्न करती है। वाणी से ही अविनाशशील और विनाशशील समस्त संसार की सृष्टि होती है।

  वागेव विश्वा भुवनानि जझे, वाच इत्सर्वममृतं यच्च मर्त्यम्।

(वाक्य० १.१२१ की टीका)

      भर्तृहरि शब्द की तीन अवस्थाओं को मानते हैं, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। नागेश ने जिसको चतुर्थ अवस्था अर्थात् ‘परा’ नाम दिया है, उसको भर्तृहरि तृतीय अवस्था अर्थात् पश्यन्ती अवस्था मानते हैं, उसी से इस संसार की सृष्टि होती है।

  वैखर्या मध्यमायाश्च पश्यन्त्याश्चैतदद्भुतम्।

 अनेकतीर्थभेदायास्त्रय्या वाचः परं पदम्।।

(वाक्य० १.१४३)

 शिवदृष्टि ग्रन्थ का उद्धरण मिलता है, जिसमें यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित है कि पश्यन्ती ही शब्दब्रह्म है और उसी को परा वाक् कहते है। वही अनादि और अक्षय है।

 इत्याहस्ते परं ब्रह्म यदनादि तथाऽक्षयम्।

 तदक्षरं शब्दरूपं सा पश्यन्ती परा हि वाक्।”

(वाक्य ० १.१४३ सूर्यनारायण शुक्ल की टीका)

    भर्तृहरि के मतानुसार सृष्टि की उत्पत्ति का स्वरूप निम्न है। सृष्टि के आदि में अनादिनिधन, सर्वग्राह्य ग्राहकाकार वर्जित पश्यन्ती वाणीरूप शब्दब्रह्म रहता है। वह अपरिमित शक्तिशाली मायायुक्त होता हुआ प्रथम नामरूपात्मक समस्त प्रपंच को बुद्धि में स्थापित कर यह संकल्प करता है कि यह करूंगा। तब वह अपनी कला नामक स्वतंत्र शक्ति से युक्त होकर आकाश आदि पंचतन्मात्राओं को उत्पन्न करता है, उससे पञ्चभूतों की सृष्टि होती है और तदनन्तर समस्त सृष्टि का विस्तार होता है। सृष्टि का विकास शब्दब्रह्म से होता है और उसी में वह सृष्टि लीन होती है।

   तथेदममृतं ब्रह्म निर्विकारमविद्यया।

 कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं विवर्तते।।

 ब्रह्येदं शब्दनिर्माणं शब्दशक्तिनिबन्धनम्।

 विवृतं शब्दमात्राभ्यस्तास्वेव प्रविलीयते।

    (वाक्य० १.१ की टीका)

 परब्रह्म और शब्दब्रह्म नागेश परब्रह्म और शब्दब्रह्म को एक नहीं मानते। शब्दब्रह्म की अक्षयनित्यता को न मानते हुए नागेश तान्त्रिक मत से विशेष प्रभावित है वे शब्दब्रह्म का तान्त्रिक मतानुसार निरूपण लघुमंजूषा में करते हैं। शब्दब्रह्म की उत्पत्ति का वर्णन निम्नरूप से किया है। (पृ० १६८-१७४)

      महाप्रलय के समय भुक्तभोग्य समस्त प्राणियों का माया में लय हो जाता है और माया चेतन ईश्वर में लीन हो जाती है। लय का अर्थ सर्वथा नाश और अप्रतीति नहीं है, अन्यथा सृष्टि की उत्पत्ति नहीं हो सकती। प्राणियों के कर्म जब अपरिपक्व अवस्था से कालवशात् परिपक्वावस्था को प्राप्त हो जाते हैं, तब उनको फलप्रदान करने के लिए परमात्मा की इच्छा जगत् की सृष्टि करने की होती है। यह जगत् की सिसृक्षात्मिका (निर्माणकर्णी) वृत्ति-माया है उस मायावृत्ति से बिन्दुरूपी अव्यक्त त्रिगुणात्मक (सत्वरजस्तमोगुणात्मक) उत्पन्न होता है। इसी को शक्ति तत्त्व कहते है। इसके तीन विभाग हुए बीज, नाद और बिन्दु अचित् अंश बीज हुआ।   

       चिदचिन्मिश्रित अंश नाद और चित् अंश बिन्दु हुआ । अचित् शब्द से शब्द और अर्थ दोनों के संस्काररूप अविद्या का ग्रहण है। चित् अंशरूपी बिन्दु से शब्दब्रह्म नामक वर्णादिविशेषरहित, ज्ञानप्रधान, सृष्टि के उपयोगी अवस्थाविशेष-युक्त चेतना-मिश्रित नाद उत्पन्न होता है। यह जगत् की उत्पत्ति का उपादान कारण है, इसी को स्व और परा आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है। यह रव या परा नामक नाद ही शब्दब्रह्म नाम से सम्बोधित किया जाता है।

   बिन्दोस्तस्माद् भिद्यमानाद् रवोऽव्यक्तात्मकोऽभवत्।

 स एव श्रुतिसम्यन्त्रैः शब्दब्रह्मेति गीयते।

     यह सर्वव्यापक होते हुए भी प्राणियों के मूलाधार चक्र में स्थित रहता है। इसमें स्वयं किसी प्रकार की गति नहीं होती। परन्तु जब ज्ञात अर्थ के बोध की इच्छा से प्रयत्न होता है तब उसमें गति होती हैं और उससे शब्द की अभिव्यक्ति होती है।

    नागेश का उपर्युक्त वर्णन प्रपञ्चसार, काशीखण्ड आदि तान्त्रिक ग्रन्थों के अनुसार है। भास्करराय के ललितसहस्रनाम की व्याख्या, शारदातिलक, सूतसंहिता आदि में इसका विस्तार से वर्णन है। 

भर्तृहरि और नागेश में मतभेद : यहाँ पर यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि नागेश ने भर्तृहरि के ‘अनादिनिधनम्’ श्लोक को उद्धृत किया है, परन्तु भर्तृहरि के अनादि और अनन्त शब्दब्रह्म को अनित्य माना है, उसकी उपर्युक्त रूप से उत्पत्ति बताई है। ‘अनादिनिधनम्’ का अर्थ यह किया है कि अर्थ सृष्टि में शब्द के आदि या जन्म की उपलब्धि नहीं होती है, अतः वह अनादि और अनन्त है परन्तु यह भर्तृहरि के सिद्धान्त एवं मत के विरुद्ध है। भर्तृहरि शब्द को सर्वथा अनादि और अनन्त मानते हैं। उनके मतानुसार उसकी उत्पत्ति नहीं होती। शब्दब्रह्म का उत्पत्तिवाद जिसका नागेश ने वर्णन किया है, व्याकरणशास्त्र के सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है।

      यह तान्त्रिक मतानुसार ही है और व्याकरण में इसका प्रवेश नागेश के तान्त्रिक मत की ओर झुकाव का परिणाम है। नागेश के मतानुसार शब्दब्रह्म और परब्रह्म दो भिन्न सत्ताएँ हैं, परन्तु भर्तृहरि के मतानुसार परब्रह्म और शब्दब्रह्म एक ही सत्ता है, दोनों में कोई अन्तर नहीं है। अतएव शब्दब्रह्म की सिद्धि ही परब्रह्म की प्राप्ति होती है भर्तृहरि कहते हैं कि शब्दसंस्कार अर्थात् शब्दों का अपभ्रंशों से विवेचन परमात्मा की प्राप्ति का उपाय है। शब्दों के वास्तविक प्रवृत्तितत्त्व को जानने वाला परब्रह्म को प्राप्त करता है।

   तस्माद् यः शब्दसंस्कारः सा सिद्धिः परमात्मनः। 

तस्य प्रवृत्तितत्त्वज्ञस्तद् ब्रह्मामृतमश्नुते।।

          (वाक्य० १.१३३)

शब्द ही संसार को एक सूत्र में बाँधे हुए है :भर्तृहरि ने शब्दशक्ति की व्यापकता का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। शब्दशक्ति का व्यावहारिक जीवन में क्या उपयोग हैं, इसका भी विशद विवेचन किया है।

    ऋग्वेद (१०.११४.८) ने कहा है कि ‘यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक्’ अर्थात् जितना ब्रह्म व्यापक है, उतनी ही वाग्देवी भी व्यापक है। ऐतरेय, शतपथ, जैमिनीय, गोपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थ उसी वाक्शक्ति को साक्षात् ब्रह्म मानते हुए कहते हैं वाग्ब्रह्म (गो०पू० २.१०), “वाग्वै ब्रह्म” (जै०३०२.९.६), “वाग्वै ब्रह्म च सुब्रह्म च “(ऐ० ६.३) अर्थात् वाक्शक्ति ही ब्रह्म है भर्तृहरि वेदों और ब्राह्मणों में प्रतिपादित वाक्शक्ति या शब्दशक्ति के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए लिखते हैं कि शब्दों में ही यह शक्ति है कि वह संसार को एकसूत्र में बाँधे हुए हैं। शब्द ही नेत्र है, अर्थात् समस्त वस्तुओं का ज्ञापक है। समस्त अर्थ प्रतिभारूप है। शब्द ही वाच्य और वाचक रूप से भिन्न प्रतीत होता है।

   शब्देष्वेवाश्रिता शक्तिर्विश्वस्यास्य निबन्धनी।

 यन्त्रेवः प्रतिभात्मायं भेदरूपः प्रतीयते।।

           (वाक्य० १.११९)

शब्द की व्यवहारोपयोगिता: पुण्यराज ने इसकी व्याख्या में एक श्रुति वचन उधृत किया है। श्रुति का कथन है कि वाक्शक्ति ही अर्थ को देखती है अर्थात् वाक् तत्त्व ही जब बुद्धिरूप विवर्त को प्राप्त होता है। तब अर्थ का ज्ञान करता है। वाक्शक्ति ही बोलती है अर्थात् समस्त व्यवहार की साधनभूत है वाक् शक्ति ही शक्तिरूप से विद्यमान होकर अर्थ को विस्तृत करती है । समस्त संसार नाना रूपों को धारण करता हुआ उसी में निबद्ध है। उसी एक वाक्शक्ति का विभाजन करके समस्त संसारका व्यवहार चलता है।

   वागेवार्थं पश्यति वाग् ब्रवीति वागेवार्थ निहितं सन्तनोति। 

वाचैव विश्व बहुरूपं निबद्धं तदेतदेकं प्रविभज्योपभुङ्क्ते।।

(वाक्य० १.११९ की टीका)

        शब्द की त्रिविध स्थिति: भर्तृहरि का कथन है कि शब्दब्रह्म यद्यपि एक है, वही संसार का बीजरूप है। उसी से संसार की उत्पत्ति होती है। वही त्रिविधरूप में विद्यमान है, अर्थात् भोक्ता, भोक्तव्य और भोग वही है। शब्दब्रह्म ही भोक्ता रूप पुरुष है, भोक्तव्य विषय शब्द ही है और विषयोपभोगजन्यसुखदुःखादि का अनुभव-रूप भोग भी वहीं है । संसार में भोक्ता, भोक्तव्य और भोग रूप में जो कुछ विद्यमान है, वह शब्दब्रह्म है। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। 

   एकस्य सर्वबीजस्य यस्य चेयमनेकधा।

 भोक्तृभोक्तव्यरूपेण भोगरूपेण च स्थितिः।

          (वाक्य० १.४)

अर्थ का आधार शब्द :शब्द के द्वारा ही समस्त भावों की अभिव्यक्ति की जाती है। असमाख्येय (अवर्णनीय) और समाख्येय (वर्णनीय) सब प्रकार के अर्थों के बोध का साधन शब्द ही है। शब्दों के द्वारा ही असमाख्येय पहज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद स्वरों का यथार्थ रूप से विवेचन किया जाता है और समाख्येय गौ आदि अर्थों का भी शब्दों से ही निरूपण किया जाता है। अतएव समस्त अर्थों का आधार शब्द है।

   षड्जादिभेदः शब्देन व्याख्यातो रूप्यते यतः।

 तस्मादर्थविधाः सर्वाः शब्दमात्रासु निश्रिताः।। 

          (वाक्य० १.१२०)

वाचस्पति ने तात्पर्य टीका में इसी भाव को व्यक्त करते हुए लिखा है कि षड्ज आदि स्वरों में शब्द के अपकर्ष से अर्थज्ञान में भी अपकर्म (न्यूनता) होती है। शब्द के उत्कर्ष होने से अर्थज्ञान में भी उत्कर्ष होता है। ज्ञान का उत्कर्ष ज्ञेय के अधीन है। शब्द के उत्कर्ष से अर्थ का उत्कर्ष होता है। अतः शब्द और अर्थ दोनों में तादात्म्य भाव संबन्ध है।

षड्जादिषु शब्दापकर्षे अर्थप्रत्ययापकर्षात् तदुत्कर्षे त्वर्थप्रत्ययोत्कर्षात् प्रत्ययस्य च प्रत्येतव्योत्कर्षत्वात् नामधेयोत्कर्षेणार्थोत्कर्षः अर्थस्य तादात्म्यं कथयति।

विश्व की शब्दरूपता का स्पष्टीकरण : यहाँ पर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होगा कि भर्तृहरि शब्द के अतिरिक्त कुछ नहीं मानते। समस्त संसार को शब्द का ही विवर्त या परिणाम मानते हैं। घटादि को भी शब्द का परिणाम यदि माना जाएगा। तो जिस प्रकार मृतिका के परिणाम घट में मृतिका के स्वरूप की प्रतीति होती है, उसी प्रकार शब्द का परिणाम मानने पर घटादि में शब्द के स्वरूप की प्रतीति होनी चाहिए। भर्तृहरि इस शंका का समाधान करते हुए लिखते हैं कि वस्तुतः समस्त ज्ञान में शब्द के स्वरूप की प्रतीति होती है। संसार में जितना जो कुछ भी लोकव्यवहार है, वह शब्द के ही अधीन है। यदि यह कहा जाय कि नवजात बालक को शब्दज्ञान नहीं है, उसे किस प्रकार प्रतीति होगी। इसके विषय में भर्तृहरि कहते हैं कि बालक भी पूर्वजन्म के संस्कार के कारण शब्दों के द्वारा ही इतिकर्तव्यता को जानता है।

   इतिकर्तव्यता लोके सर्वा शब्दव्यपाश्रया। 

यां पूर्वाहितसंस्कारो बालोऽपि प्रतिपद्यते। 

             (वाक्य ० १.१२१)

 अर्थ के स्वरूप के वर्णन में आगे यह स्पष्ट किया जायगा कि वैयाकरण प्रतिभा को ही वाक्यार्थ मानते हैं। जो कुछ देखा सुना जाता है, उसका ज्ञान प्रतिभा से ही होता है, अतः वस्तुतत्त्व को प्रतिभा का ही नाम देते हुए ‘प्रतिभात्माऽयम्’ कहा है। प्रतिभा का उदय साधारणतया व्यवहार करते समय शब्द के द्वारा होता है। पूर्वजन्म के संस्कार से भी इसका उदय होता है। पशु-पक्षियों आदि में जो ज्ञानशक्ति है, वह भावनामूलक ही है। पूर्वजन्म के संस्कार से ही वह प्रत्येक अर्थ का ज्ञान करते हैं। अतः किसी प्रकार के भी ज्ञान को प्रतिभा से पृथक नहीं कर सकते।

  साक्षात् शब्देन जनितां भावनाऽनुगमेन वा।

 इतिकर्तव्यतायां तां न कश्चिदतिवर्तते।

         (वाक्य० २.१४८)

 ज्ञान की शब्दरूपता : भर्तृहरि कहते हैं कि संसार में ऐसा कोई ज्ञान नहीं है। जो शब्दज्ञान के बिना हो। समस्त ज्ञान शब्द के साथ संसृष्ट सा प्रतीत होता है।

  न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादते।

 अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते।।

          (वाक्य० १.१२३)

शब्द और अर्थ की एकरूपता : भर्तृहरि के उपर्युक्त कथन के मूल में उनका एक निश्चित मत, जो कि वैयाकरणों का सिद्धान्त है, विशेष रूप से स्मरणीय है। भर्तृहरि कहते हैं कि शब्द और अर्थ एक ही आत्मा (स्फोट) के दो स्वरूप हैं। दोनों की पृथक्-पृथक् स्थिति नही है, अर्थात् शब्द और अर्थ अभिन्न रूप से संबद्ध है। इनमें कोई वास्तविक भेद नहीं है। जो बाह्य जगत् में भेद ज्ञान होता है, वह तात्त्विक नहीं है। 

एकस्यैवात्मनो भेदौ शब्दार्थावपृथस्थितौ।।

           (वाक्य० २.३१)

शब्दार्थावभिन्नावेकस्यान्तरस्य तत्त्वस्य सम्बन्धिनौ वस्तुतः बहिः स्थितौ भेदाविव प्रतिभासेते।

               (पुण्यराज)

कविकुलगुरू कालिदास ने इसी भाव को व्यक्त करते हुए प्रसिद्ध श्लोक लिखा है कि शिव और पार्वती इसी प्रकार अभिन्न है, जैसे शब्द और अर्थ |

वागर्थाविव सम्युक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।

 जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।

              ( रघुवंश १.१)

 शब्द और अर्थ का प्रकाश्य-प्रकाशक सम्बन्ध: इस विषय में एक विज्ञासा यह उत्पन्न होती है कि लोक में शब्द और अर्थ का सम्बन्ध वाच्य और वाचक रूप में प्रसिद्ध है। वाच्य और वाचक को सत्ता भिन्न होती है, अतः भर्तृहरि ने दोनों को अभिन्न किस प्रकार बताया है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए भर्तृहरि ने कहा है कि शब्द और अर्थ का वाच्य वाचक-भाव सम्बन्ध नहीं है, अपतु प्रकाश्यप्रकाशकभाव या कार्यकारणभाव सम्बन्ध है। शब्द प्रकाशक है, अर्थ प्रकाश्य है। शब्द कारण है, अर्थ कार्य है। स्फोट के ही शक्तिभेद से दोनों में भेद प्रतीति होती है, अतएव ‘एकस्य सर्वबीजस्य ०’ स्फोट के विषय में कहा गया है। 

प्रकाशक- प्रकाश्यत्वं कार्यकारणरूपता। 

अन्तर्मात्रात्मनस्तस्य शब्दतत्त्वस्य सर्वदा।।

               (वाक्य० २.३२ )

शब्द की प्रकाश रूपता: ज्ञान में प्रकाशशीलता अर्थात् बोधक शक्ति तभी तक है, जब तक कि उसमें वाक्शक्ति (शब्दशक्ति प्रतिभा) विद्यमान है। यदि ज्ञान में नित्य रूप से रहने वाली वाक्शक्ति निकल जाय तो ज्ञान किसी भी वस्तु का बोध नहीं करा सकता। उस अवस्था में ज्ञान की स्थिति ऐसी ही होगी, जैसे चैतन्यहीन आत्मा या तेजोहीन अग्नि की, क्योंकि वाक्शक्ति ही प्रकाशों की भी प्रकाशिका है।

वाग् रूपता चेन्निष्कामेदवबोधस्य शाश्वती।

 न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी।।

             (वाक्य० १.१२४)

 शैव मतावलम्बी विमर्श और प्रकाश को दो तत्त्व मानते हैं। वे विमर्श को प्रकाश का भी प्रकाश मानते है। उसी स्थिति में शब्द को विमर्श रूप ही मानना चाहिए आचार्य दण्डी ने शब्द की उस प्रकाशशीलता को दृष्टि में रखते हुए कहा है कि यदि शब्दरूपी ज्योति इस संसार में न प्रदीप्त रहे तो तीनों लोकों में अन्धकार ही अन्धकार होगा। 

इदमन्धन्तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्।

 यदि शब्दावयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते।

            (काव्यादर्श १.४)

 प्रकाशशीलता के कारण ही शब्द की संसार की तीन ज्योतियों और प्रकाशों में गणना की गई है। श्रुति का कथन है कि इस संसार में तीन ज्योतियाँ और तीन प्रकाश है, जो अपने रूप और पररूप के प्रकाशक हैं। उनमें एक यह जातवेदस (अग्नि) हैं, दूसरा पुरुषों में विद्यमान आन्तरिक प्रकाश (आत्मा) और तीसरा प्रकाश शब्द है, जो कि अप्रकाश और प्रकाश दोनों को प्रकाशित करता है। उसी में यह समस्त चर और अचर जगत् निबद्ध है।

  त्रीणि ज्योतीषि त्रयः प्रकाशाः स्वरूपपररूपयोरवद्योतकाः, तद्यथा योऽयं जातवेदाः, यश्च पुरुषेष्वान्तरः प्रकाशः, यश्च प्रकाशाप्रकाशयोः प्रकाशयिता शब्दाख्यः प्रकाशः, तत्रैतत् सर्वमुपनिबद्धं यावत् स्थास्नु चरिष्णु च।

        (वाक्य० १.१२ की टीका)

शब्दमूलक समस्त ज्ञान: भर्तृहरि का मत है कि संसार का समस्त ज्ञान शब्दमूलक है। अतएव वे कहते हैं कि समस्त विद्याएँ और समस्त शिल्पशास्त्र तथा समस्त कलाएँ (६४ कलाएँ गीत, वाद्य, नृत्य, आलेख्य आदि) शब्दशक्ति से सम्बद्ध हैं शब्द ही वह शक्ति है, जिसके द्वारा उत्पन्न हुई समस्त वस्तुओं का विवेचन और विभाजन किया जाता है।

सा सर्वविद्याशिल्पानां कलानां चोपबन्धनी।

 तद्वशादभिनिष्पन्नं सर्व वस्तु विभज्यते।।

           (वाक्य० १.१२५)

शब्द की चैतन्यरूपता: शब्दशक्ति ही समस्त प्राणियों में चैतन्यरूपसे विद्यमान है। इसकी सत्ता बाहर और अन्दर दोनों स्थानों में है। बाह्यजगत् लोकव्यवहार का साधन है और अन्दर सुख दुःख आदि के ज्ञान के रूप में है। समस्त प्राणिमात्र में ऐसा कोई नहीं है, जिसमें वह शब्दशक्तिरूपी चैतन्य न हो। कोई यह मानते है कि चितिक्रिया वाक्शक्ति के बिना नहीं रहती। अन्य आचार्यों का मत है कि वाक्शक्ति ही चेतना है।

 सैषा संसारिणां संज्ञा बहिरन्तश्च वर्तते।

 तन्मात्रामनतिक्रान्तं चैतन्यं सर्वजन्तुषु।।

            (वाक्य०१.१२६)

 जो कुछ भी लौकिक व्यवहार है, वह वाक्शक्ति के द्वारा ही चल रहा है । वाक्शक्ति ही प्राणियों को प्रत्येक कार्य में प्रेरित करती है। यदि वाक्शक्ति न रहे तो यह समस्त संसार काष्ठ और भित्ति के तुल्य निश्चेतन ही दिखाई पड़ेगा। 

   अर्थक्रियासु वाक् सर्वान् समीयति देहिनः।

 तदुत्कान्ती विसंज्ञोऽयं दृश्यते काष्ठकुडवत्।

              (वाक्य० १.१२७)

भर्तृहरि वाक्शक्ति की जाग्रत् अवस्था में ही प्रवृत्ति नहीं, अपितु स्वप्नावस्था में भी उसकी स्थिति का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि प्रविभाग (जाग्रत् अवस्था) में मनुष्य वाक्शक्ति के द्वारा कार्य में प्रवृत्त होता है। किन्तु स्वप्नावस्था में वही वाक्शक्ति कार्य रूप में विद्यमान रहती है। स्वप्नावस्था में जो कुछ दृश्य हैं तथा जो कुछ विचार आदि होता है, सब वाक्शक्ति का ही रूप है।

    शब्दशक्ति से असद का बोध: शब्दशक्ति न केवल सत्यार्थ का ही बोध कराती है, अपितु असत्य अर्थ का भी बोध शब्दों द्वारा कराया जाता है। यह शब्दशक्ति की ही महिमा है कि वह अत्यन्त असत्य अर्थ का भी बोध कराती है। भर्तृहरि शब्द की इस उभयविध शक्ति का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि स्व-स्वरूप और पर स्वरूप का वाक्शक्ति के द्वारा जिस प्रकार भेद या अभेद रूप में बोध कराया जाता है, वैसे ही वह अर्थ रूढ़ हो जाता है। वाक्शक्ति उस अर्थ को उपस्थित करती है। 

     शब्द के द्वारा ही अभिन्न में भी भिन्नता का बोध कराया जाता है। राहु शिर भिन्न नहीं है, फिर भी ‘राहोः शिरः’ (राहु का शिर) प्रयोग किया जाता है। शशविषाण, खपुष्प आदि असत् अर्थ का भी बोध शब्दशक्ति का माहात्म्य है। श्री हर्ष खण्डन खण्डखाद्य में अतएव कहते हैं कि अत्यन्त असत् अर्थ का भी बोध शब्द कराता है।

   अत्यन्तासत्यपि ह्यर्थे ज्ञानं शब्दः करोति च।

पतञ्जलि योगसूत्र में विकल्पात्मक ज्ञान का लक्षण करते हुए लिखते हैं कि विकल्पात्मक ज्ञान वह है, जो बाह्यार्थ से शून्य हो, जिसकी प्रतीति केवल शब्द ज्ञानमात्र से होती है। ‘शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः (योग० १.९)। भर्तृहरि कहते हैं कि अलातचक्र आदि में जो चक्र आदि का वास्तविक निरूपण किया जाता है, वह केवल शब्दशक्ति के द्वारा ही होता है। 

      शब्द का स्वरूप और अर्थ का विकास: इस शब्द का निवास कहाँ है, इस पर ‘भर्तृहरि का कथन है कि शब्दब्रह्म का निवास वक्ता के हृदय में है। वह महान् ऋषभ अर्थात् है महान् देव है। उसका सायुज्य (ऐक्य) प्राप्त करना ही मनुष्य का इष्ट है। शब्द ही जब तक अविद्या के वश में है, वह जीव रूप होता है। वही अविद्या से रहित शुद्ध ब्रह्म है। 

     पतञ्जलि ने ‘चत्वारि शृङ्गा०’ मन्त्र की व्याख्या करते हुए शब्दब्रह्म रूपी महादेव का निवास मनुष्यों के अन्दर बताया है।

 भागवतपुराण में शब्द के स्वरूप का स्पष्ट वर्णन किया गया है। शब्द ही जीव है, वह विवरों अर्थात् हृदय आदि आकाशों में अभिव्यक्त होता है, वही प्राणवायु के परिणामस्वरूप घोष (ध्वनि) से हृदय, शिर, कण्ठ रूपी गुहा में प्रविष्ट होकर अपने सूक्ष्मरूप को छोड़कर मनोमयरूप अर्थात् अन्तःकरण रूपी विकार को प्राप्त होता है और मात्रा स्वर वर्ण नामों से प्रसिद्धि को प्राप्त होता है।

    स एव जीवो विवरप्रसूतिः प्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्टः। 

मनोमयं सूक्ष्ममुपेत्य रूपं मात्रा स्वरो वर्ण इति प्रसिद्धः।।

    शब्दज्ञान व्याकरण द्वारा :भर्तृहरि शब्द का व्याकरण से क्या सम्बन्ध है, इस पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि समस्त व्यावहारिक क्रियाकलाप के आधार शब्द हैं। व्यवहार शब्दमूलक हैं। किन्तु शब्दों का यथार्थ ज्ञान बिना व्याकरण के नहीं होता । अतएव शब्दों के तात्त्विक ज्ञान के लिए व्याकरणज्ञान आवश्यक है।

    शब्द के दो रूप हैं, एक शब्दत्व और दूसरा साधुत्व । शब्द के शब्दत्व का ज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय से हो जाता है, परन्तु उसके साधुत्व का ज्ञान व्याकरण से ही होता है।

     अत: कुमारिल का यह कथन है कि शब्दों का तात्विकज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय के बिना नहीं होता, ”तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति श्रोत्रेन्द्रियादते ।” यह युक्तिसंगत नहीं है।

 पतञ्जलि ने व्याकरण को शब्दानुशासन नाम से संबोधित करते हुए महाभाष्य का प्रारम्भ किया है। कैयट और नागेश ने शब्दानुशासन शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि यह व्याकरण का अन्वर्थ नाम है, क्योंकि व्याकरण के द्वारा शब्दों का अनुशासन अर्थात् विवेचन किया जाता है। पतञ्जलि ने व्याकरण का विषय लौकिक और वैदिक दोनों प्रकार के शब्दों को बताया है।

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