शशिकान्त गुप्ते
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सरल भाषा में Freedom of expression कहतें हैं।
वाणी की स्वतंत्रता को भी सरल भाषा में Freedom of speech कहतें हैं।
वाणी का शाब्दिक अर्थ होता है, वचन,बात,रसना,मतलब जुबान या जीभ।
संत कबीरसाहब ने अपने दोहे में वाणी के महत्व को समझाया है।
ऐसी वाणी बोलिए,
मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करें,
आपहुं शीतल होएं।।
यह तो संत कबीरसाहब का उपदेश है।
व्यवहारिक दृष्टि से वाणी के महत्व को समझना जरूरी है।
वाणी की स्वतंत्रता मतलब अपने विचारों को निर्भीक होकर निष्पक्षता से प्रस्तुत करना होता है।
जब हम भगवान की आराधना करतें हैं,तब भजन,भक्तिगीत या आरती ऊंची आवाज में गातें हैं।
भगवान की आराधना में निकली हुई ऊंची आवाज को कर्कश नहीं कह सकतें हैं।
जब मंदिरों की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए जोर जोर बोल जाता है।
जोर से बोलो जय माता दी, सारे बोलो जय माता दी इसका मतलब यह कतई नहीं समझना कि, माताजी को सुनाई नहीं देता है।
जब कोई संगठन अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करता है। तब जोर शोर से नारे लगाए जातें हैं।
हमारी मांगें पूरी करो।
नारे लगवाने वाले कहते हैं, इतने जोर से नारे लगना चाहिए कि, सम्बंधित अधिकारी या पदस्थ जनप्रतिनिधि के कानों तक आवाज पहुँचे। इस मुद्दे को स्पष्ट रूप से समझने के लिए, प्रख्यात शायर दुष्यन्त कुमारजी का यह शेर प्रासंगिक है।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
इस शेर में सूरत शब्द से तात्पर्य है, व्यवस्था से। प्रगतिशील विचारक,सदा व्यवस्था परिवर्तन के लिए ही संघर्ष करतें हैं।
सिर्फ सत्ता परिवर्तन से विकास और प्रगति विज्ञापनों में कैद हो जाती है।
यथार्थ में अच्छेदिनों की आस लगाए लोग,यही गुनगुनाने पर मजबूर हो जातें हैं। कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
वर्तमान में वाणी की स्वतंत्रता का उपयोग स्वयं की धार्मिक पहचान को दर्शाने के लिए किया जा रहा है।
इनदिनों धर्म के प्रति इतनी आस्था जागृत हो गई है कि, हम महंगाई की विकराल और बेरोजगारी,भुखमरी,आदि विकट समस्याओं को भूल गएं हैं।
महंगाई को नियंत्रित करने के लिए भलेही कोई तकनीक ईजाद करने कोशिश नहीं की जा रही हो,लेकिन उपद्रवियों के आशियानों पर बुलडोजर नामक विशाल यंत्र,प्रशासनिक तंत्र के आदेश पर जरूर चलाएं जा रहें हैं। यह आलोचना का नहीं प्रशंसा का मुद्दा है।
पूर्व में प्रशासन अधिकारियों के पास इतने सशक्त ढंग कार्यवाही करने का साहस नहीं था।
यह लेख जब लेखक ने अपने मित्र व्यंग्यकार सीतारामजी को ले पढ़कर सुनाया तो सीतारामजी ने लेख को सुनकर लेख पर अपनी समीक्षा प्रस्तुत करते हुए स्वयं के द्वारा स्वरचित रचना सुना दी।
यह रचना सीतारामजी ने 11 ऑक्टोबर 2019 को लिखी थी।
कुदरती जो मूक है,
क्षम्य है वह.
वाणी है,
फिर भी है,
जो मूक दर्शक,
वह अप्रत्यक्ष,
समर्थक है,
अन्याय का।
दृष्टिहीन है,
क्षम्य है वह,
देख कर भी,
गुनाहों,
जो करता नजरअंदाज,
प्रश्रय है उसका,
सभ्यता की आड़ में,
गुनाहों को।
पाढ़क है,
सिर्फ पढ़ता है,
चाट जाता है,
अनेक गर्न्थो को,
मानव के भेष में है,
दीमक।
लेखक है,
बहुत लिखा,
पुस्तकों की भरमार,
लेकिन,
नहीं किया हो,
समाज को उद्वेलित,
वह अक्षम्य है।
चार दीवारी में बैठ कर,
कोसना,
दूषित व्यवस्था को,
अपनी कुंठाओ,
सिर्फ करना शांत।
यह आचरण
अपने फर्ज से मुँह मोड़ना
इसीलिए,
यही है सत्य,
“कथनी करनी भिन्न जहाँ
धर्म नही पाखंड वहां”.
शशिकान्त गुप्ते इंदौर