Site icon अग्नि आलोक

आईज़ इवॉल्व्ड एंड नाऊ कॉसमास कुड सी : कार्ल सैगन*

Share

 पुष्पा गुप्ता 

        _कार्ल सैगन की बड़ी दिलचस्प उक्ति है- “आईज़ इवॉल्व्ड एंड नाऊ कॉसमास कुड सी” (आँखें विकसित हुईं और अब ब्रह्मांड देख सकता था)। ये आँखें धरती पर विकसित हुई थीं, उन प्राणियों में जिनमें जीवन था। जब उनमें कान विकसित हुए तो क्या ब्रह्मांड सुनने में सक्षम हुआ? जिह्वा से बोलने में? त्वचा से छूने में? मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से सोचे जाने वाले ब्रह्मांड में आत्मचेतना के निवेश की ये अभिव्यक्तियाँ और जिज्ञासाएँ हैं।_

        आप इसे सृष्टि का मानवीयकरण भी कह सकते हैं, जो छायावादी कविता की प्रिय युक्ति थी। ज्ञात-ब्रह्मांड में धरती के सिवा कहीं और जीवन का पता नहीं लग सका है और धरती पर भी भाषाएँ और विचार और कल्पनाएँ मनुष्यों के निजी उद्यम हैं। जब खगोल-विज्ञानी कहते हैं कि हम सौरमण्डल के दूसरे ग्रहों और पिंडों पर जीवन की तलाश कर रहे हैं तो वे किन्हीं व्यक्तियों या प्राणियों की बात नहीं कर रहे होते, वे माइक्रोब्स की बात कर रहे होते हैं- एक कोशिका वाले सूक्ष्मतम जीवाणु। किंतु वे भी नहीं मिल सके हैं।

         एक पृथ्वी ही है, जहाँ जीवन विकसित हुआ, जहाँ ऐसे प्राणी उत्पन्न हुए जो देख सकते थे और कह सकते थे कि उनके माध्यम से ब्रह्मांड ने रंगों को व्यक्तिपरकता से जाना। अगर धरती पर और मनुष्यों में आँखें विकसित नहीं होतीं तो रंगों का क्या होता? क्या वे होते भी? संसार की एक रूपकात्मक व्याख्या यह भी है कि दृश्य और द्रष्टा में तारतम्य न हो तो उनके बीच का सेतु टूट जाता है।

       जब कोई देख नहीं सकेगा, तो देखने को कुछ शेष भी नहीं रहेगा। विषय और विषयी में अद्वैत है। ये बड़ी गहरी गुत्थियाँ हैं। 

मनुष्य की चेतना संसार के एक वृत्त को आलोकित करती है। उसे बोधगम्य बनाती है। चेतना के बुझते ही क्या संसार भी लुप्त हो जाता है? जब वह चेतना नहीं थी, तब संसार नहीं था? था तो उसकी वस्तुनिष्ठता कैसी रही होगी, क्योंकि हमने जब भी, जो कुछ भी जाना, एक व्यक्तिनिष्ठ परिप्रेक्ष्य से ही जाना है।

       व्यक्ति की चेतना सदैव से ही इस सृष्टि में नहीं थी, न ही जीवन सदैव से था। पदार्थ में प्राण और चेतना की उत्पत्ति संसार का सबसे बड़ा रहस्य है। इसका कोई उत्तर अभी तक मिला नहीं है। विज्ञान ने पदार्थ की उत्पत्ति के बारे में जान लिया है, जिसे वो महाविस्फोट कहता है। उसने उद्विकास की सैद्धांतिकी भी रच ली है। किंतु पदार्थ में जीवन कैसे उपजा, यह जाना नहीं जा सका है।

      आध्यात्मिक परम्पराएँ इसे दूसरे तरह से देखती हैं। उनके लिए चेतना एक चिन्मय-यात्रा है। जन्म से पहले और मृत्यु के बाद भी वह यात्रा गतिमान रहती है। जीवन मध्य का एक पड़ाव है। यह दृष्टि कर्म-संस्कार, लोक-परलोक, जीवात्मा-परमात्मा की बात करती है, किन्तु है यह अंतत: एक दृष्टि ही। इसे कहा गया है और माना गया है, किन्तु सबके द्वारा जाना नहीं गया है।

        कोई चीज़ जब तक समूहगत रूप से जानी नहीं जाएगी, वह सार्वभौमिक-सत्य का हिस्सा नहीं बन सकेगी।

मैं एक बार फिर कार्ल सैगन को उद्धृत कर रहा हूँ, जिन्होंने कहा था कि “पृथ्वी पर पदार्थ ना केवल जीवित हुआ, बल्कि सचेत भी हुआ है”- (“हियर ऑन प्लैनेट-अर्थ, मैटर ऑफ़ कॉसमास बिकैम अलाइव एंड अवेयर!”) ट्री ऑफ़ नॉलेज नामक एक हाइपोथेटिकल-फ्रैमवर्क है, जो जीवन की उत्पत्ति की विकास-यात्रा को चार चरणों में बाँटकर देखता है- मैटर, लाइफ़, माइंड और कल्चर। इसमें कुछ तारीख़ें ध्यान में रखने जैसी हैं।

         पहली तारीख़ है मैटर से सम्बंधित। 13.7 अरब वर्ष पूर्व महाविस्फोट से पदार्थ की उत्पत्ति हुई (बिग बैंग : यह भी एक और हाइपोथिसीस है, जिस पर आधुनिक भौतिकी प्रतिष्ठित है, किन्तु बिग बैंग से पहले क्या था? यह वैसा ही अनुत्तरित-प्रश्न है, जैसा यह कि संसार को ईश्वर ने बनाया तो ईश्वर को किसने बनाया?) इसी के साथ ऊर्जा, समय और स्पेस जन्मे। एक नूर ते सब जग उपज्या।

      दूसरी तारीख़ लाइफ़ से जुड़ी है। 4 अरब वर्ष पूर्व लिविंग-ऑर्गेनिज़्म की उत्पत्ति हुई। कार्बन-आधारित अणु जाने किस प्रेरणा से आपस में जुड़े और जटिल संरचनाएँ विकसित हुईं। फिर अचानक उनमें प्राण जगा। वे सचेत हुए। एकोऽहम् बहुस्यामि- एक से दो हुए, दो से अनेक। एवॅल्यूशन का कारख़ाना चल पड़ा।

       तीसरी तारीख़ का नाता माइंड से है। 70 हज़ार साल पहले संज्ञानात्मक-क्रांति हुई। एक जेनेटिक-म्यूटेशन- एक क़िस्म की गम्भीर भूल- ने मनुष्यों में सोचने की क्षमता विकसित की, उन्होंने भाषाएँ, प्रतीक और मिथक रचे। चौथी तारीख़ ऊपर की तीनों तारीख़ों का जमाजोड़ है।

       इस समूची प्रक्रिया के फलस्वरूप- जैसे समुद्रमंथन से निकला हलाहल हो- कल्चर का जन्म हुआ। मनुष्य ने अपनी छाप दुनिया पर छोड़ी, स्वयं को उसके केंद्र में रखकर चिंतन किया, नानारूप रचे, अनेक भ्रमों में पड़ा।

पृथ्वी पर जीवन का समारोह- बायोडायवर्सिटी का महाउत्सव- इतना विराट और सर्वव्यापी है (इसको रिचर्ड डॉकिन्स ने “द ग्रेटेस्ट शो ऑन अर्थ” कहा है) कि एकबारगी मनुष्य भूल बैठता है कि यह ब्रह्मांड की दुर्लभतम परिघटना है। एक पहलू के भीतर दूसरा पहलू गुंथा हुआ है।

      पदार्थ से जीवन, जीवन से बुद्धि, बुद्धि से आत्मचेतना की एक लम्बी शृंखला है। मनुष्य ने अपना एक परिप्रेक्ष्य विकसित किया है, जिसका वह बंधक बन चुका है। इंटेलीजेंट-लाइफ़ के बारे में मैंने इधर बहुत सोचा है और पाया है कि वृक्षों, पशु-पक्षियों और मनुष्य का शरीर- ये सब एक समान ऑर्गेनिक-केमिस्ट्री से बने हैं और इन सबमें समान जैविक मेधा है।

      ये जटिल यंत्र एक अकथनीय ऊर्जा के वशीभूत होकर जीवन को चला रहे हैं- किंतु मनुष्य के मस्तिष्क में कॉग्निटिव-रिवोल्यूशन के जो दुष्परिणाम हुए- वह सृष्टि की गति से विलग एक उपधारा है। इसने उसे विपथ कर दिया है। मनुष्य वृक्ष और पशुओं से अधिक बुद्धिमान नहीं है, उसके पास केवल उनसे अधिक भाषाएँ है, प्रतीक हैं, मिथक हैं, और सबसे बढ़कर आत्मचेतना है।

       ये उसके दिमाग़ में उभरी हलचलें हैं। और ये हलचलें एक भयावह दुर्घटना का परिणाम हैं- 70 हज़ार साल पुराना एक एक्सीडेंटल म्यूटेशन।

        किन्तु इस दुर्घटना ने मनुष्य के भीतर श्रेष्ठता का जो अनैतिक भ्रम रचा है, उसने सर्वनाश और आत्मनाश को जन्म दिया है। उसके जीवन का अधिकार वृक्षों, पशुओं और पक्षियों के जीवन के अधिकार से बड़ा नहीं, यह विवेक वह तभी हासिल कर सकता है, जब वह चीज़ों को पदार्थ, ऊर्जा, तरंग, वलय, गूँजों-अनुगूँजों, शाखा-प्रशाखाओं की दृष्टि से देखे और उनके बीच स्वयं को निरखे-परखे।

       अभी वह जिस ह्यूमन-पर्सपेक्टिव से चीज़ों को देख रहा है, उसका आरम्भ ही जब दोषपूर्ण है तो अवसान कैसा होगा।

        मिट्‌टी में किसने प्राण फूंके और किसने उसे चेतना और बुद्धि दी- यह रहस्य भले न सुलझ सकता हो- यह जानने के लिए किसी बहुत गहरी मेधा की ज़रूरत नहीं कि एक लम्बी यात्रा में मनुष्य डार से अलग हुआ है, रास्ता भूला है, स्वयं को फिर से उस महान-सातत्य से जोड़े बिना, निरभिमान होकर छद्म आत्मचेतना का त्याग किए बिना उसे मुक्ति नहीं मिलने वाली।

Exit mobile version