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चेहरे को थोपना अलोकतांत्रिक सोच?

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शशिकांत गुप्ते

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ  कहलाने वाले समाचार माध्यम में जब ये खबर प्रकाशित और प्रसारित होती है कि, फलां राजनैतिक दल बगैर चेहरे के चुनाव लड़ रहा है?
तब दुर्भाग्य से चौथे संभ की अलोकतांत्रिक सोच स्पष्ट परिलक्षित होती है?
चुनाव पूर्व कोई भी राजनैतिक दल किसी चेहरे को प्रस्तुत करता है,इसका सीधा अर्थ उस राजनैतिक दल में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त प्रायः है?
चुनने और थोपने में फर्क है।
थोपने का सीधा अर्थ है,दल में अमुक व्यक्ति के अलावा कोई और दूसरा व्यक्ति योग्य है ही नहीं?
थोपे गए व्यक्ति की योग्यता दल के High common पर पर निर्भर होती है,क्षमा करना निर्भर नहीं है, हाई कमान की अनुकंपा पर अवलंबित होती है।
दल के साधारण कार्यकर्ता जो विधायक या संसद का चुनाव लड़ते हैं वे, राजनैतिक दल द्वारा थोपे गए चेहरे के अधीन हो जातें है। भलेजी वह चेहरा उन्हे पसंद हो या ना हो? इन्हे yes man की ही भूमिका अदा करनी पड़ती है।
उपर्युक्त मानसिकता के कारण ही दल के अंदर रह कर भी दल की गलत नीतियों का विरोध करने का साहस समाप्त हो जाता है।
प्रत्यक्ष उदाहरण है, अब गुजरात में जघन्य अमानवीय कांड हुआ तब तात्कालिक सत्ता के साथ समाजवादी विचारों के लोगों का गठबंधन था। समाजवादी हमेशा संघर्ष शील रहें हैं दुर्भाग्य से गुजरात के कांड के समय समझौतावादी हो गए। लोहियाजी होते तो वे अपने सभी साथियों के साथ सत्ता से बाहर आ जाते।
लोहियाजी ने केरल में समाजवादियों की सरकार गिरा दी थी। कारण केरल की तात्कालिक समाजवादी सरकार ने गोली चलवाई थी।
लोहिया ही थे जो राजनीति की गंदी गली में भी शुद्ध आचरण की बात करते थे। वे एकमात्र ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपनी पार्टी की सरकार से खुलेआम त्यागपत्र की मांग की, क्योंकि उस सरकार के शासन में आंदोलनकारियों पर गोली चलाई गई थी। ध्यान रहे स्वाधीन भारत में किसी भी राज्य में यह पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी– ‘‘हिंदुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निंदा उसी पार्टी के लोग करें।….और मै यह याद दिला दूं कि मुझे यह कहने का हक है कि हम ही हिंदुस्तान में एक राजनीतिक पार्टी हैं जिन्होंने अपनी सरकार की भी निंदा की थी और सिर्फ निंदा ही नहीं की बल्कि एक मायने में उसको इतना तंग किया कि उसे हट जाना पडा़।
यह घटना 28,,29 नवंबर 1954 की है
ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं हैं,हाल ही में इंदौर में जो बावड़ी कांड हुआ इस कांड के बाद सत्ता पक्ष के कितने लोगों में मानवीय संवेदनाएं जागी है?
क्यों इन लोगों में अपने ही दल के लोगों के गैर कानूनी कार्य का विरोध नहीं किया? या विरोध करने साहस क्यों नहीं है?
विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में जबतक हर एक दल में आंतरिक लोकतंत्र मजबूत नहीं होता तबतक सत्ता दल के सदस्यों द्वारा सत्ता की गलतियों का भी मौन समर्थन ही करना पड़ेगा।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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