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आस्था आहत नहीं होनी चाहिए

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शशिकांत गुप्ते

आराध्य भगवान की मूर्तियों का अपमान हुआ।धार्मिक आस्था आहत हुई।निगम कर्मियों के साथ कुछ अधिकारी निलंबित किए गए।
सामाचारों में उक्त खबर पढ़,सुन और देखकर आश्चर्य होता है, कारण एक ओर कुछ वर्षों में आस्थावान लोगों में प्रगाढ़ आस्था जागृत हो रही है।दूसरी ओर भगवान की मूर्तियों का अपमान बहुत गम्भीर प्रश्न है?
वर्तमान में आस्थावान लोगों की आस्था को तनिक भी ठेंस पहुँचाने वाली कोई घटना घटित हुई कि,आस्थावान लोग कानून व्यवस्था को गर्व के साथ अपने हाथों में लेलेतें हैं?
जब आस्था का प्रश्न उपस्थित होता है,तब कानून अपने हाथों में लेना चाहिए या नहीं, यह सवाल पूर्णतया गौण हो जाता है?
हम तो धार्मिक मान्यताओं पर विश्वास रखने वालें लोग हैं।हम एक दूसरे को निराशा और हताशा बचने के लिए दिलासा देते हुए इस सूक्ति का स्मरण करतें हैं।भगवान के घर देर है,अंधेर नहीं है।
आश्चर्य होता है कि,वर्तमान में तो स्वयं भगवान की मूर्तियां, प्रशासनिक व्यवस्था में व्याप्त अँधेरगर्दी का शिकार हो रहीं हैं?
शासन जिस राजनैतिक दल का होता है, उसी के पसंदीदा प्रशासनिक अधिकारियों की नियुक्तियां होती है?पसंदीदा प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यकाल में भगवान की मूर्तियों के अपमान की घटना घटित होना तो बहुत ही अचंभित करने वाली घटना है?यह अक्षम्य भी है।
हम तो इस मान्यता पर भी विश्वास रखतें हैं कि, जो है कर्ता वह भरता,है यहाँ का ये चलन।
भगवान की मूर्तियों का अपमान यदि पाप है,तो जिन्होंने भी यह पाप किया है,वे जरूर पाप की सज़ा तो भोगेंगे ही।
यह तो दार्शनिक मान्यता है।भगवान की मूर्तियों का घोर अपमान करने वालों को व्यवहारिक तौर पर शासकीय प्रबंधन के अंतर्गत जो भी नियम है। उन नियमों का आधार पर सज़ा होनी ही चाहिए।
जहाँ आस्था का प्रश्न उपस्थित होता है वहाँ कोई भी किसी भी प्रकार का समझौता नहीं होना चाहिए।
हम स्वयं भी आस्थावान बन रहें है और लोगों को आस्था के लिए जागृत भी कर रहें हैं।कभी कभी आस्था जागृत करने अभियान में मजबूरन हमें बाहुबल का सहारा भी लेना पड़ता है?
हम आस्थावान लोग हैं।भगवान की आस्था के आगे हम सारी समस्याओं को नजरअंदाज कर देतें हैं।आस्था हमे सहिष्णु बनाती है।हम मानतें हैं कि सबूरी का फल मीठा होता है।
हमारी सहिष्णुता हमें बढ़ती महंगाई,बेरोजगारी और अन्य बुनियादी समस्याओं को सहन करने शक्ति देती है।आस्था के साथ सहिष्णुता जरूरी है।
लोकमान्य तिलकजी ने गणेश उत्सव की स्थापना दस दिनों के लिए की थी।दसवें दिन गणेशजी की मूर्तियों को बकायदा पूजा पाठ कर पानी में विसर्जित करने की परंपरा भी शुरू की है।गणेशजी की मूर्तियों को पानी में विसर्जित करने का कारण यही हो सकता है कि, उत्सव समाप्त होने के बाद मूर्तियों का अपमान न हो।
वर्तमान में तो मूर्तियों को विसर्जित करतें समय उनका घोर अपमान हो रहा है।
मूर्तियों को निर्मित करने वालों को चाहिए कि वे मूर्तियों को मिट्टी की ही बनाए प्लास्टर ऑफ पेरिस के न बनाएं।
अगले वर्ष अस्थावान लोगों को चाहिए कि ये लोग मूर्ति निर्मित करने वालों पर नजर रखें।
यदि मूर्ति गलने वाली मिट्टी की निर्मित नहीं हो रही हो तो अपनी आस्था का परिचय दे।
नगरनिगम महकमें को चाहिए कि अपने अधिकारियों और कर्मियों को मूर्तियों को विधिवत विसर्जन करने का प्रशिक्षण दे।प्रशिक्षक के रूप में प्रगाढ़ आस्थावान लोगों का ही चयन होना चाहिए।
भविष्य में मतलब अगले वर्ष अपने आराध्य भगवान की मूर्तियों का अपमान नहीं होगा इसी आशा के साथ यहीँ पूर्ण विराम।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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