डॉ. विकास मानव
जो सत् से अनुप्राणित है, जो सत् के लिये वर्तमान है, सत् से जिस की विद्यमानता है, जिसका सर्वस्व सत् है, जो सत् में प्रस्थिति है, जो सत् को जीवनलक्ष्य मानता है तथा जो स्वयं सत् स्वरूप है, वही सज्जन कहलाता है।
जिव्हा से सूक्ति वन कर शक्ति का निर्गमन होता है। शरीर से व्यक्ति रूप धर शक्ति कार्य करतो है। हृदय में भक्ति बन कर यह रहती है। बुद्धि में युक्ति रूप से यह चरती है। व्यवहार में भुक्ति बन कर यह सुख दुःख की हेतु होती है। मन में मुक्ति रूप से वह उसे चलायमान किये रहती है। जीव में आसक्ति बन कर यही प्रपक्ष रूप में भास रही है।
शक्ति-व्यक्ति, भक्ति, सूक्ति, युक्ति, मुक्ति, भुक्ति, आसक्ति यह शक्ति लोक में देव और देवी के रूप में जानी एवं पूजी जाती है। यह शक्ति भीतर से जब फूटती है तो व्यक्ति अपि कहलाता है। भूषि और इस शक्ति में अभेद हो जाता है। अषियों ने इस शक्ति को जैसा देखा वैसा छन्दबद्ध किया।
वेद में सूक्तरूप से व्यजित इस शक्ति के द्रष्टा अषि पुरुष वा स्त्री हैं। अग्वेद के दशममण्डल के सूक्त संख्या १२५ में कुल ८ मंत्र हैं। इस सूक्त की अपि वागाम्भृणी देवता आत्मा है।
[महर्षि अम्भृण की कन्या का नाम वाकू था वह ब्रह्मवादिनी थी उसने शक्ति के साथ अभिन्नता प्राप्त कर ली थी।]
अहं रुद्रेभिः वसुभिः चराम अहं आदित्यैः उत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा विभर्मि अहं इन्द्राग्नी अहं अश्विनोभा॥ १॥
अहं सोमं आहनसं बिभर्मि, अहं त्वष्टारं उत पूषणं भगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते, सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते॥ २॥
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा, भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्॥ ३॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति,
यः प्राणिति य ई शृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां उप क्षियन्ति,
श्रधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि॥ ४॥
अहं एवं स्वयं इदं वदामि ,
जुष्टं देवेभिः उत मानुषेभिः।
यं कामये तं तं उग्रं कृणोमि,
तं ब्रह्माणं तं अपि तं सुमेधाम्॥ ५॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि, ब्रह्मद्विषे शरवे हन्त वा उ।
अहं जनाय समंद कृणोमि, अहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥ ६॥
अहं सुवे पितरं अस्य मूर्धन् मम योनिः अप्स्वन्तः समुद्रे।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि॥ ७॥
अहं एवं वात इव प्रवामि आरभमाणा भुवनानि विश्वा।
परोदिवा पर एना पृथिव्यै तावती महिना संवभूव॥ ८॥
~ऋग्वेद (१० । १२५ । १-८)
चार स्त्री (सौम्य भाव है- दया, क्षमा, सहिष्णुता, सरलता (निष्कपटता) चार पुरुष ( पुरुष / क्रूर) भाव हैं-दर्प क्रोध ईर्ष्या, वक्रता (कपट)। स्त्री होने पर ही ब्रह्म पथ दिखायी पड़ता है। प्रधानता भाव की है, लिंग की नहीं।
पुरुष को ब्रह्मपथ अलभ्य है। विराट को पाने के लिये सबको स्वी बनना (सौम्य होना) होता है।
कबीर कहते हैं :
“हरि मेरो पीव, मैं राम की बहुरिया।”
परमात्मा मेरा प्रिय है, मैं उस की स्त्री दुल्हन हूँ। अर्थात् समर्पण का भाव / अहंकार का तिरोधान / स्व का पर में विलय / तद्रूपता/ परमयोग इसे समाधि कहते हैं। इस सूक्त में समाधि अवस्था की अनुभूति का वर्णन है।
सूक्तार्थ :
१. मैं रुद्रों, वसुओं, आदित्यों एवं विश्वदेवों के साथ चरती (विद्यमान रहती हूँ। मैं ही मित्र और वरुण दोनों को, इन्द्र एवं अग्नि को तथा दोनों अश्विनी कुमारों को सतत धारण करती हूँ।
【चरामि = चर् पर. लट् उ. पु. एक वचन।】
२. मैं जीवनदाता (आकाशचारी) सोम का पालन करती हूँ। मैं त्वष्टाओं (प्रजापतियों) पूषा और भग का भी पालन करती हूँ। मैं हवि से सम्पन्न हो (अग्नि रूप में) उस यजमान को, जो देवों को हविष्य की प्राप्ति कराता अर्थात् यज्ञ करता है, धन प्रदान करती हूँ।
【 आ + हन् (प्राणने, जीवन दाने) + क्विप् =आहन् । अस् (गतौ असति-ते) + अच् =असम् । आहन् + असम् = अहनसम् अमृतमयी चन्द्रिका । दधामि = धा धारणे पोषणे + लट् पर. उ. पु. एक वचन 】
३. में सतत प्रकाशमयी सम्पूर्ण जगत् की अधीश्वरी हूँ अपने उपासकों को धनों को मिलाने (प्राप्ति कराने वाली हूँ, ज्ञान से तुष्ट/ प्रसन्न होने वाली हूँ, देवताओं में प्रथमा (प्रधान) हूँ। वे देवता जो कुछ भी ग्रहण करते, धारण करते, वह सब मेरे लिये करते हैं। मैं स्वर्ग लोक की रक्षा करने वाली, सम्पूर्ण भूतों में रहने वाली तथा सर्वाश्रया हूँ।
【राज् दीप्ती +ष्ट्रन् + ङीष्= राष्ट्री-दीप्तिमती, सर्वेश्वरी, अधिस्वामिनी। सम् + गम् + ल्युट् + ङीष = संगमनी- मिलाने/ प्राप्त कराने वाली। कित् (निवासे रोगापनयने चिकित्सति भ्वा. पर) + उषन्+ ङी= चिकितुषी-सर्वत्र रहने वाली, स्वस्थ, वैद्या। किंतु + सन्। सन्नतधातु चिकित् + स। कित् ज्ञाने चिकेति= तुष् प्रीती तुष्यति + क + ङीष्= चिकितुषी-ज्ञान से प्रसन्न/तुष्ट होनी वाली। यज्ञियानाम् = यज्ञ + छ + सुप् । पूजनीय देवताओं में। प्रथ् प्रथते ऐश्वर्य वृद्धौ + अमच+टाप् =प्रथमा-श्रेष्ठतम अनुपम, प्रमुख, प्रधान। वि + अद् भक्षणे अत्ति+ क्विप् + धि धारणे धियति + कु =व्यदधु-ग्रहण करने एवं धारण करने वाली। पृ + कु +त्रै + क + टाप्= पुरुत्रा- लोक की रक्षा करने वाली भूरि- अव्यय शब्द भू + क्रिन्। प्रचुर यथेष्ठ बहुत असंख्य विस्तृत ।स्था तिष्ठति + त्रन् + टाप् = स्थात्रा सर्वत्र टिकने रहने वाली ।आ + विश् प्रवेशने + घञ् + मतुप् + ङीष्= आवेशवन्ती सब में व्याप्त प्रविष्ट ।】
४. प्राणी जो अन्न खाता है, वह मेरी शक्ति से खाता है। इसी प्रकार वह जो देखता है साँस लेता है तथा कही हुई बात को सुनता है, वह सब मेरे द्वारा ही होता है | मैं सब की सामर्थ्य हूँ। जो मुझे इस रूप में नहीं जानते, वे अनजाने ही दुर्दशा को प्राप्त हो जाते हैं। हे श्रधिश्रुत ! मैं तुम्हें श्रद्धा से प्राप्त होने वाले ब्रह्म तत्व का उपदेश करती हूँ।
【ईङ् (गति व्याप्ति प्रजनन कान्तयसन खादनेषु भ्वा. अयति, अदा. एति, दिवा. ईयते) + क्विप् = ई-गतिशीला सर्वव्यापिनी, उत्पन्नकर्त्री प्रजावती दीप्तिमतो भोक्त्री प्रलयंकरी। मन् ज्ञाने मन्यते मनुते + तु= मन्तु जानने वाला। अमन्तवः = नञ् + मन्तु + जस्। न जानने वाले, अज्ञानी लोग|】
५. मैं स्वयं ही देवों और मनुष्यों द्वारा सेवित इस दुर्लभ तत्व को कहती हूँ। मैं जिस-जिस को चाहती हूँ उस उस को उम्र करती / ऊंचा उठाती हूँ, शक्तिशाली बनाती हूँ। उसी को मैं ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) बनाती हूँ, अषि (परोक्ष ज्ञान सम्पन्न) बनाती हूँ तथा उत्तम मेधाशक्ति से युक्त करती हूँ।
【जुष् जुषते प्रसन्न होना +क्त= जुष्ट- अनुकूल / प्रसन्न होती हूँ। बृह + मनिन् + अण् = ब्रह्माण-बड़प्पन पाने वाला, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ । ऋष् गतौ प्राप्तौ च + कि =ऋषि सर्वत्र जाने पहुँचने वाला, सर्वग, सर्वज्ञ, कवि ।सु + मेध् मेधति ज्ञाने + असुन् = सुमोस् विद्वान् ज्ञानवान्॥】
६. मैं ही ब्रह्मद्वेषी को मारने के लिये रुद्र (धर्मवीर के धनुष को बढ़ाती हूँ, वाण प्रहार करती हूँ। मैं (शरणागत) जनों के लिये भीषण रूप धारण कर (दुर्गारूप से) असुरों/ दुष्टों का संहार करती हूँ। मैं अन्तर्यामी रूप से पृथ्वी और आकाश में व्याप रही हूँ |
【समद = सह मदेन, नशे में चूर, भीषण, उम्र रूप से। कृ हिंसायाम् + लट् पर. प्र. पु. एक वचन = कृणोमि संहार करती हूँ।】
७. मैं इस जगत् के पिता पालक पोषक रक्षक प्रमुख सत्ता वा परमात्मा को उत्पन्न करती हूँ। इस परमात्मा (आकाश/समुद्र) में जल मेरी योनि (सृष्टिकारक तत्व) है। इस से मैं समस्त भुवनों में व्याप्त हूँ। उस स्वर्गलोक का मैं अपने शरीर से स्पर्श करती हूँ मैं विराट् हूं.
[सुवे=सू (जनने प्रसवे उत्पादने हूँ। अदादि, तुदा. प्रेरणे) + आ. लट् प्र. पु. एक वचन। उत्पन्न करती हूँ, प्रेरित करती हूँ। मूर्धन्= मुह + कनि । सिर उच्चतम बिन्दु प्रमुख तत्व सर्वोपरि सत्ता परमेश्वर वा आकाश। समुद्र = सह + मुद् मोदते प्रसन्नतायाम् + रक्/ आनन्दमय/वर्मणा =वृष् + मनिन् + टा शरीर से ऊंचाई से सुन्दर / मनोहर रूप से। उप स्पृशामि = उप + स्पृश् + लट् प्र. पु. एक व। छूती हूँ, स्नान करती/ तर होती हूँ। वि + स्था + आ. लट् प्र. पु. एक व. स्थित रहती हू।】
८. मैं ही सम्पूर्ण भुवनों की रचना करती हूँ। मैं पृथ्वी और आकाश वायु दोनों से परे हूँ। अपनी महिमा से ही में ऐसी हुई हूँ |
【वा गतौ + मि=वामि-स्वयमेव चलती हूँ। प्र+वामि।आ+रभ्+शानच्+टाप्= आरभमाणा लगी रहती, व्यस्त रहती हूँ। मह् पूजायाम् +इनि = महिन्। + टा= महिना-प्रतिष्ठा वा महिमा से सम् भू सत्तायाम् लिट् पर. व. पु. एक व.】
यह सूक्त एक स्त्री कृषि का आत्मानुभव है। पुरुष भूमि भी ऐसा अनुभव करता है। अनेकों ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ हुई हैं। कहा गया है, वेद अपौरुषेय हैं। ये पुरुष की कृति नहीं हैं। क्या ये स्वीकृत हैं ? हाँ जितने अपि हैं वे सब स्त्री है, क्योंकि उनमें स्त्री भाव है।.
मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा- ये स्त्री भाव शील हैं। शील से होन तथा पुरुष भावों-वैर, हिंसा, खिन्नता, अमर्ष से युक्त व्यक्ति पुरुष होता है, उसका लिंग कुछ भी हो। ऐसे दुःशील का वेद में अधिकार कैसे हो सकता है ? ऐसे वेशधारी पीठासीन लोग वेदच्युत हैं।
भले ही ये विषमलिंगी हों। स्वीवेद की पूर्ण अधिकारिणी है। स्त्रीलिंग होना कोई व्यवधान नहीं। स्त्री ही पुरुष को जन्म देती और उसकी प्रथम गुरु होती है। तद्जन्मा पुरुष वेद पढ़े और तद्जननी स्त्री वेद न पढ़े, यह कहाँ का न्याय है ? ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ सर्वदा सब काल में रही हैं और अब भी हैं।