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पर्व-त्यौहार नहीं, लोकोत्सव है होली : कहाँ गये होरी गाने वाले इंसान ?

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ज्योतिषाचार्य पवन महर्षि (वाराणसी)

 _आज मैं आपको एक संस्मरण के माध्यम से अभी 90 के दशक के ही कुछ ऐसे लोगों से मिलबाता हूँ जो होली के सांस्कृतिक लोकगीत गाया करते थे।_
    बात मैं भले ही अपनी जन्मस्थली काशी के लोगों की कर रहा हूँ लेकिन ऐसे लोग हमेशा ही सम्पूर्ण भारत वर्ष का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं।

बचपन में जब मैंने होली और उससे जुड़ी चीज़ों को जाना, तो होली के लिए जी-जान से समर्पित दो ऐसे लोगों के बारे में भी जाना, जो कई मायनों में एक जैसे थे।
जैसे कि दोनों मन से अच्छी होलियाँ गाते थे, दोनों धोती-कुर्ता पहनते थे, दोनों की बोलचाल, स्वभाव और संस्कृति भी एक जैसी ही थी, …और तो और दोनों का नाम भी एक ही था – ” नन्हे ” । …फर्क़ सिर्फ़ धर्म का था। एक हिन्दू थे और दूसरे मुसलमान थे।


छोटे वाले नन्हे हमारे चाचा लगते थे, उनकी पत्नी स्वर्गवासी हो गयीं थीं, इसलिए चूल्हा-चौका, साफ-सफाई और खाने-पीने का इंतज़ाम उन्हें खुद ही करना पड़ता था। उंगलियाँ हुनर से लबरेज़ थीं और ज़मीन भी थी, तो कोई चिंता नहीं थी और होली के लिए वक़्त ही वक़्त था।
उन्हें होली गाने का इतना जुनून था कि वे कमर में ढोल कस कर घण्टों चौपई ( Group ) में गाते नाचते रहते थे।

…तो दूसरे बड़े वाले नन्हे हमारे बाबा लगते थे। जो खेती-बाड़ी करते थे और गाय-भैंस पालते थे। भरा-पुरा परिवार था। उन्हें होली के सैकड़ों लोकगीत याद थे। आसपास के लोग उनसे गीत गवा कर, लिख कर ले जाते थे। उन्हें चिमटा बजाने का भी बहुत शौक था।
..वे भी होली गाने के इतने दीवाने थे के अगर जुमे ( शुक्रवार ) के रोज़ भी होली पड़ जाये तो भी वे सुबह की पुरुषों की चौपई में होली गाते थे, फिर दोपहर में नीम वाली मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जाते थे और फिर वापस आकर शाम को महिलाओं की चौपई में होली गाते थे।
उन दिनों फाल्गुन आते ही पुरुषों के होली गाने का सिलसिला शुरू हो जाता था। लोग अपने कार्य से निवृत्त होकर रात्रिकाल में ही होली गाना और सुनना पसंद करते थे।
इसलिए हर रात किसी न किसी की चौपाल ( Lawn ) में होलियाँ गाने का कार्यक्रम होता था।

जब लोग कई जगह कार्यक्रम रख लेते थे तब दोनों नन्हे अलग-अलग ग्रुप में बंट कर हर जगह होली गवाने की ज़िम्मेदारी निभाते थे।
     _वो लोग प्रोफेशनल नहीं थे, ये उनकी निःस्वार्थ समाज सेवा और होली के प्रति समर्पण था। दोनों अन्य लोगों को भी होली गाने के लिए न केवल प्रोत्साहित करते थे बल्कि उन्हें गाना-बजाना सिखाते भी थे।_
  उन दिनों होली के लगभग एक सप्ताह पहले मुहूर्त अनुसार " शोक उठाने " की भी परंपरा थी। जिसकी अगुआई भी यही दोनों नन्हें किया करते थे।

“शोक उठाना ” यानि ग़म/दुख भगाना। आसान लफ़्ज़ों में कहूँ तो उन दिनों जिन घरों में किसी की मृत्यु हो जाती थी उनके घरों में गमी की होली होती थी। उन दिनों उन घरों में क्या, बल्कि उनके खानदान में भी कोई छोटा या बड़ा उत्सव होली से पहले नहीं होता था और इस नियम का कड़ाई से पालन किया जाता था।
“शोक उठाने ” के समय दोनों नन्हे ढोल, मजीरे, ताशे, खड़ताले, चिमटे की घुन पर, तमाम साथियों के साथ हर ग़मी वाले के घर पर जाकर नाचते-गाते थे।
एक गीत की वानगी दृष्टव्य है –
कौम पै बड़े-बड़े जोधा भये,
एक पाती कनबज भेजौ।
लाखन को लेउ बुलाय,
चलो माढौ में होरी खेलैगे।।

शोक उठना इस बात का प्रतीक होता था कि अब इस घर के लोग ग़म से उबर कर उत्सव मनाना आरम्भ कर सकते हैं।
90 का दशक आते-आते होली गाने वालों की टोली की तस्वीर बदल चुकी थी। अब दोनों नन्हे इस संसार से विदा ले चुके थे। एक नन्हे भगवान को, तो दूसरे अल्लाह को प्यारे हो गये थे।
दोनों नन्हें के अलविदा कहने के बाद तकरीबन डेढ़ दशक तक, उन्हीं की टोली के एक सदस्य लाला रामभरोसे ने होली गाने और गवाने की ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया।

राम भरोसे भैय्या ने होली गाने-बजाने की परंपरा को एक नया आयाम दिया। चूँकि उनका साउंड सिस्टम का कारोबार था। इसलिये वे माइक लगा कर होली गाने का कार्यक्रम करते थे। उन्होंने वाद्ययंत्रों में हारमोनियम का प्रचलन भी शुरू किया। 2000 के दशक में यह हालत हो गये की अब होली गाने का कार्यक्रम केवल लाला रामभरोसे के यहाँ ही होता था।
असमय वे भी पहले गौंतरा और फिर दुनिया छोड़ कर चले गये। लाला राम भरोसे के बाद नई पीढ़ी की उदासीनता और वैश्वीकरण ने इस परंपरा पर सदा के लिए पूर्ण विराम लगा दिया।
2010 का दशक आते-आते न होली गाने वाले रहे और न सुनने वाले। लोगों ने होली के फिल्मी गानों के साथ डीजे पर थिरकना शुरू कर दिया।

होली पर प्रोफेशनल डॉन्सर हायर किये जाने लगे, मैकशी आदि का ट्रेंड भी होली के साथ जुड़ गया। जिस कारण होली के जुलूस भी औपचारकता मात्र हैं और अपने आखिरी दौर में है।
आज के डिजिटल युग ने होली को भले ही भव्यता प्रदान कर दी है। लेकिन अब नन्हे और रामभरोसे जैसे लोग कहीं भी होली गाते नज़र नहीं आयेंगे और न कहीं वो गंगा-जमुनी तहज़ीब की अद्भुत मिसाल मिलेगी, जिसके सापेक्ष हम अखंड भारतीयता में सूत्र में बंधे हुए हैं।
..वो होरी गाने वाले अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी रंगीन यादें हमेशा, उनके होने का अहसास कराती हैं।

…शोर में कहीं दूर से उनकी सुरीली आवाज़ और ढोलक की थापें सुनाई देतीं हैं। हर रंगे-पुते चेहरों में उनकी सूरत नज़र आती है।
…मैं जानता हूँ ये मेरा वहम है, धोखा है। …मगर इस झूठी दुनिया में ये सच्चे धोखे बड़ा सुकून देते हैं।
(चेतना विकास मिशन)

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